शनिवार, 30 अप्रैल 2011

कैफ़ेराटी की शाम हैबिटेट में (Caferati @ Habitat)

मैं तो बस युं ही पहुंच गया था मुआयना करने के लिहाज़ से कि क्या चीज है यह. जाते ही दानिश भाई ने पूछा क्या पढोगे, मंने कहा कि मैं तो बस देखने आया हूं.  बस देखने आये हो, नथिंगएल्स ? मैं चुप रहा और सोचता रहा. मैं कुछ सोच के ही नहीं गया था. इसलिये सोचने लगा कि यदि पढुंगा तो क्या पढुंगा ? हिम्मत भी बांध रहा था. बगल में बैठा नितिन अपनी तैयारी बताये जा रहा था और सुझाव मांग रहा था कि वो क्या पढ़े ? अपनी नर्वसनेस के बारे में बता रहा था और मैं खुद तय नहीं कर पा रहा था कुछ भी. लोग तैयार हो के आये थे. बहुत से लोगो के हाथ में कागज था. एक सज्जन को मैंने खुद कागज़ उपलब्ध कराया जिसपे वे कुछ लिखने लगे. कार्यक्रम शुरु हुआ दानिश भाई ने नियमों के बारे में इत्तिला दी और फ़िर पूछा कि कोई और इस बोर्ड पे अपना नाम लिखना चाहता है ? बोर्ड पे खुद जा के अपने पसंद के क्रम के आगे अपना नाम लिखना था. एक लड़का उठा, मैं भी उठा और अपना नाम इक्कीसवें नं. पे लिख दिया. क्रम के पहले और दुसरे वीर अपना नाम  लिख के गायब हो गये थे. तीरे से शुरु हुआ..
बकायदा शुरुआतखालिद जावेद (उर्दु उपनाय्सकार) के उप्न्यास अंश के वाचन से हु. इसके बाद सिलसिला चला, एक एक कर के लोग अपनी, कवितायें, कहानियां, नज़्म, गीत, भिनय अंश सुनाते और दिखाते गये. लोग उनका उत्साह बढाते गये.
मैंने जो देखा वह यह कि इनमें से अधिकांश लोग वो हैं जो एकांत के रचनाकार हैं. वो अपना लिखा या तैयार किया दूसरों को दिखा नहीं पाते. इसकी वज़ह संकोच भी होता है और मौका ना मिलना भी. लेकिन कैफ़ेराटिएक ऐसा मंच है जहां माईक दो मिनट के लिये आपका है. इसमें आप कुछ भी पढ़ सकते हैं, दिखा सकते हैं बशर्ते वह आपका हो. बकौल दानिशइसमें आप फ़ैज़, गालीब और दिनकर को नहीं पढ़ सकते. एक तरह से यह अवसहै अपने को आंकने का आया अपने को दूसरों तक पहुंचाने का और उनकी प्रतिक्रिया जानने का. इससे झिझक भी टुटेगी और सुधार भी होगा.
परफ़ार्मर्स में गंभीर लोग भी थे और नये नवेले लोग भी. अनुभवी लोग पूरे आत्मविश्वाके साथ अपने को पेश कर रहे थे तो नये लोगों की घबड़ाहट भी झलक रही थी.  प्रकाश क इंतज़ाम ऐसा था कि परफ़ार्मर दर्शक को ठीक से ना देख पाये इससे उसकी घबड़ाहट थॊडी कम हो सकती थी (जैसा कि मेरे साथ हुआ). भाषा, फ़ार्म और कथ्य के आधार पर भी काफ़ी विविधता थी. किसी ने माओवादी अंदोलन को अपना विषय बनाय किसी ने मां को. किसी ने  हिजड़े के जीवन पे छोटा सा अभिनय किया तो किसी ने गाना गाया. किसी ने बताया कि नये स्कूल में उसका अनुभव कैसा था तो किसी ने यह बताया कि स्कूल के पुराने दिन कैसे थे. एक कुत्ते की मौत से लेकर न्युक्लियर डील तक पे बात हुई. वफ़ा के नज़्म के साथ साथ छोटी छोटी प्रेम कथा भी पढ़ी गई.
इस शाम तो केवल हिन्दी,उर्दु और अंग्रेजी थी लेकिन उम्मीजताई गई कि अगले संस्करणों में न्य भाषा भाषी जुड़ेंगे तो अनुभव और अच्छा होगा. मेरा तो मानना है कि यह अच्छा मौका है उन लोगों के लिये जिन्हें मंच या श्रोता नहीं मिलता. आप हर हिने की आखिरी शुक्रवार को सात बजे हैबिटेट सेंटर में आयें और अपना हुनर दिखायें.
अंत में अपनी बात, आखिर डरते डरते मैंने भी माईक पकड़ ही लिया और तीन लघु प्रेम कथा(micro love story) पढ़ दी. और जो मुझे याद रह गई लाइन वो यह कि
वहां भी होता है शोक जहां नहीं जलती है मोमबत्तियां
वहां भी होता है शुन्य, जहां नहीं पहुंचते हैं मीडिया के कैमरे (नोमान शौक).

रविवार, 24 अप्रैल 2011

कविता - विशाखा प्रकाश

हर दिन एक नयी तलाश ! प्यास अनबूझ प्यास !
ज़हन में दौर रही थी ये बात , और आंख लग गयी .
जब खुली तो अजीब सी रोशिनी दिखी मटमैली सी 
रोशिनी , उम्मीद और इछाओं का भेद लेने वाली 
रोशिनी थी वह.

मन चोर बन गया मेरा , भेदों से भर गया जब 
कोई भेद न पाए ज़हन में कौंध गया तब .
 न जाने कितने भाव ओढ़ लिए मैंने 
फटाफट, मज़ा आने लगा हर करवट में तब 
हर तरफ सन्नाटा था वहां और मैं 
वीरान मैदान सी खड़ी सुन रही 
थी उस सन्नाटे को , 
सन्नाटा राग सुना रहा था ! 
मैं श्रोता बनी खड़ी
थी .

मैदान में हरियाली छाने लगी थी,
सन्नाटे के सुर में सुर मिला लहरा रही थी, 
मन मोह लेती आह्लादित किये देती थी .
कि अचानक फिर प्यास जगी मन में,
भागती भीड़ में समां गयी, 
खुद को अकेला देख कुम्भला गयी.

अरसे बाद फिर रोशिनी आयी वही 
मट- मैली , जादू भरी रोशिनी. 
पर मन चोर न बना इस बार 
नए उमीदों के पंख लगा मंडराने लगा 
आकाश . 
विशाखा प्रकाश चित्रकार हैं और जब चित्र नहीं बनाती कविता लिखती हैं.

शुक्रवार, 15 अप्रैल 2011

तुमने कहा था- स्मृति

तुमने कहा था
करनी ही  होगी सत्य की पड़ताल.
उस सत्य की जो अनिर्मित है ,
उस सत्य की जो अनिश्चित है ,
उस सत्य की जिसमे संसार निहित है ,
या फिर उस सत्य की जिससे जग निर्मित है,
तुमने कहा था करनी ही होगी सत्य की पड़ताल.
मैंने भी माना करनी ही होगी सत्य की पड़ताल 

सत्य जो तुम्हारी लेखनी में है ,
सत्य जो तुम्हारी शक्ति में है ,  
सत्य जो उस अशांति में है जो इस शक्ति का स्रोत है ,
यह वही सत्य है जिसने आसक्ति और अनासक्ति के बीच की सीमाए धुंधली कर  दी है,
हां यह सत्य है की इस सत्य पर  मेरा संदेह है     
मगर संदेह हमेशा से असत्य  है फिर उसका क्या
मगर संदेह हमेशा से असंतोष  है फिर उसका क्या 
संदेह तो छनिक है , शाश्वत है तो बस मेरे और तुम्हारे बीच  का सत्य   
वह सत्य जिसमे किसी के जीवन खोने का भय है ,
वह सत्य जिसमे भरोसे के टूटने का भय है 
मगर भय तो छनिक है ,शाश्वत है तो मेरे तुम्हारे बीच का सत्य ,
तुम्हारी अशांति की निरंतरता में मेरी शांति को स्थिरता मिल जाने का सत्य 

शुक्रवार, 1 अप्रैल 2011

किसका ‘बिहार दिवस’ ?


सामान्य तौर पर अस्त व्यस्त दशा में जाने वाले विद्यार्थियों को मैने जसज संवर कर विद्यालय जाते हुए देखा तो कौतुहल से पूछ बैठा, क्या बात है आज? आज बिहार दिवस है. स्कूल में प्रोग्राम है. मैं वहीं से घर लौटा तैयार होकर स्कुल जाने के लिये. गांव के स्कूल में आज तक मुझे कुछ भी देखने का मौका नहीं मिला. घर पहूंचने से पहले ही कुछ विद्यार्थियों को लौटते देखा. पता चला कि माइक का इन्तेजाम ना हो पाने से प्रोग्राम नहीं होगा. दोपहर में छत से देखा, कतारबद्ध होकर छात्र नारा लगाते हुए चले जा रहे थे. अगले दिन अखबार में कई शहरों में निकली ऐसी और रैलियों की तस्वीरें थी. बिहार की स्थापना के निन्यावे साल पूरा होने पर मनने वाला सरकार प्रायोजित उत्सव शुरू हो चुका था. पर इन रैलियों में विद्यार्थियों के अलावा गांव के किसी आदमी की कोई दिलचस्पी नहीं थी, कोई भी इसकी चर्चा नहीं कर रहा था.
शाम को मैं बगहा आ गया. नौ बजे रात को ट्रेन बगहा पहुंची थी. रिक्शा एस.पी. आफ़िस से गुजरा तो मैने देखा कि दीप जले रहे हैं, इसी तरह बगल में पुलिस लाईन में, आगे बढने पर शस्त्रागार, एस.डी.एम. निवास, प्रखंड, कार्यालय पर भी दीप जल रहे थे. पापा ने बताया की सभी कार्यालयों में निन्यावे दीप जलाये जाने हैं. वैसे शहर अंधेरे में डूबा हुआ था. पुलिस लाइन में बकायदा एक कार्यक्रम हो रहा था लोक संगीत का. दूसरे दिन प्रतिक्रिया मिली कि निहायत ही बेसुरा कार्यक्रम था.
दूसरे दिन, यानी बिहार उत्सव के दूसरे दिन कवि सम्मेलन था रात्री में. बगहा में बहुत दिन बाद कवि सम्मेलन हो रहा था और संयोग से मैं उपस्थित था. जाना तो लाज़िम ही था. म्मेलन स्थपर पहूंच के निराशा हुइ. सम्मेलन का समय हो गया था पर श्रोताओं की संख्या काफ़ी कम थी. वैसे आम तौर पर कवि सम्मेलन में अधिक श्रोता की अपेक्षा नहीं की जाती. बगहा को मैंने हमेशा अपवाद के रूप में देखा है. वहां हमेशा सम्मेलनों में श्रोताओं को जगह के लिये मैनें जूझते देखा है. खैर, कार्यक्र्म विलंब से शुरु हुक्योंकि अतिथि कवि और आयोजक देर से पहूंचे थे. यहां यह बात गौर करने की है कि है कि कवि सम्मेलन की योजना आरक्षी अधीक्षक महोदय की थी जो स्वंय एक कवि हैं. इस अवसर पर उन्होंने बगहा पुलिस जिले के गणमान्य कवियों को सम्मनित भी किया. एस.पी साहब के उत्साह और उनकी काव्य प्रतिभा की लगभग सभी कवियों ने प्रशंसा की (अहोभाग्य और बलिहारि जाउं की तर्ज़ पर). मैंने सोचा की आजकल पुलिस अधिकारी इतनी अधिक मात्रा में साहित्यकार के तौर पर क्युं सामने आ रहें हैं? खैर, जैसे तैसे कवि सम्मेलन शुरु हुआ. बिहार दिवस से जुडी कविताओं की भरमार रही. एक-एक कर के कवि कविता पढने लगे और श्रोता स्थल छोड़ने लगे. मेरे जैसे कुछ दुर्धर्ष श्रोता अंत तक जमे रहे. बगहा के कवि सम्मेलनों में मैं इसे याद नहीं ही करना चाहुंगा. मैंने सोचा अगर बगहा में कवि सम्मेलन की बेहतरीन परंपरा मर चुकी है तो उसे इस रूप में जिलाना मुर्दे को कब्र से बाहर निकालना है. जो गंध तो फ़ैलायेगा ही. कवि गण यह अवसर पाकर प्रसन्न थे कि उन्हें मंच मिल रहा है. तीन चार को छोड़ कर अधिकांश ने निराश किया. उम्मीद के विपरीत एस.पी. साहब ने कुछ अच्छे शेर कहे. वयोवृद्ध कवि ने वसंत का गीत गाया लेकिन श्रोताओं को लगा कि बुढारी में जवानी के गीत गाना उचित नहीं. कुछ कवि जमे क्योंकि उनके पास मंच पर जमने वाली कवितायें थी, श्रोताओं के अनुकूल.
तीसरे दिन उसीं मंच पर शास्त्रीय नृत्य और संगीत का कार्यक्रम था. मैंने इस के ऊपर भोजपुरी फ़िल्म देखने को वरीयता दी. लौटते समय कार्यक्रम स्थपर गया तो पाया कि कुल पच्चीस लोगों के बीच एक गायक हार्मोनियम पर गा रहें और तबले पर एक वाद्क उनका साथ दे रहें है. खबारों से सूचना मिली की कुछ लोक नृत्य के भी कार्यक्रम थे. खैर बगहा मेंअखबारों के अलावा किसी के लिये बिहार दिवस चर्चा का बिंदु नहीं था. बिहार दिवस मनाने के लिये उपर से फ़ंड और आदेश भी पारित हुआ थ. लेकिन स्थानीय प्रशासन ने सारा खर्च निपटाने की खुद जिम्मेवारी ले ली थी और बिना लोगों को जोड़े कार्यक्रम संपन्न करा लिया.
बगहा में रेलवे गुमटी के पास एक लोक गायक बैठता है. मैनें उससे पूछा कि बिहार दिवस के इस आयोजन में आपको किसी ने नहीं याद किया. उसने शांत स्वर में कहा कि हम लोगों को कौन पूछता है. बिहार दिवस एक मौका हो सकता था इन कलाकारों को मंच देने का. क्योंकि ये लोग कुछ ऐसी कलाओं को जीवित रखे हुएं हैं जो इनके  खतम होने के साथ खतम हो जायेगा. इस अवसर पर प्रशासन ने यह गंवा दिया. सरकारी आदेश के यांत्रिक पालन का यहीं नतीज़ा होता है. नितीश कुमार को यह कोशिश करनी चाहिये कि आगामी बिहार दिवस बिहार की जनता मनाये. प्रशासन की भागीदारी जिसमें कम से कम हो. नहीं तो आयोजन सरकारी कवायद बन के रह जायेगी.
 अंत में, शायर खुर्शीद अनवर का यह शेर अर्ज़ है;
फ़सुर्दगी के वो लम्हात जो कि बीत गये
ना उनकी याद दिलाओ बिहार दिवस है.