शुक्रवार, 7 मई 2010

कुछ प्रश्न ?


निरुपमा की मृत्यु या उसकी ह्त्या? यह विवाद उतना बड़ा नहीं है जितना की यह सत्य की निरुपमा अब इस दुनिया में नहीं है. प्रश्न कई सारे है जिन्हें वह अपने पीछे छोड़ गयी है.


सबसे अहम् की यह आत्महत्या है या ह्त्या?

मगर उससे भी अहम् प्रश्न यह है की क्या ज्ञान का अर्थ केवल सफलता प्राप्त करना है या फिर उसे आत्मसात करना. अगर सफलता माता पिता को संतुष्ट करती है तो उसी ज्ञान को आत्मसात करके अगर निरुपमा या उसके जैसे छोटे शहरों से आनेवाली कई निरुपमाये अपने निर्णय और सच के साथ अडिग रहने के फैसले से समाज इतना असंतुष्ट क्यों है?

निरुपमा के पिता ने पत्र में यह उल्लेखित किया कि सनातन धर्म संविधान से ज्यादा बड़ा है, मगर सवाल यह है की क्या हिन्दू धर्म किसी भी तरह से विचार की ह्त्या को प्रोत्साहित करता है? यहां तो प्रश्न न केवल विचार की ह्त्या का रहा बल्कि व्यक्ति की ह्त्या पर आकर ख़तम हुआ. और मुझे नहीं लगता की विश्वा का कोई भी धर्म इसे न्यायोचित ठहरा सकता है और सनातन धर्म तो कतई नहीं क्योंकि यहाँ विचार पर खुले अम्वाद की परम्परा रही है.

अत: मेरी अपील छोटे शहरों से आने वाले उन सभी निरुपमाओ से है जो बड़े शहर में आकर अपने विवेक और ज्ञान के बल पर जगह तो बनाती है मगर परिवार के दबाव में आकार अपने जीवन के सबसे बड़े फैसले में अपनी भूमिका को अनुपस्थित पाती है. समाज परिवर्तन के उस संक्रमणकाल में है जहा पर ऐसी सभी लड़कियों को अपने निर्णय के साथ डटकर खडा होना होगा. शर्त केवल इतनी है की निर्णय आवेग में ना लेकर बुद्धि के कसौटी पे कसा गया गया हो. ऐसा होना जरुरी है क्योंकि अब कोई और निरुपमा समाज, जाती और प्रतिष्ठा के कोरे दंभ की बलि ना चढ़े.

एक जरुरी बात कि बcपन से बड़े होने तक अभिभावक, धर्म, शिक्षा इत्यादि हमें प्रेम के लिए प्रेरित किया करते है पर क्या यह प्रेम बंधन में किया जाएगा उनके बताये अनुसार...