सोमवार, 12 दिसंबर 2011

देव कहां हो- दिलीप कुमार


मैं देव आनंद से बस एक साल बड़ा था. हम तीनों ने लगभग एक ही समय चालीस के मध्य में अपने कैरियर का आगाज़ किया था. मुझे अभी भी देव की और मेरी मधुर यादें है जब हम लोकल ट्रेन में काम की तलाश में स्टुडियो का चक्कर लगाते थे. थोड़े समय में ही हमने घनिष्ठ संबध स्थापित कर लिया और देव पारिवारिक मित्र हो गये खासकर मेरे छोटे भाई नासिर खान के.
१९४० के उत्तरार्ध में हम फ़िल्मों में अपना पैर जमाने लायक हो गये. राज और मैंने “शहीद”, “अंदाज” और “बरसात” से स्टारडम पा लिया. देव “ज़िद्दी” और “बाज़ी” से परवान चढ़ा. हमारे बीच शुरुआत से ही उदार पेशेवर संबंध था और परस्पर एक अनकही नैतिकता भी. चुंकि सब कुछ अल्फ़ाज़ में नही कहा जा सकता, हम एक दूसरे की इज्जत बड़ी खामोशी से करते थे.  हमारी अक्सर मुलाकात होती जिसमें हम एक दूसरे के काम की चर्चा और विश्लेषण करते. कुछ मज़ाकिया पल भी बिताते जब राज मेरी और देव की हुबहू नकल उतारते थे. वे क्या खुबसुरत लम्हें थे जबकि हम प्रतिस्पर्धी थे प्रतिद्वंद्वी नहीं. देव की खुबी यह थी कि वह सह अभिनेताओं और टेकनिशियनों के साथ बहुत सहयोगी होता था. उसके पास एक कातिल अंदाज और मुस्कान थी जो आज तक किसी दूसरे अभिनेता को नहीं है. जब भी उसे सही स्क्रिप्ट और कल्पनाशील निर्देशक मिला उसने कमाल का हुनर दिखाया  जैसे कि “काला पानी”, “असली नकली” और “गाईड”.  रूमानी दृश्य करने में वह हम सभी में  बेहतर था.
मैं खुशनसीब हूं कि मैंने देव के साथ पर्दे पर समय बिताया जेमिनी की “इंसानियत” में १९५५ में. जिसे एस.एस. वासन ने निर्देशित किया था, यह एक कास्ट्युम ड्रामा था. देव इतना उदार थे कि मेरे साथ काम करने के लिये उसने अपने प्रोडक्शन की तारीखें रद्द कर दीं. मैंने खुद देखा है कि कैसे वह जुनियर आर्टिस्ट की मदद करने के लिये टेक के बाद टेक देता था ताकि वह बेहतर कर सकें. उसने किसी को कभी भी उपेक्षित नहीं किया.
हमने तय किया था कि हम एक दुसरे के पारिवारिक उत्सवों में उपस्थित होंगे. १९५० के मध्य में हुई उसकी बहन की शादी और १९८५ में हुई उसकी पुत्री देविना की शादी में मैं उपस्थित था. १९६६ में शायरा बानो के साथ हो रहे मेरे विवाह समारोह में देव अपनी पत्नी मोना के साथ मौजुद था और हमारे पाली हिल के निवास पर कुछ अन्य मौकों पर भी. हम परिवार के सदस्य की तरह मिलते थे और संबंध के बीच कभी अपने पेशे को नहीं आने दिया.
शायद सबसे महत्वपूर्ण मुलाकात वह थी जब मैं राज और देव  तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू से मिले थे. उनके निधन से पहले . हमनें बहुत सी मुद्दों पर चर्चा की.
जैसे मैं उसे देव कहता था वह मुझे लाले कहता. अचानक लंदन में हुए उसके दुखद निधन के बारे में सुनकर बहुत हैरान और शोकाकुल हूं.  मेरा ८९ वां जन्मदिन बेहद दुखद होगा क्योंकि मैंने प्रिय देव को खो दिया  है जो निश्चित आता और कहता कि ‘लाले तु हज़ार साल जियेगा’/ देव कहां चले गौए मुझे छोड़कर’.


द हिंदु में रविवार के मैगज़ीन में छपे “देव  कहां हो”  का अनुवाद…