मंगलवार, 12 जुलाई 2011

कविता

१.

चादर जो सर पे होती थी खीच ली किसी ने,
धुप आज कल उस रोशनदान से सीधे चेहरे पे आती है
कुछ तो नहीं है नया अब सुबह के होने में
फिर क्यों ये कुछ नए की आस जगाती है
फिर सुबह का आना,
नाउम्मीदी का आँखों के रास्ते मन में उतर आना,
जैसे शून्य का शून्य को गले लगाना (स्मृति)

२.
 नज़र चुराने लगे हैं अंधेरे भी
उजालों की क्या कहें
दोस्त कुछ थे, अब…
और दुश्मन ?
बनाये नहीं कभी
नींद भी कम्बख्त आती नहीं
आंख बंद करते ही दिख जाती है
तस्वीर…(अभिषेक)