सोमवार, 30 नवंबर 2009

धर्मेन्द्र के हिन्दी सिनेमा में पचास साल

रविवार के जनसत्ता से एक खास जानकारी मिली कि फ़िल्म अभिनेता धर्मेन्द्र फ़िल्म जगत में पचास साल पूरे करने जा रहे हैं। खबर पढते ही धर्मेन्द्र के पूरे कैरीयर पर नजर पड गई और एक अफ़सोस यह उभरा कि धर्मेन्द्र एक ऐसे अभिनेता रहे जिनकी अभिनय प्रतिभा का ठीक ठीक मुल्यांकन नहीं हो पाया। इस बात को ऐसे समझा जा सकता है कि अपने कैरीयर में धर्मेन्द्र को एक भी फ़िल्मफ़ेअर अवार्ड नहीं मिला। मिला तो वो भी लाइफ़ टाइम अचीवमेंट। इस अवार्ड को लेते हुए धर्मेन्द्र ने कहा “ मैं हर साल फ़िल्मफ़ेअर अवार्ड से पहले सूट सिलवाता था कि इस बार शायद यह अवार्ड मिल जाये। लेकिन कभी नहीं मिला”।
धर्मेन्द्र फ़िल्म जगत में संभवतः टैलेंट हंट के जरिये पहूंचने वाले शुरुआती कलाकार रहे होंगे। फ़िल्मफ़ेअर द्वारा आयोजित इस प्रतियोगिता को जीतने के कारण उन्हें बिमल राय जैसे निर्देशक ने अपनी फ़िल्म बंदिनी में काम करने का मौका दिया है। उल्लेखनीय है कि बंदिनी हिन्दी के बेहतरीन फ़िल्मों में से एक है। इस फ़िल्म में अशोक कुमार और नुतन के बीच में धर्मेन्द्र ने अपनी मजबुत उपस्थिती दर्ज कराई। धर्मेन्द्र ने जब फ़िल्म में अपनी पारी शुरु की तब वो दिलीप, राज और देव का युग था, इसके बाद राजेश खन्ना और अमिताभ का युग आया। धर्मेन्द्र इन सबके साथ मजबुती से जमे रहे और अपनी पहचान को पुख्ता करते रहे।
फ़ूल और पत्थर(1966) की सफ़लता से धर्मेन्द्र के साथ जो हीमैन की छवि जो चिपकी वो अंत तक चिपकी रही। हमेशा उन्हें कुत्ते मैं तेरा खून पी जाउंगा के साथ याद किया जाता रहा। लेकिन हम जब उनके द्वारा निभाई गयी भूमिका को देखते हैं तो उनके रेंज का पता चलता है। शोले का वीरु, चुपके- चुपके का प्रोफ़ेसर, सत्यकाम का सत्यप्रिय, नौकर बीवी का में दब्बु पति, सुरत और सीरत का नेत्र हीन प्रेमी इत्यादि उनकी अभिनय की विविधता का परिचय देता है।
वस्तुतः देखा जाये तो धर्मेन्द्र ने हमेशा दो तरह की फ़िल्में कि एक उस प्रकार कि जिसमें उनकी ही मैन की छवि सुदृढ होती रही जो बाक्स आफ़िस की मांग थी। इस श्रेणी में शोले, चाचा-भतिजा, धर्म वीर, कर्तव्य, यादों की बारात, तहलका, इत्यादि फ़िल्में की। दूसरी तरफ़ उन्होंने विसी फ़िल्में की जिसमे उनका अभिनेता तुष्ट होता था। इस श्रेणी में बंदिनी, चुपके चुपके, सत्यकाम इत्यादि फ़िल्में हैं। वैसे फ़ार्मुला फ़िल्मों में भी उनका अभिनय दोयम नहीं है पर बाद में जाकर वे अपने को दोहराने लगे। अस्सी और नब्बे दशक में उन्होंने ऐसी ना जाने कितनी फ़िल्में की जो भुल जाने के योग्य है। वैसे यह युग हिन्दी सिनेमा का सबसे खराब दौर था। इस दौर में धर्मेंद्र नायक के रोल के लायक नहीं रह गये थे पर तब भी उनको केंद्र में रख के फ़िल्में बनी। उस दौर मे बुजुर्ग अभिनेता तुरंत चरित्र भुमिका में आने लगते थे। यह धर्मेंद्र का जलवा था।
हिन्दी सिनेमा में धर्मेन्द्र को जिस भुमिका के लिये सम्मान मिलना चाहिये वो है सत्यकाम। अभिनय के लिहाज से यह फ़िल्म अद्भुत और अविस्मरणीय है। एक सत्यवादी, निर्भीक उर्जावान इंजीनियर का किरदार धर्मेन्द्र ने इतनी शिद्दत से निभाया है कि फ़िल्म देखने के बाद अंतर्मन भीग जाता है। अशोक कुमार और संजीव कुमार जैसे अभिनेताओं के मध्य वे इस फ़िल्म में सबसे ऊंचे खडे होते हैं। घुटन और अंतर्द्वंद्व का अभिनय अभिभुत कर देता है। शोले में दोस्त के लिये जान लगा देने वाले वीरु और चुपके चुपके के प्रोफ़ेसर धर्मेन्द्र की अन्य यादगार भुमिका है। दोनों ही भुमिकाओं से उनके हास्य उत्पन करने की क्षमता का परिचय मिलता है।
धर्मेन्द्र ने हिन्दी सिनेमा को निर्माता के तौर पर भी योगदान दिया है। बेताब, घायल और सोचा ना था जैसी उल्लेखनीय फ़िल्में उन्होंने निर्मित की है। इसी सोचा ना था से इम्तियाज अली समर्थ निदेशक के तौर पर पहचाने जाने लगे हैं। अभिनय के उनकी परम्परा को उनका परिवार आगे बढा रहा है। इसमें सन्नी देयोल और अभय देयोल जैसे समर्थ अभिनेता हिन्दी सिनेमा को मिलें हैं। गौर करने की बात यह रही कि फ़िल्मफ़ेअर ने उनको अभिनेता बनने का मौका दिया और इसके बाद सीधे लाइफ़ टाइम अचीवमेंट अवार्ड दे दिया । जाहिर है कि उनकी उपेक्षा हुई। इस उपेक्षा के बाद भी वे अपने समकालीन सुपरस्टारों के चकाचौंध मे गुम नहीं हुए। उनका अपना एक विशिष्ट पहचान और दर्शक वर्ग बरकरार रहा। वरना आसान नहीं होता फ़िल्म जगत में पचास साल पूरा कर लेना वो भी चमकते हुए। हमने कई सितारों का हश्र देखा है। वक्त आ गया है कि हम उन अभिनेताओं का मुल्यांकन भी करना शुरु करे जो सुपरस्टार नहीं रहे पर जिनका विशेष प्रभाव है। निश्चय ही धर्मेन्द्र का नाम उसमें अग्रिम पंक्ति में होगा।

सोमवार, 16 नवंबर 2009

कोरे रह गये कागज…



कोरे रह गये कागज…
यह इतवार हर इतवार की तरह था। आलस भरी सुबह से आगाज करते हुए। उठने के बाद पैर स्वतः अखबार की तलाश में बरामदे में आ गया। अखबार खोलते ही एक उदासी तारी हो गयी, बीच का पन्ना खोला ‘कागद कारे’ नहीं था। अब हर इतवार बिना कारे कागद को पढे गुजारना होगा। यानि अब वो उत्सुकता भी नहीं रहेगी कि  इस बार कागद कारे का विषय क्या होगा? जैसा कि मैं और काका हर शनिवार को संभावित विषय के बारे में चर्चा कर लेते थे। आज अपन को  पुरी शिद्दत से पता चला कि प्रभाष जोशी के ना रहने के क्या मायने हैं। इस बीच तहलका  का भी पाठक हो गया था जिसमें उनका नियमित कालम छपता था। इस कालम की विषय की विविधता का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है इसमें उन्होंने चुनाव, आस्कर, आईपीएल इत्यादि पर लिखा था।
मैं संभवतः जनसत्ता  के सबसे कम उम्र के पाठकों में से होऊंगा। इतनी कम दिन के पाठन के बाद ही उनके लेखन से मेरा जुडाव ऐसा हो गया था तो उन पाठकों को उनकी कमी कितनी खलेगी ये बताने कि जरुरत नहीं है।
मैं उन खुश नसीब लोगो में से हुं जिन्होंने प्रभाष जोशी को देखा सुना है। दिल्ली विश्वविद्यालय के गांधी भवन में हिन्द स्वराज पर हुए एक कार्यक्रम में  बोलने आये थे। उस दिन मुझे पता चला कि जैसा वो लिखते हैं वैसा बोलते भी हैं धारदार। उस कार्यक्रम के अंत के बाद मेरी तीव्र इच्छा उनसे मिलने की  हो गयी थी। उस झक सफ़ेद धोती कुर्ते में लिपटे शख्स के वयक्तित्व में कुछ ऐसा ही जादु था। मैं उन के पास पहूंचा तो, मगर कुछ बात ना कर सका। हां वो अपना जुता खोज रहे थे तो मैंने उन्हें जुता ला के दिया था। सच पूछिये यह बिलकुल अपुर्व अनुभव था। इसी बहाने उनके चरण छुने का मौका जो मिला था।   आजकल के बुद्धीजीवियों को यह लिजलिजी श्रद्धा का पर्याय लगता हो पर जोशी जी के लिये यह संस्कार से जुडा मसला था।
मैं जोशी जी से मिलना चाहता था उनके साक्षात्कार के लिये। मैं तैयारी भी कर रहा था। परंतु…
इन दिनों कागद कारे के कई पन्नों में वो जिस  तरह मृत्यु का जिक्र कर रहे थे उससे तो लगता है कि उन्हें अपनी मृत्यु का आभास हो गया था। तभी तो अनथक यात्रा कर रहे थे। शायद जल्दी जल्दी काम निबटा लेना चाहते थे। जब सभी इस बात का   इंतजार कर रहे थे कि जोशी जी सचिन के सत्रह हजार रन और क्रिकेट जीवन के बीस साल पर क्या लिखेंगे वो चल दिये। चुनावों में हुए पत्रकारिता के काले कारनामे के खिलाफ़ अपने मुहीम के पुरा होने का भी उन्होंने इंतज़ार नहीं किया।
अब शायद ही कोई ऐसा होगा जो राजनीति, खेल ,साहित्य, मीडिया, संगीत इत्यादि सबकी एक साथ  खबर लेगा और देगा?
क्या जनसत्ता उनके प्रतिमानों पर टिकी रहेगी?
क्या पत्रकारिता जगत में फ़ैले उनके अनुयायी पत्रकारिता जगत को क्षयग्रस्त होने से रोकने के लिये कुछ करेंगे?
 बहुत सारे प्रश्न हैं जो उनके जाने के बाद अनुत्तरित हैं।
दुनिया है चलते रहती है। हर मनुष्य इस संसार में आके अपना योगदान देके चला जाता है। कुछ गुमनाम रह जातें हैं तो कुछ अनुकरणीय हो जाते हैं। प्रभाष जोशी ऐसी ही शख्सीयत थे। ठीक है अपन तो बिना कागद कारे और शुन्यकाल के बिना जी लेंगे पर ये सच है कि  उनकी   याद बहुत आएगी