मंगलवार, 25 मई 2010

बेगम का तकिया

 
रा.ना.वि. रंगमंडल का ग्रीष्मकालीन नाट्य समारोह शुरु हो चुका है। रंजीत कपूर निर्देशित ‘बेगम का तकिया’ के साथ। इससे पहले भी रंजीत कपूर रंगमंडल के साथ ही 1978 में इस नाटक को कर चुके हैं सुरेखा सीकरी, रघुवीर यादव, राजेश विवेक इत्यादि कलाकारों के साथ। उस समय भी यह नाटक अत्यंत लोकप्रिय हुआ था और काफ़ी सराहना भी इसे मिली थी। रंजीत कपूर के रंगकर्म के दिशा निर्धारण में भी इस नाटक की मुख्य भूमिका रही है। समय चक्र घुमा है इसी नाटक से उन्होंने रंगमंच में वापसी की है और इतिहास को दुहराया है[1]। (और यह दुहराव ना त्रासदी है ना व्यंग्य)
‘बेगम का तकिया’ पंडित आनंद कुमार के उपन्यास पर आधारित है, नाट्यालेख स्वंय निर्देशक ने तैयार किया है। कहानी ईमानदारी के भोलेपन और बेईमानी के चालाकीपन की है। पीरा और मीरा दो भाइ मजदूरी करते हैं, फ़कीर दरियाशाह पीरा को उनके लिये तकिया बनाने का काम सौंपते हैं। पीरा स्वंय और अपने तबके के लोगों को आधी मजदूरी पर काम करने के लिये तैयार कर लेता है। फ़ाका करने से बेहतर स्थिति है यह। वहीं काम करते करते
मीरा को एक गडा हुआ खजाना मिलता है  और वह उसे चुपचाप लेकर शहर  चला जाता है इधर पीरा उसके लिये परेशान है। एक दिन वह सौदागर अमीर शाह बन कर  अपनी बेगम उनके चचा और साले के साथ लौटता है। पीरा की शादी होती है वह खर्च करने के लिये अपने भाइ से रुपये उधार लेता है। बीवी के आते ही दोनों औरतों में झगडा होता है। मीरा की बीवी अपने पैसे वापस मागती हैं, पीरा की बीवी पीरा को ताने दे कर उसे परदेश जाने को विवश कर देती है। पीरा तकिया बनाने का जिम्मा सर्फ़ु को सौंप कर चला जाता है। परदेश से वापस लौटने पर वह पाता है कि तकिये की जगह पर सर्फ़ु रहने लगा है और तकिये का काम बंद पडा है, इधर उसकी बीवी को  बच्चा भी हुआ है। खुश पीरा दरिया शाह की तकिया बनवाना फ़िर शुरु करता है लेकिन मीरा की बीवी वहीं पर अपना महल बनवाना चाहती है। विवाद में पीरा के बच्चे की जान चली जाती है और वह दरियाशाह को ढूंढने निकल पडता है। उसे पता चलता है कि दरियाशाह उसी के घर में  कारीगर का वेश बदल कर रह रहे थे और उन्होंने  ही मीरा का महल तैयार किया है। अंत में गांव वाले मीरा की बेगम और उसके रिश्तेदार को भगा देते हैं और दरियाशाह उस महल को ‘बेगम का तकिया’ नाम दे देते हैं और पीरा को उसके सारे दरवाजे तोड डालने के लिये कह देते हैं। ताकि हर कोई उसमें आ सके और हर ओर की हवा ले सके।
मंचन के लिये विद्यालय परिसर में ही मुक्ताकाशी रंगमंच तैयार किया गया है। महल और झोपडी दो कोनों पर स्थित हैं जो मीरा और पीरा के जीवन के वैषम्य को दर्शाते हैं। बीच में पेड के नीचे दरियाशाह का आसन है जहां पर तकिया बनाया जाना है। उसके आगे  चौपाल जैसा बनाया गया है जिस पर गांव वालों की पंचायत जमती है और गाना बजाना होता है। मंच सज्जा काफ़ी सुनियोजित है कुछ भी फ़ालतु नहीं है। गीत संगीत प्रस्तुति को और दमदार बनाते हैं। एक तरफ़ वे तनाव के माहौल से राहत देते हैं तो दूसरी तरफ़ नाटक के दर्शन को भी व्यक्त कर देते हैं, बाहर से सब मीठ्ठे बोले अंदर से बेईमाना देखा
प्रस्तुति भावपुर्ण है और दशक को जोड लेता है। कुछ दृश्य बडे ही उम्दा बन पडे हैं जैसे कि पीरा और मीरा की बीवियों के झगडे का और बेटे के लिये विलाप करते पीरा और उसकी पत्नी का। अभिनेताओं का अभिनय भी अच्छा है। मीरा ( पूंज प्रकाश)  की चालाकी और भाई के प्रति प्रेम भाव , पीरा  की निर्दोष सज्जनता, बुंदु चचा (द्वारका दाहिया) की बुजुर्गीयत, अल्लाबन्दे ( अनुप त्रिवेदी) का काइंयापन, मीरा की बीवी (साज़िदा) की हेठी और पीरा की बीवी( राखी कुमारी) की कर्मठता को अभिनेताओं ने सजीव कर दिया है। मीरा की बीवी रौनक के किरदार में साज़िदा ने अपने तलफ़्फ़ुज़ और देह भाषा से प्राण भर दिया है। नाटक का खल चरित्र होने के बाद भी दर्शक की वह प्रिय हो जाती है।
दरियाशाह (नवीन सिंह ठाकुर) का ही अभिनय प्रशंसनीय है जो कतरा शाह से जीवन के रहस्यों और प्रश्नों पर विचार करते रहते हैं। इन पात्रों के नाम भी गौर करने लायज हैं – दरिया और कतरा। नाटक का दर्शन है कि अगर आदमी स्वंय इमानदार रहे और दूसरे से इमानदारी रखे तो सब कुछ ठीक हो जाये। पर ऐसा होना संभव कहां हैं। उत्तर आधुनिक अवसरवादिता के दौर में पीरा की निर्दोष सज्जनता बेवकुफ़ी का पर्याय है।
प्रस्तुति में रंजीत कपूर के निर्देशन की विशेषतायें मौजूद हैं मनोरंजन भी  और दर्शन भी।
सभी प्रमुख काव्य शास्त्रियों ने भी नाटक का उद्देश्य  आनंद और शिक्षा माना है। शिक्षा वैसी जो आनंद में लिपटकर आये। कोरा उपदेश कौन सुनना चाहता है।
प्रस्तुति का कमजोर पक्ष उसका अंत है। नाटक का  क्लाइमेक्स काफ़ी जल्दीबाजी में हो जाता है। खुले रंगमंच के नीचे ऐसा नाटक देखना जिसकी  प्रस्तुति में खुलापन और सरंचना में गहराई हो , काफ़ी आनंददायक है।


[1] ब्रोश्योर देखें

शुक्रवार, 21 मई 2010

सोहर


मैंने अपने ब्लॉग में बताया था की मै अपनी मम्मी की डायरी ले के आया हूँ उसमे मिथिलांचल में होने वाले हर आयोजन सम्बन्धी गीत है यानी संस्कार गीत .उसी कड़ी में इस बार मै सोहर पोस्ट कर रहा हूँ. सोहर वैसे गीत होते है जो संतान जनम के समय या उसके बाद गाये जाते हैं. तो पेश है श्रीमती रीता मिश्र की डायरी के कुछ भाग. ये कड़ी आगे भी जारी रहेगी.
   1.


प्रथम मास ज बसायल चरण ऋतु आयल रे ललना रे कर्म लीखल यदुराय कि होरीला के लक्षण रे

दोसर जब आयल चरण ऋतु आयल रे ललना रे दाहिन पैर पछुआय कि होरिला के लक्षण रे

तेसर मास जब आयल चरण ऋतु आयल रे ललना रे पान क बीडा नै सोहाय चित्त फ़रियाअल रे

चारीम मास जब आयल चरण ऋतु आयल रे ललना रे आंखी धंसल मूंह पियर चोली बन्द कसमस रे

छठम मास जब आयल चरण ऋतु आयल रे ललना रे छोरु पिय लाली पलंगीया सुतब हम असगर रे

सातम मास जब आयल चरण ऋतु आयल रे ललना रे लिय सास भनसा रसोईया जायब हम नैहर रे

आठम मास जब आयल चित्त फ़रियाअल रे ललना रे सारी सासरी उपाय कौन विधि बाचब रे न

नवम मास जब आयल चरण ऋतु आयल रे रानी दर्द व्याकुल देह सब तलफ़ल रे

दशम मास जब आयल चरण ऋतु अयल रे ललना रे सुन्दर होरीला जनम लेल महल उठे सोहर रे

2.

हंसि हंसि देवकी नहाओल हंसि गृह आवोल रे ललना रे करु वसुदेव स सलाह कि काज सफ़ल हायब रे

पहिल सपन देवकी देखल पहिल पहर राती रे ललना रे छोटी मोटी अमवा के गाछ फ़रे फ़ुल लुबधल रे

दोसर पहर राती बीतल दोसर पहर राती रे ललना रे सुन्दर बांस बीट फ़ुटि क पसरल रे।

चारीम पहर राती बीतल सुन्दर सपना देखु रे सुन्दर बालक अवतार गोदी खेलावन रे

3.

एकहीं रोपल गाछ दोसर जामुन गाछ रे ललना सगर बगिया लाग्य सुन एक चानन बिनु रे

नहिरा में एक लाख भैया आओर लागु रे ललना सगरे नैहरवा लागे सुन एक हीं अम्मा बिनु रे

ससुरा में एक लाख ससुर आओर भैंसुर रे ललना सगर ससुरा लागे सुन एकहीं पिया बिनु रे

घरवा में पलंगा ओछावल तोसक ओछाओल रे ललना पलंगिया लागे सुन एकहीं होरिला बिनु रे।

4.

कौने बन फ़ुलय अहेली कौने बन बेली फ़ूल रे ललना कौने बन कुसुम फ़ुलायत चुनरी रंगाओत रे।

बाबा बन फ़ूलय अएली फ़ूल भईया बन बेली फ़ूल रे ललना पिया बन फ़ूलय कुसुम चुनरी रंगाओत रे ।

पहिरि ओढीय सुन्दरि ठाढ भेली देहरि धेने ठाढ भेली रे ललना घुमईत फ़िरईत आयल पिया पलंग पर लय जायब हे।

सासु हम दुःख दारुण नन्दी झगडाइन हे पिया हम जायब घर मुनहर पलंग नहीं जायब रे।

5.

केकराही अंगना चानन गाछ चानन मंजरी गेल रे ललना रे ककर धनि गर्भ स सुनि मन हर्षित रे।

बाबा केरा अंगना चानन गाछ, चानन मंजरी गेल रे भईया के धनि गर्भ स सुनि मन हर्षित भेल रे।

घर के पछुअरवा में जोलहा कि तोंही मोरा हीत बसु रे ललना रे बिनी दहिन सोना के पलंगवा होरीला सुतायब र।

ओही कात सुत सिर साहब और सिर साहब रे ललना रे अई कात सुतु सुकुमारी बीच में होरिला सुतु र।

हटि हटि सुतु सिर साहब और सिर साहब रे ललना बड रे जतन केरा होरिला घाम से भीजल रे ।

सासु के धर्म स होरिला अपना कर्म स ललना रे आहां के चरण स होरिला घाम से भीजल र।

6.

देवकी चलली नहाय की मन पछताइक रे ललना रे मरब जहर विष खाई घर नहिं घुरब रे।

जनी तोहे देवकी डेराय मन पछ्ताइक रे ललना रे जनम लेत यदुकुल बालक वंशक कुन्दन रे।

पहिल सपन देवकी देखल पहिल पहर राती रे ललना रे छोटे छोटे अमुआ गाछ फ़ल फ़ूल लुबधल रे।

दोसर पहर राती बीतल दोसर सपन देखु रे ललना रे सुन्दर बांस के बीट देहरी बीच रोपल रे ।

तेसर सपन देखल तेसर पहर राती रे ललना रे सुन्दर दहि के छाछ सिरमा बीच राखल रे।

चारीम पहर राती बीतल चारीम सपन देखल रे ललना रे सुन्दर कमलक फ़ुल खोईंछा भर राखल रे।

जे इहो सोहर गावोल गावी सुनावोल रे ललना रे तीनकई वास बैकुण्ठ पूत्र फ़ल पाओल रे।

7.

भऊजी छली गर्भ स नन्दी अरजी करु रे ललना अपना घर होयत बालक कंगन हम इनाम लेब रे।

एक पैर देलनि एहरि पर दोसर देहरि पर रे ललना रे तेसरे में होरीला जनम लेब कंगन हम लेहब रे ।

मचीया बैसल तोहे अम्मा कि तोही मोरा हीत बाजु हे अम्मा भऊजी बोलनि कुबोलिया कंगन हम लेहब रे।

सोइरी बैसल आहां पुतहु बतहु दुलरइतीन हे पुतहु दय दिय हाथ के कंगनमा नन्दी थीक पाहुन रे ।

मचीया बैसल आहां सासु अहुं मोरा हीत थीक हे सासु कहां दिय कंगनमा कंगन नहिं मिलत रे।

पलंगा सुतल आहां भईया कि अहुं सिर साहब हे भऊजी बजलिन कुबोलिन कंगन मिलत हे।

दुधवा पियविते आहां सुहबे अहीं सुहालीन रे ललना दय दिय हाथ के कंगनामा बहिन मोरा पाहुन हे।

पलंगा सुतल आहां पिया अहुं सिर साहब हे पिया कहां स दय दिय कंगनमा कंगन नहिं मिलत रे चुपु रहु बहीन सहोदर बहिन हम करब हम दोसर बियाह, कंगन आहां के देहब रे।

कोंचा स कंगना निकाली भुईंया में फ़ेंकि देली रे नन्दी तुहु नन्दी सात भतरी कंगन जरि लागल हे।

8.

पलंगा सुतल आहां पिया अहीं मोर पिया थीक हे पिया मन होईया चुनरि रंगवितऊ चुनरि पहिरतहु रे।

बाप तोहर सुप बिनथी माय सुप बेचथि हे छनि चार भईया खजुर बझाय तकर बहिन नटिन हे ।

एतवा बयन जब सुनलनि सुनि उठी भागलि रे ललना ढकी लेले वज्र केवार कि मुंह नहिं देखायब रे।

घर पछुअरा में सोनरा कि तोहीं मोरा हित बसु रे ललना गढि दहिन सोना के कंगनमा धनि पर बोछव रे।

कांख दाबि लेलनि कंगनमा पैर में खरमुआ रे ललना चलि भेला सुहबे धनि पर बोछव रे।

खोलु खोलु सुहब सुहागिन अहीं दुलरईतिन हे सुहबे खोलि दिय बज्र केवार कंगन बड सुन्दर रे।

कंगन पहिरथु माय कि आओर बहिन पहिरथ हे ललना हम नहिं पहिरब कंगनमा कंगन नहिं सोहभ रे।

बाप हमर सुप बिनथी माय सुप बेचथि रे ललना भईया मोर खजुर बझाय बहिन थीक नटिन रे।

बाप आहां के राजा दशरथ माय कौशल्या रानी रे ललन चारु भाई पढल पंडित हुनक बहिन थीक हे।

9.

सोना के सिंहासन बैसल राम सीता स बिचार पुछु रे ललना हमरो घर शुभ कल्याण कहां कहां नौतब रे।

पहिने नौतब आनि लोक रे ललना तखनि नौतब सार लोक सार सब रुसब रे।

एतवा वचन जब सुनलि सीता कनबि लगलिन रे ललना भईया मोर नहिं जानथ कोन विधि जियब रे ।

घर पछुआर तोही कयथा कि मोरा हीत बसु रे ललना लिखि द जनकपूर चिठ्ठिया भैया मोर जानथि रे।

घर पछुअरवा में नउआ कि तोहीं मोरा हित बसु रे ललना दय चिठ्ठी पहुंचाय कि भईया मोर आओत रे।

हाथी चढि आवथि भइया बहुत रूप सजल रे ललना आगा पीछा आवय भरिया सीता मन हर्षित रे।

शुक्रवार, 7 मई 2010

कुछ प्रश्न ?


निरुपमा की मृत्यु या उसकी ह्त्या? यह विवाद उतना बड़ा नहीं है जितना की यह सत्य की निरुपमा अब इस दुनिया में नहीं है. प्रश्न कई सारे है जिन्हें वह अपने पीछे छोड़ गयी है.


सबसे अहम् की यह आत्महत्या है या ह्त्या?

मगर उससे भी अहम् प्रश्न यह है की क्या ज्ञान का अर्थ केवल सफलता प्राप्त करना है या फिर उसे आत्मसात करना. अगर सफलता माता पिता को संतुष्ट करती है तो उसी ज्ञान को आत्मसात करके अगर निरुपमा या उसके जैसे छोटे शहरों से आनेवाली कई निरुपमाये अपने निर्णय और सच के साथ अडिग रहने के फैसले से समाज इतना असंतुष्ट क्यों है?

निरुपमा के पिता ने पत्र में यह उल्लेखित किया कि सनातन धर्म संविधान से ज्यादा बड़ा है, मगर सवाल यह है की क्या हिन्दू धर्म किसी भी तरह से विचार की ह्त्या को प्रोत्साहित करता है? यहां तो प्रश्न न केवल विचार की ह्त्या का रहा बल्कि व्यक्ति की ह्त्या पर आकर ख़तम हुआ. और मुझे नहीं लगता की विश्वा का कोई भी धर्म इसे न्यायोचित ठहरा सकता है और सनातन धर्म तो कतई नहीं क्योंकि यहाँ विचार पर खुले अम्वाद की परम्परा रही है.

अत: मेरी अपील छोटे शहरों से आने वाले उन सभी निरुपमाओ से है जो बड़े शहर में आकर अपने विवेक और ज्ञान के बल पर जगह तो बनाती है मगर परिवार के दबाव में आकार अपने जीवन के सबसे बड़े फैसले में अपनी भूमिका को अनुपस्थित पाती है. समाज परिवर्तन के उस संक्रमणकाल में है जहा पर ऐसी सभी लड़कियों को अपने निर्णय के साथ डटकर खडा होना होगा. शर्त केवल इतनी है की निर्णय आवेग में ना लेकर बुद्धि के कसौटी पे कसा गया गया हो. ऐसा होना जरुरी है क्योंकि अब कोई और निरुपमा समाज, जाती और प्रतिष्ठा के कोरे दंभ की बलि ना चढ़े.

एक जरुरी बात कि बcपन से बड़े होने तक अभिभावक, धर्म, शिक्षा इत्यादि हमें प्रेम के लिए प्रेरित किया करते है पर क्या यह प्रेम बंधन में किया जाएगा उनके बताये अनुसार...

रविवार, 2 मई 2010

aawaj: भोजपुरी सिनेमा पर एक नज़र

aawaj: भोजपुरी सिनेमा पर एक नज़र

भोजपुरी सिनेमा पर एक नज़र





भोजपुरी सिनेमा अपने विकास के स्वर्णिम युग में है। भोजपुरी समाज से इतर भी इसने अपना दर्शक वर्ग निर्मित किया है। बिहार और उत्तरप्रदेश के अलावा देश के अन्य भागों में भी भोजपूरी फ़िल्में देखी जा रही है। भोजपुरी सिनेमा के निर्माण में वृद्धि से यु.पी बिहार के बहुत सारे सिनेमा घरों को जीवनदान मिल गया है, जो बंद होने के कगार पर आ गये थे। भोजपुरी सिनेमा ने उन सभी कलाकारों के कैरीयर भी प्रदान किया जो हिन्दी सिनेमा में अवसर की तलाश कर रहे थे और जिनका कैरीयर अपने ढलान पर था। भोजपुरी सिनेमा के सबसे सफ़ल अभिनेता रवि किशन ने भी हिन्दी सिनेमा में असफ़ल होने के बाद भोजपुरी का दामन थामा था जिसके बाद उन्होंने सफ़लता की उंचाइयां छुंई और हिन्दी सिनेमा में भी उनको काम मिलना शुरु हुआ। अच्छे अभिनेता के रूप में उनकी पहचान बनी, आज वे श्याम बेनेगल जैसे निर्देशक के साथ काम कर रहें हैं।

भोजपुरी सिनेमा उद्योग को पुनर्जीवन दिया मोहन जी प्रसाद निर्देशित फ़िल्म संईया हमार ने। रवि किशन अभिनित इस फ़िल्म ने अच्छा व्यवसाय किया। बहुत दिनों के बाद भोजपुरी फ़िल्म के निर्माण में संभावना इस फ़िल्म के सफ़ल होने के बाद दिखने लगी। इसके कुछ दिनों बाद मनोज तिवारी जो भोजपुरी के प्रसिद्ध लोक गायक भी हैं की चर्चित फ़िल्म आई ससुरा बडा पईसावाला। प्रदर्शित होने में बहुत कठिनाई झेलने के बाद जब यह फ़िल्म प्रदर्शित हुई तो इसने सफ़लता के झंडे गाड दिये। इस सिनेमा ने मृतप्राय भोजपुरी फ़िल्म उद्योग में प्राण फ़ूंक दिये और भोजपुरी सिनेमा के निर्माण में वृद्धि हुई। आज हम देख रहें हैं कि हर सप्ताह भोजपूरी की दो तीन फ़िल्में रीलीज होती हैं। व्यावसायिक सफ़लता को देखते हुए हिन्दी के साथ साथ अन्य भाषा के निर्माता भी भोजपुरी फ़िल्मों के निर्माण में प्रवृत हुएं हैं। कम लागत में अच्छे मुनाफ़े की उम्मीद में कार्पोरेट भी इस ओर आ रहें हैं। निर्माता के साथ साथ हिन्दी सिनेमा के अभिनेता भी गाहे बगाहे भोजपुरी फ़िल्मों मे नज़र आने लगें हैं। अमिताभ बच्चन, मिथुन चक्रवर्ती, अजय देवगन, जैकी श्राफ़, इत्यादि जैसे सफ़ल अभिनेताओं ने भोजपुरी सिनेमा में अभिनय किया है। नगमा, भाग्य श्री, साधिका जैसी अभिनेत्रियां तो भोजपुरी फ़िल्मों की नियमित अभिनेत्रियां हो गयी हैं। कहा जा सकता है कि भोजपुरी सिनेमा का बाजार गरम हो गया है। बिहार- यु.पी. में तो इसने हिन्दी सिनेमा के व्यवसाय को प्रभावित कर दिया है। भोजपुरी सिनेमा का यह सफ़ल दौर एक आशंका को भी जनम देता है, जिसकी चर्चा आगे होगी। गुणवत्ता के लिहाज से भोजपुरी सिनेमा एकदम निचले पायदान पर खडी नज़र आती है और हिन्दी सिनेमा के पराभव के दौर की छिछ्ली नकल।

भोजपुरी सिनेमा का स्रोत है हिन्दी सिनेमा। भोजपुरी सिनेमा की शुरुआत करने वाले लोग नाजीर हुसैन और सुजीत कुमार हिन्दी सिनेमा के स्थापित कलाकार थे। अपनी भाषा और मिट्टी के प्रति प्रेम ने उन्हें भोजपुरी सिनेमा बनाने के लिये प्रेरित किया। उस दौर की सिनेमा हिन्दी सिनेमा से सिर्फ़ प्रेरणा प्राप्त करती है उसका भौंडा नकल नहीं करती। सिनेमा की कहानी, परिवेश, कलाकार, संगीत इत्यादि हरेक पक्ष भोजपुरी का अपना है। भोजपुरी समाज की समस्याओं, लोक परम्परा, रीति- रीवाज, इत्यादि का चित्रण उस दौर के या उसके बाद बनने वाले सिनेमा में होता रहा। लेकिन नये दौर के सिनेमा में हम भाषा के अतिरिक्त और कुछ भोजपुरी का खोजने की कोशिश करें तो निराशा हाथ लगेगी। गौरतलब है कि अपनी जाति परम्परा से कटे होने के कारण ही हिन्दी सिनेमा को सिनेमा के कला जगत में वो स्थान नहीं मिल पाया है जो अब तक मिल जाना चाहिये था।

भोजपुरी सिनेमा भी इसी तरह की भेंड्चाल की शिकार हो रही है। फ़िल्मों की कहानी हिन्दी सिनेमा की कई फ़िल्मों की कहानी फ़ेंट कर तैयार कर लिये जातें हैं। सीधे सीधे रीमेक भी बन रहें हैं। कहानी की नकल करने में अकल का तनिक भी इस्तेमाल नहीं किया जाता इसलिये हर फ़िल्म की कहानी भी ले दे कर एक जैसी लगती है। हीरो, हीरोईन, विलेन सब का सांचा तैयार कर लिया गया हैं। जैसे- हीरो गरीब होगा, पढा लिखा होगा तो बेरोजगार होगा, नौकरी में होगा तो पुलिस होगा या पुलिस और अपराधी के कारण खुद अपराधी बन गया होगा। हीरो का काम होगा लोगों की मदद करना, हीरोइन से प्यार करना और विलेन को मारना। हीरोईन की हालत तो भोजपुरी फ़िल्मों में और भी खराब है। हीरोईन मार्डन होगी, छोटे कपडे पहनेगी, रोब झाडेगी, और हीरो से अंग्रेजी में डांट सुनने के बाद उससे प्यार करने लगेगी। मुझे नहीं लगता कि भोजपुरी समाज में ऐसी लडकियां पायी जाती हैं। हीरोईन अगर गांव की हुई तो उसे आदिवासियों जैसे कपडे पहना दिये जायेंगे। दरअसल हीरोईन को लेकर भोजपुरी सिनेमा के सोच में ही गडबडी है। उसे पुरी तरह यौन कुंठाओं के पुर्ती का माध्यम मान लिया गया है। वैसे अपवाद स्वरुप कुछ फ़िल्में है जो हीरोईन की इस स्टीरियो टाईप भूमिका के खोल से बाहर निकालती है।

विलेन अक्सर हीरोईन का बाप, भाई, नेता या बाहुबली होगा। अपराध या ऐसा कोई भी काम जिससे उसकी शैतानियत उभरे वह करेगा। हीरो से उसकी बार बार टक्कर होगी और अंत में वह हार जायेगा। हीरो का दोस्त और उसकी मां अन्य महत्त्वपूर्ण चरित्र है। दोस्त विदुषक की भुमिका में और मां फ़िल्म के मेलोड्रामा को उभारने में सहायक होती है। इसलिये दोस्त हंसता रहता है और मां रोते रहती है। पात्र में एक अनिवार्य पात्र आईटम डांसर का है, कहानी में उसके लिये अनिवार्य रूप से जगह है और इस के जरिये अश्लीलता परोसी जाती है।

इस तय ढांचे पर कहानी बना के पेश कर दी जाती है और इनमें गाना मिला दिया जाता है। फ़िल्म के कहानी से गानों का ताल्लुक हो यह कोइ जरुरी नहीं। अक्सर इसका उपयोग फ़िलर के रूप में किया जता है। निर्देशक मान के चलता है कि तय समय के बाद दर्शकों को गाना चाहिये और वह गाना डाल देता है। इसलिये हर भोजपुरे फ़िल्म में दस से उपर गाने रहते हैं। गानों में दो स्वप्न गीत, दो हीरोईन को छेडने का, दो प्रेम गीत, दो सैड सांग और दो आईटम गीत रहतें हैं। गानों का संगीत भी जड से कटता जा रहा है। आधुनिक पश्चिमी वाद्य और तकनीक को भोजपुरी संगीत के उपर तरजीह दिये जाने गानों का रस समाप्त होता जा रहा है। गानों के बोल भी सीधे सीधे हिन्दी से ले लिये जाते हैं। और द्विअर्थी गीतों की प्रधानता तो रहती ही हैं। एक जमाना था कि भोजपुरी फ़िल्मों के गाने लोगों को कंठ पर रहते थे अब तो अप उसे सभ्य समाज में गा भी नहीं सकते।

दर्शकों को आकर्षित करने के लिये बहुत सारे टोटके भी आजमाये जाते हैं। जैसे फ़िल्म का शीर्षक किसी गीत के आधार पर रख दिया जाता है और उस गीत का या शीर्षक का कहानी से कोई लेना देना नहीं रहता है। उदाहर्ण के तौर पर सफ़ल फ़िल्म पंडित जी बताई ना बियाह कब होई में इस शीर्षक का और इस गाने का फ़िल्म की कहानी से कोई लेना देना नहीं था। इसी तरह फ़िल्म के प्रचार के लिये फ़िल्म के पोस्टरों पर हिंसा के दृश्य रखक्र और हिरोईन के अर्धनग्न चित्र देकर दर्शकों को रीझाया जाता है।

कुशल अभिनेता और अभिनेत्री का भोजपुरी सिनेमा में प्रायः अभाव है या युं कहे कि भोजपुरी सिनेमा के निर्माताओं के लिये अभिनय उनकी प्राथमिकता सूची में हैं ही नहीं। कुछ आशा इस बात से है कि कुछ सहायक और चरित्र भूमिकाओं में उतरने वाले कलाकार अच्छा अभिनय कर लेते हैं।

हीरो अभिनय के नाम पर कुछ जोरदार संवाद बोलकर, डांस करके और मारधाड करके रह जाता है। हीरोईन के हिस्सों में तो कुछ सीन ही आते हैं जिसका अधिकांश भाग अंग प्रदर्शन करने और गीत गाने में बीत जाता है। पात्रों से बढिया अभिनय कराने की जिम्मेदारी निर्देशक की होती है पर निर्देशक का पूरा ध्यान मसाला फ़ेंटने पर रहता है। इसीलिये भोजपुरी सिनेमा में कोई भी निर्देशक आज अपने नाम से नहीं जाना जा रहा है। फ़िल्म जो निर्देशक का माध्यम है उसके लिये यह विडंबना ही है।

दर्शक क्यों भोजपुरी सिनेमा देखने जाता है इसके कुछ कारण हैं। हिन्दी सिनेमा धीरे धीरे आम जनता के पहूंच से दूर होता जा रही है। उसकी कहानी और परिवेश से दर्शक अपना तालमेल बिठाने में अपने आप को अक्षम मान रहा है। सिनेमा जो कभी उनके लिये सस्ते मनोरंजन का साधन था उसको वो अपने अनुकूल नहीं पा रहें हैं। यह दर्शक जो कभी हिन्दी सिनेमा के व्यवसाय का मुख्य श्रोत था आज हाशिये पर चला गया है। आज शायद ही किसी निर्माता निर्देशक के ध्यान में यह दर्शक है। अब हाशिये पर पहूंच गया यही दर्शक भोजपुरी सिनेमा का टार्गेट दर्शक है। अब हिन्दी सिनेमा में दिखने वाली चीज उसे अपनी भाषा में प्राप्त हो रही है तो वह भोजपुरी फ़िल्में देख रहा है। अपनी बोली और अपने कलाकारों को देख के दर्शक अधिक आनन्दित हो रहा है। अधिकांश फ़िल्में उन हिन्दी फ़िल्म के मसाले से तैयार हो रही हैं जो भोजपुरी बेल्ट में चल चुकी है।

इन फ़िल्मों को दर्शक मिलने का कारण लोक गायक भी हैं। भोजपुरी सिनेमा के आज सबसे सफ़ल अभिनेता मनोज तिवारी, निरहुआ और पवन सिंह की लोक गायक के रूप में अच्छी और सफ़ल पहचान रही है। इनके गाये गानों का बडा श्रोता वर्ग रहा है। जिनकी आवाज वो सुन रहे थे उनको पर्दे पर देखना उनको लुभा रहा है।

परिणामतः भोजपुरी में स्तरीय फ़िल्म का अभाव है कहने की बजाय यह कहना अधिक मुनासिब है कि भोजपुरी में स्तरीय फ़िल्म बन ही नहीं रही है। इसका दर्शक वर्ग बहुत ही सीमित है। अभी तक इस फ़िल्म को भोजपुरी के शिष्ट समाज के बीच हिकारत और उपहास से देखा जाता है। भोजपुरी की पुरानी फ़िल्मों को भोजपुरी समाज में जो स्वीकार्यता मिली थी वो आज इससे बहुत दूर हो गयी है।

अश्लीललता और हिंसा का अतिरेक भोजपुरी सिनेमा के विकास के लिये बहुत चिंतनीय बात है। वस्तुतः भोजपुरी सिनेमा की वर्तमान सफ़लता का आधार भी यही है भोजपुरी समाज के खुलेपन के नाम पर अनावश्यक छुट लेने से परिवार सिनेमा से धीरे धीरे दूर होता जा रहा है। हिंसा का भी चित्रण अकारण होता है, हीरो के नायकत्व को और विलेन के क्रुरता को उभारने के लिये इसका सहारा लिया जाता है।

भोजपुरी सिनेमा में भोजपुरी समाज की समस्याओं, लोक परम्परा, रीती रिवाज का चित्रण नहीं हो रहा है। भाषा को छोड्कर सब कुछ बाह्य प्रतिरोपित किया गया है। अगर इनका चित्रण होता भी है तो व्यावसायिक नज़रिये से। जैसे पर्व के नाम पर होली या छठ का चित्रण। छ्ठ भोजपुरी समुदाय का मुख्य पर्व है जिससे जनता अपने आप को जोडती है और होली के चित्रण से अश्लीलता दिखाने की छुट मिल जाती है। पलायन, दहेज, भ्रुण हत्या, बेरोजगारी, इत्यादि भोजपुरी समाज की मुख्य समस्याएं हैं जिनको लेके अच्छी फ़िल्मे बनायी जा सकती है पर इन सब पर किसका ध्यान है। ध्यान है सिर्फ़ अपराध पर, जिसमें अपराध और अपराधी को ग्लैमराइज्ड किया जाता है।

दरअसल भोजपुरी सिनेमा भोजपुरी समाज का व्यावसायिक दोहन कर रही है और बदले में विकृत मनोरंजन प्रस्तुत कर रही है। ये उद्योग भी मुम्बई में है। इसके बिहार और यु.पी. में होने से यहां को लोगो को काम मिलता और सरकार को फ़ायदा होता। इसके लिये तो सरकार को भी आधारभूत सरंचना उपलब्ध करा के फ़िल्म निर्माताओं को आकर्षित करना चाहिये।


अब जब हिन्दी सिनेमा और दक्षिण के बडे निर्माता भोजपुरी फ़िल्म में रूचि लेने लगे हैं, फ़िल्मों के निर्माण में भे काफ़ी वॄद्धि हुई है। प्रत्येक सप्ताह दो तीन सिनेमा प्रदर्शित हो रहा है। जिस रफ़्तार से सिनेमा प्रदर्शित हो रहा है उसी रफ़्तार से उनकी गुणवता भी गिर रही है। भोजपुरी सिनेमा को हिन्दी सिनेमा से सबक लेना चाहिये। फ़ार्मुलाबाजी में बुरे तरह उलझ चुके हिन्दी सिनेमा की हालत यह है कि साल भर में दस फ़िल्म भी हिट नहीं होते। वहीं सिनेमा चलता है जिसमें ताज़गी होती है नयापन होता है, सरोकार होता है। भोजपुरी सिनेमा को भी इसी ताज़गी और सरोकार की जरुरत है। यह ताज़गी उसे अपने दर्शक वर्ग के समाज से जुड कर ही मिल सकती है। भोजपुरी सिनेमा जिस दर्शको से कमाइ कर रहा है उसे उसके प्रति कुछ कर्तव्य भी निभाने होंगे। दर्शकों की रूचि के परिष्कार के लिये सार्थक फ़िल्में बनानी होंगी। ऐसा सिनेमा बनाना होगा जिससे इसकी चर्चा दूसरे भाषा के लोगों की बीच भी हो। इसकी एक राष्ट्रीय पहचान बने। तभी इसका दर्शक वर्ग बढेगा और सफ़लता का यह सुनहरा दौर टिकाऊ होगा। ध्यान रखिये कि दर्शक किसी का नही है, अपनी बोली, अपने समाज, अपने कलाकर से जुडाव उसे इन फ़िल्मों की तरफ़ खींच रही है। अगर सिनेमा के स्तर और विविधता की ओर ध्यान नहीं दिया जायेगा तो एक दिन यही दर्शक उसका साथ छोड देगा। और यह स्थिती किसी के लिये सुखकर नहीं होगी ।