पिछले दिनों मेरी एक अंगूठी खो गयी, जो मैंने दायें हाथ की कनिष्ठा ऊँगली में पहनी थी. अब उस ऊँगली को अंगूठी के बिना देखना अजीब लगता है. इसी तरह एक चप्पल जो काफी दिनों से पहन रहा था वो टूट गया. दो चीजों का साथ छोड़ना ही जैसे पर्याप्त नहीं है, पिछले पांच सालों से एक ही पर्स का इस्तेमाल कर रहा हूँ उसमे भी जीर्ण-शिर्णता के लक्षण स्पष्ट उभर कर आने लगे हैं.
खैर इन निर्जीव चीजों का ही रोना मैं क्यों रो रहा हूँ ? इस साल तो मैंने कुछ अपनों को भी खोया है. वैसे क्या होता है खोना ? जो जीवित हैं वे हमारे साथ निरंतर नहीं रहते पर उनकी उपस्थिति का अहसास बराबर बना रहता है. एक सेकेण्ड में सूचना मिलती है और वो हमसे बहुत दूर जा चुके होते हैं. इस होने और ना होने के बिच इतना फर्क करके जिसको पाटना असंभव तो होता ही है. जीवन का चक्र ऐसा निर्दय है की हम वापस अपने जीवन में लौटते हैं पर अब यह जीवन ऐसा है जिसमे कोई कमी है और जिसका अहसास निरंतर बना हुआ है. दब के वह हमारे स्मरण के भीतरी परतों के पीछे तो चला जाता है पर अक्सर सामने आता रहता है. इसका माध्यम कुछ चिह्न होते हैं, कुछ यादें होती हैं जिसे हम भूल नहीं पाते.
जो निर्जीव चीजें मेरा साथ छोड़ रही है वो भी मुझे अच्छा नहीं लग रहा. उनका होना ऐसा था जैसे मेरे खुद का होना. वैसे मैं अक्सर कहा करता हूँ की निर्जीव चीजों के बजाय हमें सजीव चीजों का ध्यान करना चाहिए पर यह इतना आसान नहीं है. ना चाहते हुए भी मुझे इन चिजों से लगाव तो हो ही गया तभी. मुझे लगता है इसीलिये हम अपने करीब की स्थिति को बनाये रखना चाहते हैं. मृत्यु की ओर लगातार बढ़ रहे आदमी को भी हम चाहते हैं कि किसी भी रूप में वह हमारे सामने बना रहे. लेकिन सब कुछ हमारे हाथ में नहीं होता. शायद किसी के रहने का और जाने का एक नियत समय है.
खैर इन निर्जीव चीजों का ही रोना मैं क्यों रो रहा हूँ ? इस साल तो मैंने कुछ अपनों को भी खोया है. वैसे क्या होता है खोना ? जो जीवित हैं वे हमारे साथ निरंतर नहीं रहते पर उनकी उपस्थिति का अहसास बराबर बना रहता है. एक सेकेण्ड में सूचना मिलती है और वो हमसे बहुत दूर जा चुके होते हैं. इस होने और ना होने के बिच इतना फर्क करके जिसको पाटना असंभव तो होता ही है. जीवन का चक्र ऐसा निर्दय है की हम वापस अपने जीवन में लौटते हैं पर अब यह जीवन ऐसा है जिसमे कोई कमी है और जिसका अहसास निरंतर बना हुआ है. दब के वह हमारे स्मरण के भीतरी परतों के पीछे तो चला जाता है पर अक्सर सामने आता रहता है. इसका माध्यम कुछ चिह्न होते हैं, कुछ यादें होती हैं जिसे हम भूल नहीं पाते.
जो निर्जीव चीजें मेरा साथ छोड़ रही है वो भी मुझे अच्छा नहीं लग रहा. उनका होना ऐसा था जैसे मेरे खुद का होना. वैसे मैं अक्सर कहा करता हूँ की निर्जीव चीजों के बजाय हमें सजीव चीजों का ध्यान करना चाहिए पर यह इतना आसान नहीं है. ना चाहते हुए भी मुझे इन चिजों से लगाव तो हो ही गया तभी. मुझे लगता है इसीलिये हम अपने करीब की स्थिति को बनाये रखना चाहते हैं. मृत्यु की ओर लगातार बढ़ रहे आदमी को भी हम चाहते हैं कि किसी भी रूप में वह हमारे सामने बना रहे. लेकिन सब कुछ हमारे हाथ में नहीं होता. शायद किसी के रहने का और जाने का एक नियत समय है.
खैर जिन वस्तुओं ने साथ छोड़ दिया उनका स्थान दूसरी वस्तुएं ले लेंगी, जो अब इस संसार में नहीं है उनकी स्मृति है और यह विश्वास(जो करना ही पड़ता है) कि अब वो नहीं हैं. इन सब के उपर एक बात दिमाग को मथ रही है कि कुछ ऐसा है जो इतना प्रिय है कि उसका साथ छोड़ने की आप कल्पना भी नहीं कर सकते, नहीं करना चाहते. और आपको दिखे कि वह छूट रहा है तब क्या किया जाये. मैं तो सोचता हूं कि बाद की कल्पना से तो बेहतर है कि अभी उसे बचाने की पुरज़ोर कोशिश की जाये. आपका क्या कहना है?
2 टिप्पणियां:
अमितेश जी,
हम जिसे प्यार करते हैं उससे लगाव हो जाना स्वाभाविक है ! निर्जीव वस्तुएं जिसे हम अपना लेते है और जीवन में उपयोग करते हैं उनसे भी हमें लगाव का अनुभव होता है! निर्जीव चीजों को तो हम बदल कर अपना दुःख ख़त्म कर लेते हैं मगर जो अपने बिछुड़ जाते हैं ,सदा के लिए छोड़ कर चले जाते हैं उनकी भरपाई नहीं हो पाती और हम जीवन भर उनकी यादों को दिल से लगाए रहते हैं! यही ज़िन्दगी है !
आपका लेख अच्छा लगा !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
आभार...
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