गुरुवार, 29 सितंबर 2011

पलायन संगीत

राग दरबारी मेरे प्रिय उपन्यासों में से है। जिन्हें मैं अक्सर पढ़ता हूं और जिसको कई लोगो को पढ़वाया भी है। श्रीलाल शुक्ल जी को  ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला है. इसलिये राग दरबारी का यह अंश जो मुझे अत्यंत प्रिय है। यह गद्यांश हमेशा मुझे सचेत रखता है:-
तुम मंझोली हैसियत के मनुष्य हो और मनुष्यता के कीचड़ में फ़ंस गये हो। तुम्हारे चारो ओर कीचड़ ही कीचड़ है ।
कीचड़ की चापलुसी मत करो। इस मुगालते मे न रहो की कीचड़ से कमल पैदा होता है। कीचड़ मे कीचड़ ही पनपता है। वहीं फैलता है, वही उछलता है।
कीचड़ से बचो यह जगह छोड़ो। यहां से पलायन करो।
वहां, जहां की रंगीन तस्वीरे तुमने ‘लुक’ और ‘लाइफ़’ में खोजकर देखी है; जहां के फूलों के मुकुट, गिटार और लड़कियां तुम्हारी आत्मा को हमेशा नये  अन्वेषण के लिये ललकारती है; जहां की हवा सूक्ष्म से सूक्ष्मतर है, जहां रविशंकर - छाप संगीत और महर्षि योगी – छाप - अध्यात्म की चिरंतन स्वप्निलता है…। जाकर कहीं छिप जाओ। यहां से पलायन करो यह जगह छोड़ो।
नौजवान डाक्टरों की तरह, इंजीनयरों, वैग्यानिकों, अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के लिये हुड़कने वाले मनीषियों की तरह, जिनका चौबीस घंटे  यहीं रोना है कि वहां सबने मिलकर उन्हें सुखी नहीं बनाया, पलायन करो। यहां के झंझटों में मत फ़ंसो।
अगर तुम्हारी किस्मत ही फूटी हो, और तुम्हें यहीं रहना पड़े तो अलग से अपनी एक हवाई दुनिया बना लो। उस दुनिया में रहो जिसमें बहुत से बुद्धिजीवी आंख मूंदकर पड़े हैं होटलों और क्लबों में। शराबखानों और कहवाघरों में, चण्डीगढ़ - भोपाल – बंगलौर के नवनिर्मित भवनों में, पहाडी आरामगाहों में, जहां कभी न खत्म होने वाले सेमिनार चल रहें हैं। विदेशी मदद से बने हुए नये नये शोध संस्थानों में, जिनमें भारतीय प्रतिभा का निर्माण हो रहा है। चुरुट के धुएं, चमकीली जैकेट वाली किताब और गलत, किन्तु अनिवार्य अंग्रेजी के धुन्धवाले विश्वविद्यालय में। वही कहीं जाकर जम जाओ, फिर वही जमे रहो।
यह न कर सको तो अतीत में कहीं जाकर छिप जाओ. कणाद, पतंजलि, गौतम में, अजन्ता, एलोरा, एलिफेंटा में, कोणार्क और खजुराहो में, शाल – भंजिका – सुर – सुन्दरी – अलसकन्या के स्तनों में जप तप – मन्त्र में सन्त – समागम- ज्योतिष – सामुद्रिक में – जहां भी जगह मिले, जाकर छिप रहो।
भागो, भागो, भागो. यथार्थ तुम्हारा पिछा कर रहा है।