रविवार, 2 जनवरी 2011

यह दाग-दाग उजाला, यह शबगज़ीद सहर


पहली जनवरी का दिन इससे पहले इस तरह कभी ना बीता था. एक दावत छोड़ कर मैं कांस्टिटयुशन क्लब के लान में पहूंच गया था, सहमत द्वारा आयोजित फ़ैज़ की जन्मशती देखने. फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ से मेरा इससे पहले का साबका इतना ही था कि मैं जानता था कि वो बेहतरीन शायर हैं. और मैं हर प्रकार की शायरी में दिलचस्पी रखने वाला जीव. उनका एक संग्रह ग्रेजुएशन के दिनों में कालेज की लाइब्रेरी से लाया था. उसमें जो नज़्म मैंने अपनी डायरी में नोट की थी वो था;
यह दाग-दाग उजाला, यह शबगज़ीद सहर/ वह इंतजार था जिसका, यह वह सहर तो नहीं
इसके कुछ दिनों बाद मैंने जाना कि फ़ैज़ तरक्कीपसंद शायरों और इंकलाबी नौजवानों के महबुब शायर हैं जिनकी आशिकी की नज़्म भी इंकलाबी संदर्भ में मौजुं हैं;
मुझसे पहले सी मोहब्ब्त मेरे महबूब ना मांग
फ़ैज़ से मेरा एक और परिचय है..गज़ल गायकी के द्वारा. मेहंदी हसन की आवाज़ में ‘गुलों में रंग भरे’ सुनना अकेलेपन को सुकुन देने वाला था. फ़िर इकबाल बानो को सुना ‘ लाज़िम है कि हम भी देखेंगे’ जो उन्होंने सैनिक शासन के आतंककारी माहौल के प्रतिरोध में गाया था. एक संस्कृतिकर्मी का ऐसा प्रतिरोध तो हिन्दुस्तान में आप नहीं ही देख पायेंगे. यहां तो कलाकार मेट्रो और फ़्लाई ओवर का विरोध इसलिये कर देते हैं कि वह उनकी प्राइवेसी में दखल देगा.
खैर…आज फ़ैज़ से पुरे तफ़सील से रु-ब-रु होने का मौका सहमत ने दिया था, जिसे तो नहीं ही छोड़ा  जा सकता था. वहां पहूंचने पर देखा कि बड़े नामों का जमावड़ा लगा हुआ था. यह सहमत की वज़ह से था या फ़ैज़ की वज़ह से ?
वहां फ़ैज़ की नज़्में पढी गयीं, कुछ गायकों ने उनका गायन किया, पाकिस्तान से भी एक साहब आये थे. इसी सब के बीच फ़ैज़ पर ‘नया पथ’ के विशेषांक का लोकार्पण हिन्दी के वरिष्ठ कवि कुंवर नारायण के हाथों हुआ. फ़ैज़ पे हिन्दी में इतना मुकम्मल संग्रह नहीं आया, अंक भी इस तथ्य की ताईद करता है. लोकार्पण के दौरान हमारे पास प्रति नहीं थी, प्रति की चर्चा इतनी आकर्षक थी कि मैं और प्रवीण सर अपने धैर्य को ज़ज़्ब नहीं कर सके और बाहर आकर पहले अंक खरीदा. यह एक समझदारी भरा फ़ैसला था. क्योंकि अंक जल्दी ही समाप्त हो गया और दुबारा मंगवाना पड़ा.
शाम का आकर्षण ‘महमुद फ़ारुकी और दानिश हुसैन’ की प्रस्तुति थी. दास्तानगोई के अंदाज़ में इन्होंने ‘फ़ैज़नामा’(यह मेरा दिया शीर्षक) पेश किया. फ़ैज़ की जिंदगी को बड़े आकर्षक तरिके से प्रस्तुत किया गया. जिनमें उनके विचार, उनकी रचनायें उनकी जिंदगी और उनके संघर्ष के सारे पहलु सामने थे. ये प्रस्तुति अभी कच्चे रूप में थी, निखर के जब सामने आयेगी तब उसे देखने का लुत्फ़ कुछ और ही होगा. प्रस्तुति में फ़ैज़ के बहाने व्यवस्था पर टिप्पणी की गयी चुटिले तरिके से, जो उनका खास अंदाज़ हैं.
इसको देखने के बाद जब घर लौटा तो बैचैनी बढ़ गयी है फ़ैज़ को जानने की. क्योंकि जो पत्रिका हाथ में मिली है उसकी भूमिका में कृशन चंदर के एक संस्मरण का उल्लेख है;
‘यकायक मेरी और फ़ैज़ की आंखे चार हुई. वे फ़ौरन अपनी कुर्सी से उठ खड़े हुए, मैं अपनी कुर्सी से. फ़िर हुआ यह कि मैं अपनी मेज़ से हिंदुस्तान का झंडा लिये हुए उठा और फ़ैज़ अपनी मेज़ से पाकिस्तान का झंडा लिये उठे और हम दोनों एक दूसरे की तरफ़ बढ़ते हुए, मेज़ें पार करते हुए बीच की किसी मेज़ पर आकर रुक गये. उस मेज़ पर हम दोनों ने हिंदुस्तान और पाकिस्तान के झंडे साथ-साथ लहरा दिये और एक दूसरे के गले लग गये. सारा हाल तालियां पीटने लगा.’
इसे पढने के बाद लगा कि दो देश जिसके बीच इतना नफ़रत है बाहरी तौर पर लेकिन प्रेम कितना गहरा है. मैंने देखा है पाकिस्तान के रंगकर्मियों के लिये देर तक प्रेक्षागृह में ताली बजते हुए. मेहंदी हसन हमारे लिये उतना ही प्रिय हैं.  फ़िर क्या वज़ह है कि बर्लिन की दिवार गिर जाती है पर हमारे भीतर की नहीं गिरती.
खैर, और भी सवाल है. कि एक देश अपने सबसे बड़ी प्रतिभा जिस पर आज वह इतराता होगा, उसे अपने ही देश से ज़िलावतन होना पड़ा. आज उसके अपने ही वतन, हां भारत उनका अपना ही वतन था क्योंकि वह यहीं जनमे थे, में आज उनकी शताब्दी वर्ष में उनके चाहने वाले उनको याद करने के लिये जुटे थे. हम ऐसे समय में जी रहें हैं जिस स्थिति के लिये फ़ैज़ ने कहा था,
निसार मैं तेरी गलियों पे ऐ वतन की जहां
चली है रस्म कि कोई न सर उठाके चले
जो कोई चाहने वाला तवाफ़ को नकले
नज़र चुराके चले जिस्मों-जां बचा के चले.
इसके लिये फ़ैज़ का नारा याद करना ही नहीं उस पर अमल करना जरुरी है
ऐ ख़ाक नशिनो उठ बैठो, वह वक्त करीब आ पहुंचा है
जब तख़्त गिराये जायेंगे, जब ताज़ उछाले जायेंगे.