शुक्रवार, 20 फ़रवरी 2009

चल चला चल के बहाने


इस बिच में फ़िल्म आई चल चला चल। अखबारों में उसकी समीक्षा पढी सभी अखबारों ने फ़िल्म को खारिज कर दिया और आश्चर्य व्यक्त किया की गोविंदा ने ऎसी फ़िल्म की क्यों....मुझे इस फ़िल्म को देखने का मौका मिला और आअश्चार्यजनक रूप से फ़िल्म अच्छी लगी...मुझे शक हुआ की हो है की फ़िल्म बस मुझे अच्छी लगी हो मैंने अपने और साथियों से puchhaa...फ़िल्म सभी को अच्छी लगी थी।दरअसल फ़िल्म एक सीधे साधे नौजवान की कहानी है जो अपनो के और समाज के खल यंत्रो से घिरा हुआ अपनी जिंदगी की 'बस ' चलाना चाहता है । इस काम में उसके साथ उसके प्रेरक पिता और मित्र है। वह अपने काम में व्यस्त सब से भले तरीके से पेश आता है । लेकिन समाज के तंत्र में आख़िर वह फस ही जाता है ...अंततः जित उसी की होती है...इस सीधी सी कहानी में एक मजदुर यूनियन का नेता नुमा गुंडा, सरकारी कर्मचारी,वकील भे है,साथ ही एक दारुबाज पिता की बेटी जो हीरो को बेवकूफ बनाती रहती है.... खैर इस फ़िल्म के बहाने मैं जो बात कहना चाहता हूँ ॥वो यह है..की फ़िल्म समीक्षा वर्तमान में बुरी तरह पूर्वाग्रह ग्रस्त है...वो एक ख़ास तरह की फिल्मो को ही सफल होते देखना चाहती है..खैर अधिकाँश प्रोजेक्टेड फिल्में फ्लॉप हो जाती है...जनता बहुधा इनके झांसे में नही आती। एक कारन मुझे और लगता ही की ,,आज के दौर में कोई चल चला चल के हीरो जैसे चरित्र को नही pacha paataa. यथार्थ को देखने का यह एकांगी दृष्टिकोण समाज में आज आम हो गया है। यह दृष्टी देव डी जैसे चरित्र को स्वीकार कर इसे एक महान फ़िल्म घोषित करती है तो चल चला चल जैसी हलकी फलकी फिल्मो के प्रति नकारात्मक रवैया अपनाती है।