शनिवार, 10 सितंबर 2011

प्राति- मम्मी की डायरी से

प्राति यानी प्रातः काल का गीत. एक समय था जब मिथिला के अंचल प्रातः होते ही इन गीतों से गुंजरित हो जाता था. मिथिला के लोकगीतों में सुबह और शाम के गीत नियमित तौर पर गाये जाने वाले गीत हैं. लेइन अब सहायद ही नियमित तौर पर गाये जाते हों. हां, नवरात्र में, या किसी अन्य पर्व त्योहार में और किसी मांगलिक कार्य के अवसर पर अब भी इनका गायन महिलायें करती हैं. लेकिन इन गीतों को आने वालि पीढ़ी गायेगी या नहीं..निस्संदेह बहुत सारे लोग जो हमारी पीढी के हैं इन गीतों को जानते भी नहीं..(नाक भौं सिकोड़ना तो है ही). इन गीतों  को संरक्षित करना आवश्यक है. इन गीतों में एक दिलचस्प तथ्य देखा जा सकता है कि गीत के अंत में सुरदास या तुलसीदास का नाम आता है. हो सकता है कि यह उनकी रचनायें ना हो क्योंकि ये मैथिली के कवि नहिं थे. लेकिन गीतों में अन्य भाषा के तत्व हैं और संभव है कि यह उन कवियों की कीर्ति के प्रति लोक का सम्मान हो. जहां राम हैं वहां तुलसी हैं और जहां कृष्ण हैं वहां सुरदास. यानी इन कवियों के बिना इन भगवान की कल्पना में अधुरापन ना हो इसलीये भी ये नाम आते हों. बहरहाल प्रस्तुत है 'मम्मी की डायरी' से प्राति(पराती):-
१.
कमल नयन परदेस हे भावनि
राम लखन सिया वन वन के सिधारल, धय लेल तापसि के भेष, हे भावनि कमलनयन परदेस
वन पग आसन वन पग भोजन, वन-वन रहति नरेश हे, भावनि कमल नयन परदेस
अवध अन्हार भेल एक रघुपति बिनु, जैसे वन लागत कुदेस, हे भावनि कमल नयन परदेस
मातु कैशल्या करूणा करत हे, क्यों नहीं कहत उद्देस, हे भावनि कमल नयन परदेस
तुलसीदास प्रभु तुम्हरे दरस को जाही वन उगल दिनेस, हे भवनि कमल नयन परदेस
२.
सीया सुधि सुनु हे रघुराइ
विप्र रूप रावण बन आयल भिक्षा लय रघुराई
भिक्षा लय निकलनि जानकी रथ पर लियो चढ़ाई
करूणा करति जाय जानकी शरण शरण गोहराई
कियो वीर अयोध्या जाइ के दशरथ खबरि जनाय
ककर प्रिया, नाम कि अछि, कौन विप्र हरि लय जाई
राम क प्रिता सीता नाम अछि, रावण विप्र हरि लय जाई
एतबा बचन सुननि गिद्ध खगपति रथ स लियो छोड़ाई
अपनहीं चोंच स महायुद्ध कियो, रथ को दिया विलमाई
अग्नि बान गहि मारल निशाचर पंख गयो भहराई
तुलसीदास रघुपति जब अईहें, कहब कथा समुझाई
३.
श्याम बिनु आई वृंदावन सुन
शोभा उड़ि गगन बीच लागल गोकुल पड़ल दुख पुन
कत राखब, कत हृदय लगायब, कत सुनायब हरि गुन
ब्रजबाल सब विकल होतु है, दैथ बईसल सर धुनि
सुरदास प्रभु तुम्हरे दरस को गोकुल आओत हरि पुन
४.
रथ पर सीया करथि विलाप
ससुर दशरथ भानुकुलपति सन, जनक ऋषि सन बाप
देवर लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न, जगत विदित प्रताप
कन्त रघुपति गजत ठाकुर, कर विजयी सरचाप
एहन सीया के हरल रावण, प्रबल पुर्वक पाप
कत छी रघुवंश भूषण, कतय गेला सरचाप
हाय सिंहनि त्रसित थर थर कांप
धीर धरु मन थिर करू सीया, रहत किछु दिनु ताप
तुलसीदास बिसरी सब छल करहूं हरि हरि जाप
५.
भोर उठि कहु गंगा गंगा, जौ सुख चाहिये भाई
पापी एक रहे अति धनि जाय मगह मरी जाई
तकरा तन गिद्ध काग नै खाय, गीदड़ देखि डेराई
गली गेल मांस पहरा करि, हारे रोम-रोम बिलखाई
इ देखु गंगा जी के महिमा उपर पंख फ़हराई
लक्ष्मी पति गिरिजा के नन्दन चलय निशान लगाई 

 प्रस्तुति- रीता मिश्र