बुधवार, 21 जुलाई 2010

बीच शहर में

रंगमंच पर इन दिनों कुछ नई प्रवृतियां विकसित हो रहीं हैं. एक तो पारस्परिक सहयोग का जिसके तहत अभिनेता, नाट्य संगठन, संसथान और निर्देशक मिल कर प्रस्तुति दे रहें हैं. दूसरी प्रवृति है नाटक को विकसित करने की. इसमें नाटक के लिये कोइ एक थीम चुन कर उसका विकास इम्प्रोवाइजेशन और कार्यशाला के द्वारा किया जा रहा है। इस तरह तैयार नाटक का लिखित आलेख तैयार कर लिया जाता है फ़िर उसकी प्रस्तुति होती है। इस तरह के रंगमंच में अभिनेता केन्द्र में आ गया है और निर्देशक प्रस्तुति का नियंत्रक हो गया है। इसी तरह की एक प्रस्तुति ‘बीच सहर में’ 17 और 18 जुलाई को रा.ना.वि. में हुआ। अलरिप्पु (ALARIPPU) और रा.ना.वि. के साझे से तैयार इस प्रस्तुति का निर्देशन किया त्रिपुरारी शर्मा और अदिति विश्वाश ने.

नई दिल्ली और गुजरात दंगो के परिप्रेक्ष्य में समाज में फ़ैलते जा रहे साम्प्रादायिक असहिष्णुता को नाटक ने अपना विषय बनाया था। इस क्रम में उसने समाज के हिस्सों में बटते जाने को भी चित्रित किया। एक पक्ष जो बिलकुल अंधा होकर हिंसा में अपना योगदान करता है और दूसरा जिसमें यह चेतना अभी बाकी है कि जिन लोगों के साथ वो रह रहें हैं उनको बचाया जाना जरूरी है चाहे वह किसी कौम के हों। इसी विचार के तहत नाटक एक ऐसे साधारण आदमी के असाधारण प्रयास को प्रदर्शित करता है जो अपने परिवार की मदद से गुजरात दंगे में 70 आदमी की जान बचाता है. साथ ही चार महिने तक सरंक्षण और आश्रय प्रदान करता है। जाहिर है दंगाईयों के लिये यह एक अविश्वनीय घटना है।

इस को प्रस्तुत करने के क्रम में नाटक सरंक्षकों और दंगाईयों दोनों के पक्ष को प्रस्तुत करता है. स्मृतियों, बिंबों, नाटक के भीतर नाटक के जरिये प्रस्तुति को तैयार किया गया है. बचाने वाले की खुशी और दंगाईयों की निराशा और हिंसक प्रवृति को नाटक में खास तौर पर उभारने का प्रयास किया गया है. यथार्थ और स्वप्न, जीवित और मृत पात्रों को एक ही स्पेस का हिस्सा बनाने से समाज का अंतर्विरोध उजागर हुआ है. प्रस्तुति के लिये मंच पर प्रापर्टी के रूप में लकडी के बक्सो, फ़्रेम और ट्राली का उपयोग है. मंच के पीछे चित्रित पर्दों को (धुसर रंग के खंडहरों जिन पर खुन के छींटे परे है) लगाया गया है. दृश्यबंध हिंसा के बाद के अवसाद को उभारता है. संगीत ठीक है पर पात्रों का गायन कभी कभी अति नाटकीय हो जाता है.

प्रस्तुति शुरुआत में उबाउ है लेकिन मूल विषय पर आते ही गम्भीर हो गयी है. संभवतः प्रस्तुति अभी विकासशील अवस्था में है और इस पक्ष पर काम किये जाने की जरूरत है. नाटक का कथ्य अत्यंत संवेदनशील है जो असहिष्णु होते जा रहे समाज में एक ‘आदमी’ के बचे रहने को दिखाता है. अतः प्रस्तुति में आगे काफ़ी सम्भावनायें हैं. कुछ अभिनेताओं ने उम्दा अभिनय किया है पर कुछ काफ़ी कमजोर हो गये जिससे प्रस्तुति में संतुलन नहीं आता.