बुधवार, 13 जनवरी 2010

भारंगम २०१० की संक्षिप्त रिपोर्ट

भारंगम 2010 प्रारम्भ हो गया है बहुभाषीय और बहुआयामी नाटकों के साथ। शुरुआत हुई बंशी कौल के निर्देशन मे प्रस्तुति 'नाट्य नाद' से । इस प्रस्तुति में रंग संगीत का इतिहास और महत्त्व का चित्रण हुआ है. नाट्य नाद इस बार के भारंगम का थीम है. भारतीय रगमंच के संगीत के विविध स्वरुप का अवगाहन रंग प्रेमी कर सकते हैं.

मेरी भारंगम 10 की यात्रा शुरु हुइ इप्टा दिल्ली की प्रस्तुति ‘बे-लिबास’ ( निर्देशक-अज़ीज़ कुरैशी) से। विभिन्न कहानियों के माध्यम से लगातार हो रहे स्त्री के यौन शोषण को मर्मिकता से उभारा गया. शैली कहानी के रंगमंच जैसी थी. लगभग सादे मंच पर सोफ़ों और टेबल के सहारे दृश्य रचा गया. कहानियों में स्थितियां बदली, पात्र और उनके नाम वहीं रखे गये यह आभाषित करने के लिये कि हर परिस्थिति में नारी ही उत्पीडित होती है. नाटक को दो भागों में दो सुत्रधारों द्वारा परिचालित किया गया. अभिनेत्री लक्ष्मी रावत ने अपने चरित्र को शिद्दत से जिया. इप्टा का बैनर था इसलिये थोडा प्रचारात्मक तो था ही सघनता भी एकरुप नहीं थी.

इसी रात दूसरी प्रस्तुति देखी एम. के. रैना निर्देशित ‘चंदा मां दूर के’. अभिनेत्री नीता मोहिन्द्रा के एकल अभिनय से सजा यह नाटक बिलकुल निस्तेज था. अभिमंच के बडे मंच पर अभिनेत्री बिलकुल असहाय हो गयी थी. प्रस्तुति उबाउ इस कदर थी कि नाटक बीच में ही छोड कर चला आया जो आमतौर पर नही करता हुं. वैसे नाटक का कथ्य जर्मन नाट्क ए 'लेटर टु अनबार्न चाईल्ड' से लिया गया था. पर निर्देशकीय दृष्टि ही ना हो और अभिनेता बे असर हो तो कथ्य क्या कर सकता है.

दूसरे दिन की प्रस्तुति थी 'अंक' की प्रस्तुति ‘जिन लाहौर नई वेख्या’. समकालीन भारतीय रंगमंच पर यह सर्वाधिक मंचित होनेवाला आलेख है. दिनेश ठाकुर निर्देशित इस प्रस्तुति में आलेख में कुछ बदलाव किया गया था. नासीर काजमी के जगह नासीर फ़ज्ली कर दिया गया था. और नाटक में से नासीर काजमी के गीतों को हटाकर आधुनिक शायर निदा फ़ाजली के गजलों और दोहों को जोडा गया था. जिनका प्रयोग दृश्य अंतराल को भरने में किया जा रहा था. नाटक के प्रारम्भ और अंत में वीडियो फुटेज को जोडा गया था और नाटक के अंत में माँई के किरदार कर रही प्रीता माथुर ठाकुर ने एक संक्षिप्त भाषण दिया. वर्तमानता का अत्यधिक बोझ प्रस्तुति सम्भाल नहीं पायी इसलिये नाटक में तनाव की एकरूपता बरकरार नहीं रह सकी. कुछ दृश्य अच्छे बन गये तो कुछ शिथिल पड गये। वैसे दर्शको के बीच यह प्रस्तुति अत्यधिक प्रशंसित हुई.

तीसरे दिन प्रख्यात निर्देशक कन्हाईलाल निर्देशित बांग्ला नाटक 'अचिन गायानेर गाथा' ( देवाशीष मजुमदार लिखित ) देखी . यह बढ़िया प्रस्तुति थी. सौतेली माँ के अत्याचारों से तंग आकर घायल लड़की एक दिन पंछियों के साथ कही चली जाती है . बाप लौटने के बाद जब अपनी बेटी को नहीं पाता है तो अपनी पत्नी को काली मंदिर ले जाता है जहां वह देवी से बेटी को लौटाने की प्रार्थना करता है. पत्नी वहा पर एक माँ के संवेदना को अनुभूत कराती है और उसका नया जन्म होता है. इस आलेख को अद्भुत अभिनय के माध्यम से प्रस्तुत किया गया. कन्हाईलाल भारतीय रंगमंच पर नयी अभिनय शैली के अविष्कारक के रूप में भी जाने जाते है. इस अभिनय में देह भाषा के सहारे आलेख की दृश्यात्मकता को रचा जाता है. यह नाटक देखा जाना एक अद्भुत रंग अनुभव था.

इसी दिन दूसरी प्रस्तुति देखी 'मोटली' की 'नसिरिद्दीन शाह' निर्देशित प्रस्तुति 'केंन म्युटिनी द कोर्ट मार्शल'. हरमेन ब्रुक के उपन्यास पर आधारित यह रंग प्रस्तुति अभिनेताओ के अभिनय के वजह से यादगार बन गयी. एक लेखक अपने आफिसर को हटाने के लिए एक सेलर का सहारा लेता है आर सफल होता है. कोर्ट मार्शल में सेलर तो बच जाता है लेकिन उसको बचाने वाला नाटक के अंत में लेकक की धज्जिया उतार देता है. युद्ध और कोर्ट मार्शल की नाटकीयता और निरर्थकता को इस प्रस्तुति के जरिये उभारा गया. मंच सज्जा साधारण थी कोर्ट मार्शल के लिए जरुरी कुर्सियों को छोड़कर कुछ ना था खाली स्पेस में अभिनेताओ ने दमदार अभिनय किया नाटक का तनाव इतना जबरदस्त था की दर्शक अपनी कुर्सी से चिपके रह गए.

चौथे दिन की प्रस्तुति थी 'माहिम जंक्शन' (निर्देशक सोहिला कपूर ). कहने के लिए यह प्रस्तुति सत्तर के दशक के हिंदी सिनेमा को ट्रिब्यूट देने के लिए थी पर इसमें ऐसा था कुछ नहीं. दर्शक और अभिनेताओं के लिए भी यह नाटक एक बुरा अनुभव था .जैसा की उसके एक अभिनेता ने बताया . अत: इस पर चर्चा ना करना ही मेरे लिए बेहतर होगा.

पांचवे दिन अब तक की सबसे बेहतरीन प्रस्तुति देखी . 'सुनील शानबाग' निर्देशित 'सेक्स मोरेलिटी एंड शेंसर्शिप '. सेक्स और नैतिकता की सेंशर कैसे अपनी व्याख्या करता है. कैसे बेहतरीन प्रस्तुतियों को इनकी आड़ में निशाना बनाया जाता है. यह सब इस नाटक के माध्यम से दिखाया गया. और यह प्रश्न उठाया गया की जब दर्शक को समस्या नहीं है तो सेन्षर को क्या हक़ है अपनी मनमानी करने का. इस के प्रदर्शन के लिए पृष्ठभूमि के रूप में विजय तेंदुलकर के नाटक सखाराम बाऐन्डर का उपयोग किया गया. यह नाटक के भीतर एक नाटक था. मंच को दो भागो में बांटा गया था पीछे सखाराम होता आगे तमाशा , एक पंडाल था जो स्क्रीन में तब्दील हो जाता था जिस पर इतिहास के सन्दर्भ और वृतचित्र दिखाए गए और इन सबको मिला कर नाटक तैयार होता था. सूत्रधार और सखाराम के रूप में नागेश भोंसले का अभिनय लाजवाबा था. यह नाटक एक विस्तृत चर्चा की मांग करता है जो आगे करने की कोशिश करूंगा अभी इतना ही.

अभी तक के भारंगम के अनुभव से एक धारणा तो अवश्य साफ़ हो गयी है की तमाम प्रयोगों का केंद्र जब तक अभिनेता को नहीं बनाया जाएगा प्रयोग असफल होंगे. निस्संदेह रंगमंच की सफलता अभिनेता में ही निहित है. भारंगम की इस साल सभी सफल प्रस्तुतिया खाली स्पेस में अभिनेता ने रची है.