बुधवार, 29 दिसंबर 2010

दो कविता

एक
सत्य और असत्य
के बीच का
...फ़र्क...
हमेशा एक
...मनुष्य...(किसी भी लिंग का हो)
...का है.
दो 
मरीचिका ही है 
ये जानता हूँ 
'अंत में हाथ आएगी रेत
फिसलती हुई 
चिपकी रहेंगी कुछ जरुर 
पर वे काफी नहीं होंगी '
फिर भी बढ़ रहा हूँ ...
निरंतर 
उसकी ओर
जो दूर होती जा रही है लगातार...

मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

रचनाकार का दायित्व...

उदय प्रकाश का ये साक्षात्कार एक मित्र के शोध के सिलसिले में लिया गया था.  कहानी, जीवन, कविता और मोहनदास को लेकर लगभग एक घंटे की बातचीत हुई. ‘मौका है और दस्तुर भी’ के पुराने कहावत को दोहराते हुए ये साक्षात्कार अंश;

मैं बार बार कहता हूं कि भारत में जो जाति व्यवस्था है उसके कन्फ़्लिक्ट कई मायने में नस्लीय कन्फ़्लिक्ट से कम घातक नहीं है आज आदिवासियों के साथ जिस तरह से आप ट्रीट कर रहें हैं इसको आप किस कटेगरी में रखते हैं मुसलमान और हिन्दु में जब कन्फ़्लिक्ट होता है उसको आप कम्युनलिज्म और सेकुलरिज्म के दो पालिटिकल कैटगरी बना लेते हैंआप आज आदिवासियों के साथ जो कर रहें है उसे आप किस कैटेगरी में रखेंगे या दलितों के साथ जो कर रहें हैं, उसे आप किस कैटेगरी में रखेंगे या मेरे जैसे लेखक के साथ जो आप कर रहें हैं उसे आप किस कैटेगरी में रखेंगेये कम्युनल है कि रेसियल है है न.. इसके पीछे जो संदेह और घृणा है वो किस कैटेगरी में जाता है। इस रूप में मोहनदासलिखी ही गयी थी औरि उसमें जो लिखते हुए मुझे ऐसा लगा मैं अपनी ही नहीं सारे  जो वंचित लोग हैं मैं उनकी कहानी कह रहा हूं। और शायद जो डेमोक्रेसी फ़ैल कर गयी है क्योंकि ज्यादा जो इम्फ़ैसिस था इस पर था कि 1989 में समाजवाद फ़ेल कर गया और ये मान लिया गया कि इसका कोई फ़्युचर नहीं हैमेरा कहना ये है कि समाजवाद ही नहीं फ़ेल कर गया है डेमोक्रेसी फ़ेल कर गयी है। लोकतंत्र कहां है ?  आप पढिये फ़ुकुयामा की नयी किताब पोस्ट हुमन फ़्युचर उसमें कहता है कि एंड आफ़ हिस्ट्री हैएंड आफ़ हिस्ट्री उसने इसलिये कहा कि दो ब्लाक्स थे सोशलिस्ट ब्लाक और कैपटलिस्ट ब्लाक  लोकतंत्र और समाजवाददोनों के टकराहट में इतिहास निर्मित हो रहा था और वो जो राजनीति थी ड्राईविंग सीट पर बैठी हुई थी जो आगे ले जा रही थी इतिहास बन रहा था उसने कहा अब ये खतम हो गया युनीपोलर दुनिया हो गयी एकध्रुवीय हो गयी वो कंट्राडिक्शन तो गया, वो द्वंद्व तो गया तो अब इतिहास कैसे बनेगा ?  उसने कहा अब इतिहास का अंत हो गया कोई शीतयुद्ध नहीं है ध्रुवीय व्यवस्थाओं में उस तरह के टकराहट नही है समाज व्यवस्थाओं में उस तरह के रोल माडल नहीं है तो अब इतिहास का अंत हो गया लेकिन अब उसकी जो नयी किताब है उसमें वो चेंज कर रहा है कहता है कि नहीं आप ये सोचिये कि 1789 में जो फ़्रेंच रिवोल्युशन हुआ था उसमें रुसो ने तीन नारे दिये थे स्वतंत्रता, समानता और विश्वबंधुत्व अब ये तीनों कहां है किस देश में है आप अपने सबकान्ट्नेन्ट में देखिये फ़िर तीसरी दुनिया में देखिये... बर्मा में मिलट्री जुंगटा है, श्रीलंका में आपने अभी देखा तीसहजार लोगो का मैसेकर जेनोसाईड आप बांग्लादेश में देखिये, पाकिस्तान में देखिये, हिन्दुस्तानी में देखिये  इतना ज्याद आदमी का, फ़ौज का, पुलिस का इस्तेमाल अपनी जनता के खिलाफ़ हेलिकाप्टर से बम तक गिराने का कोलोकतंत्र क्या कर सकता है ?  अंग्रेजो ने भी नहीं किया ऐसा आप यकीन मानिये जिसको हम कोलोनोइयल पावर कहते है जो बाहर से आये थे उनके अंदर भी थोडी मानवीय चेतना थीतो मुझको कई बार ये संदेह होने लगता है मैं कहता हूं कि ऐसा तो नहीं है कि जोज्योतिबा  फ़ुलेकहते थे वो सही कहते थे कि ये तो अच्छा हुआ कि 1857 की क्रांति सफ़ल नहीं हुई हो जाती तो हम दस हजार साल तक और गुलाम रह जाते। अचानक क्या होता है कि आपको आपके समय को देखने के एक नये दृष्टि मिलती है और आप पाते है कि ये आजादी, ये स्वतंत्रता, ये लोकतंत्र इसकी जो व्याख्या होनी चाहये इसका जो विश्लेषण होना चाहिये यहां कि जो पुरी डेमोग्रफ़ी है जनसांखिय्की है या जो रहने वाले लोग है मनुष्य है उनके संदर्भ में होनी चाहिये ऐसा नहीं है कि आपने एक कांस्ट्रक्ट बाना दिया है कि देखिये हम ये योजना बना रहें हैं, हम इतना इंफ़्रास्ट्रक्चर तैयार कर रहें है,  इतने कारखाने लगा रहें हैं, पावर प्रोजेक्टस लगा रहें हैं, इतने माईन्स लगा रहें हैं, हम डेवलप कर रहें हैं और हम लोकतंत्र है दुनिया की बिगेस्ट लोकतंत्र हैमैं कह रहा हूं कि आप लोकतंत्र हैं  के नहीं ? बिगेस्ट तो बाद की बात है। पहला प्रश्न तो ये पैदा होता है कि क्या आप लोकतंत्र बने हुए हैं,  अगर हैं तो उसका संविधान तो कुछ कहता होगा, उस संविधान के अनुरुप चल रहें हैं, उसका पहला प्रिएंबल क्या है?  संविधान का पहला प्रीएम्बल क्या है आप उस पर भी स्टिक कर रहें हैं कि नहीं?   मेरा यकीन मानिये कहीं नहींउसको आपने उठा कर के रख दिया है अब लेखक बचता है। लेखक जो है सचमुच इमानदार है तो उसके सामने बडी एकाउंटिबलिटी होती है बडी जिम्मेदारी होती है उत्तरदायित्व होता है क्योंकि वो इतिहास नहीं लिख रहा है। वो जानता है कि मैं इतिहास के बाहर की  एक चीज और लिख रहा हूं, हो सकता है कि वो मेरी निजी डायरी हो या मेरा अपना देखा गया सच हो तो फ़िर वो काम भी करता है रचनाकार करता है लेखक करता है दुनिया भर के लेखक ये करते हैं जो सच्चे हैं।

शनिवार, 18 दिसंबर 2010

खोना


पिछले दिनों मेरी एक अंगूठी खो गयी, जो मैंने दायें हाथ की कनिष्ठा ऊँगली  में पहनी थी. अब उस ऊँगली को अंगूठी  के बिना देखना अजीब लगता है. इसी तरह एक चप्पल जो काफी दिनों से पहन रहा था वो टूट गया. दो चीजों का साथ छोड़ना ही जैसे पर्याप्त नहीं है, पिछले पांच सालों से एक ही पर्स का इस्तेमाल कर रहा हूँ उसमे भी जीर्ण-शिर्णता के लक्षण स्पष्ट उभर कर आने लगे हैं.
खैर इन निर्जीव चीजों का ही रोना मैं क्यों रो रहा हूँ ? इस साल तो मैंने कु अपनों को भी खोया है. वैसे क्या होता है खोना ?  जो जीवित हैं वे हमारे साथ निरंतर नहीं रहते पर उनकी उपस्थिति का अहसास बराबर बना रहता है.  एक सेकेण्ड में सूचना मिलती है और वो हमसे बहुत दूर जा चुके होते हैं. इस होने और ना होने के बिच इतना फर्क करके जिसको पाटना असंभव तो होता ही है. जीवन का चक्र ऐसा निर्दय है की हम वापस अपने जीवन में लौटते हैं पर अब यह जीवन ऐसा है जिसमे कोई कमी है और जिसका अहसास निरंतर बना हुआ है. दब के वह  हमारे स्मरण के भीतरी परतों के पीछे तो चला जाता है पर अक्सर सामने आता  रहता है. इसका माध्यम कुछ चिह्न होते हैं, कुछ यादें होती हैं जिसे हम भूल नहीं पाते.
जो निर्जीव चीजें मेरा साथ छोड़ रही है वो भी मुझे अच्छा नहीं लग रहा. उनका होना ऐसा था जैसे मेरे खुद का होना. वैसे मैं अक्सर कहा करता हूँ की निर्जीव चीजों के बजाय हमें सजीव चीजों का ध्यान करना चाहिए पर यह इतना आसान नहीं है. ना चाहते हुए भी मुझे इन चिजों से लगाव तो हो ही गया तभी. मुझे लगता है इसीलिये हम अपने करीब की स्थिति को बनाये रखना चाहते हैं. मृत्यु की ओर लगातार बढ़ रहे आदमी को भी हम चाहते हैं कि किसी भी रूप में वह हमारे सामने बना रहे. लेकिन सब कुछ हमारे हाथ में नहीं होता. शायद किसी के रहने का और जाने का एक नियत समय है.
खैर जिन वस्तुओं ने साथ छोड़ दिया उनका स्थान दूसरी वस्तुएं ले लेंगी, जो अब इस संसार में नहीं है उनकी स्मृति है और यह विश्वास(जो करना ही पड़ता है) कि अब वो नहीं हैं. इन सब के उपर एक बात दिमाग को मथ रही है कि कुछ ऐसा है जो इतना प्रिय है कि उसका साथ छोड़ने की आप कल्पना भी नहीं कर सकते, नहीं करना चाहते. और आपको दिखे कि वह छूट रहा है तब क्या किया जाये. मैं तो सोचता हूं कि बाद की कल्पना से तो बेहतर है कि अभी उसे बचाने की पुरज़ोर कोशिश की जाये. आपका क्या कहना है?

सोमवार, 29 नवंबर 2010

कसक

पिछले पोस्ट में दहलीज़ कविता छपी थी, एक मित्र ने उस कविता को आगे बढ़ाया है जिसे अब छाप रहा हूँ...
2.
पहले ये कसक
ये  दहलीज नाप नहीं सकती
फिर ये डर
सपने आँखों में ही ना खो जाए
पर
अब ना सपने है और ना  सशंय
उस कसक के खो जाने का डर है
डर है, आँखों का ये शून्य मन में ना उतर जाए
बहुत गहरा...बहुत गहरा...

शनिवार, 27 नवंबर 2010

दहलीज़

उड़ो
पंख मत फैलाना ...
हद है हमारी नज़र
अब ताक में है चिड़िया
कब पलक झपके
...कर ले पार दहलीज...

शनिवार, 30 अक्तूबर 2010

पड़ताल

बहुत दिनों के बाद एक कविता लिखी, अक्सर मैं अपनी कविताओं के बारे में संदेहास्पद रहता हूँ, फिर भी...
एक दिन
उतरना ही होगा भीतर
करनी ही होगी पडताल
सत्य की
जो बनी है भाषा में  
प्रक्षेपण के लिए
आवरण के लिए
और
मुगालते के लिए भी...


सोमवार, 25 अक्तूबर 2010

रंग समीक्षा

मैकबेथ मैकबेथ 


अब जब आधुनिकता की परियोजना पर सवाल उठाये जाने लगे हैं, ज्ञानोदय और पुनर्जागरण के महा वृतांतो का स्थापत्य चरमराने लगा है, क्या रंगमंच इन बहसों को सशक्त तरीके से उठा सकता है ? आप इसका जवाब सोचते रहें, मैं कहूँगा हां. रंगमंच ने यह काम शुरू कर दिया है. इसका ताजातरीन उदाहरण संसप्तक द्वारा की गयी प्रस्तुति ‘मैकबेथ मैकबेथ’ है. यह मूल बंगाली नाटक का हिन्दी संस्करण है. आलेख और निर्देशन तोरित मित्रा का है. नाटक महान शेक्सपियर की ख्यात कृति ‘मैकबेथ’ से आधार ग्रहण करती है. ‘मैकबेथ’ को केन्द्र में रखते हुए औद्योगिक क्रान्ति और  पुनर्जागरण  (प्रस्तुति जिसे व्यापार प्रतियोगिता और  नवजागरण कहती है) के पीछे की मंशा को उजागर करती है. प्रस्तुति में डंकन की मौत पूंजीवाद का रास्ता साफ़ करती है और इसके कारक बनते है मैकबेथ और लेडी मैकबेथ. यद्यपि इसके पीछे उनके निजी कारण भी हैं पर वे महान कारण का हवाला देकर छुपाये जा रहें हैं. नाटक ‘मैकबेथ’ को एक बहस में तब्दील कर देती है. मैकबेथ जो बुढा होकर वर्तमान का अभियोगी है  यह स्वीकार करता है कि उससे भूल हुई थी और वह पूंजीवाद के हाथों का खिलौना बन गया था. प्रस्तुति वर्तमान और अतीत के सहारे पूंजीवाद से लेकर वैश्वीकरण के पीछे की राजनीति को स्पष्ट करता है. चुटीलेपन के लिए कुछ वास्तविक नाम का सहारा भी लेता है. प्रस्तुति में यह बहस घुला मिला हुआ है. नाटक इस तथ्य को रेखांकित करती है की किसी भी प्रक्रिया को लाने के लिए कितने दबाव कार्य करते हैं जिन्हें अपरिहार्यता के आड़ तले छुपाया जाता है. नाटक यह दिखाता है की पश्चिम बाज़ार के विस्तार के लिए कैसे पूर्व से मिलने को आतुर था.  
नाटक में शेक्सपियर को भी आलोचना के घेरे में लाया जाता है और उसके आलोचकों का हवाला दिया जाता है. लेकिन अंततः उसकी महानता को रेखांकित करता है जिसने बड़े ही सशक्त ढंग से अपने समय के विरोधों को अपने नाटकों में चित्रित किया है. विखंडन की तकनीक का सहारा लेकर   नाटक को पुराने अर्थ से मुक्त कर प्रस्तुति उसे विमर्श का माध्यम बना देती है. बच्चो के गीत ‘बाबा ब्लैकाशीप’ नाटक में कई बार प्रयुक्त हुआ है जो नव सामंती अर्थ तंत्र को चित्रित करती है. प्रस्तुति की खूबी यह है कि इतने गंभीर विमर्श को समेटने के साथ उसको संभालती भी है बिना हल्का हुआ लेकिन रंगमंचीय स्तर पर कई खामियां भी हैं.
प्रस्तुति में कुछ पात्रों का अभिनय लाउड हो गया है जिसकी आवश्यकता नहीं थी. नाटक में हिन्दी की व्याकरणिक भूले हैं और अनुवाद में तरलता नहीं है जो कई दर्शको नहीं पचता. एक प्रस्तुति को समग्र बनाने के लिए सभी पात्रों पर मेहनत की जानी चाहिये, नाटक में कुछ पात्र बिलकुल फ़्लैट ढंग से अपने सम्वाद बोलते दिखे बिना शरीर भाषा का इस्तेमाल किये. वैसे यह पहली  प्रस्तुति है और खामियां सुधारी जा सकती है.
नाटक का दृश्यबंध लगभग सादा है. एक प्लेटफार्म है जो अतीत का व्यंजक है जिससे निकल पात्र वर्तमान में हस्तक्षेप करते हैं. प्रस्तुति में तीन जादूगर सरीखे चरित्र हैं जो सूत्रधार का काम करते हैं वे नाटक के भीतर भी है और बाहर भी. वे आगे की कथा का संकेत देते है और टिपण्णी भी करते हैं. ये चरित्र रोचक हैं इनको और करियोग्राफ किया जाये तो बेहतर होगा. समग्रत: नाटक की शक्ति है की वह एक बहस को केंद्र में रखता है और उसका निर्वाह करता है. आगे नाटक और बेहतर और तीखा होता जाएगा ऐसी उम्मीद है. कुछ संवाद दिलचस्प है जीनमें एक है; ‘राजाओं से भी खतरनाक है नए विचार’. अतः उनकी ह्त्या कर दो पर विचार कि हत्या होती है क्या ?
नाटक-मैकबेथ मैकबेथ
समूह-संसप्तक
निर्देशन और आलेख-तोरित मित्रा

शुक्रवार, 22 अक्तूबर 2010

अमितेश के नाम

हाँ ! अमितेश भाई
प्रेम में तलाक नहीं दिया जा सकता
और  ना ही टांगा जा सकता है इसे सूली पर

 प्रेम तो जिया जीता है
उम्मीदों के साथ
हसरत भरी निगाहों से
खोजा  जाता है
सूने आकाश  में

बनाते बिगडते नक्षत्रों
और  टूटते हुए तारों को देखकर
मांगीजाती है मन्नते
पुरे होने कि प्रेम की
और जनाब इसे पाने के लिए गुजरना होता है 'ब्लैक होल' से
बनानी होती है इसी दुनिया में एक दुनिया

मेरे अनुज
ये  कोई समझौता नहीं है
समझ वाला समझदार प्रेम
अक्सर दम तोड़ देता है
आदमी  और प्रेम में यही तो फर्क है
आदमी  समझ के साथ जीता है और प्रेम इसके बिना



अरे भाई
अपनी तोयही एक पूंजी है
और दिल के खाते
पड़ा हुआ बैलेंस है

और तुम ही कहो जो बसा है धमनियों के साथ
उस प्रेम से तलाक कैसा


ये कविता हमारे प्रिय सीनियर मनोज कुमार की है . ये  उनकी एक कविता पर मेरी की  हुई प्रतिक्रिया  की प्रतिक्रया है. उनके आग्रह और मेरे प्रति स्नेह के कारण यहाँ छापी जा रही है. कविता देखने के लिए लिंक पर जायें.
http://jaaneanjaane.blogspot.com/2010/04/blog-post_19.html

बुधवार, 6 अक्तूबर 2010

दिल्ली में बस्तर बैंड

बैंड नाम सुनते ही हमारे जेहन में क्या आता है? शादी विवाह में बजने वाले बैंड या रॉक बैंड (लोकप्रियता के साथ शोर दोनों का केंद्रीय भाव है). इससे इतर भी कोई बैंड हो सकता है?
जी हाँ! ऐसे एक बैंड की कल्पना को साकार किया है अनूप रंजन पांडे ने बस्तर बैंड के रूप में . यह बस्तर के आदिवासियों का बैंड है. इस बैंड ने बस्तर की विभिन्न आदिम जनजातियों के वाद्य,नृत्य, संगीत इत्यादि को मिलाकर प्रस्तुति तैयार की   है , इसकी रूपरेखा और निर्देशन अनूप रंजन का है. इस प्रस्तुति में हम ऐसे वाद्य को देखते है जिन्हें हमने कभी देखा ही नहीं जैसे आम की चौड़ी पटरी का वाद्य ,लकड़ी के चिडियों का वाद्य इत्यादि.इन सभी वाद्यों की स्वतन्त्र ध्वनियाँ मिलकर पूरी प्रस्तुति का संगीत रचती हैं.प्रस्तुति में विभिन्न शैलियों की टकराहट भी है और उनका समंजन भी. दर्शक के रूप में हम इन सभी से अनजान होकर भी कौतुहल से भर जाते हैं और प्रस्तुति में ध्यान गड़ा देते हैं, अंत तक पहुंचते पहुंचते यह अनुष्ठान जैसा लगने लगता है. मेघदूत के मंच की सीमा कलाकरों को बांधती है और प्रस्तुति अपने भीतर से जहाँ पहुँचने की जिद कराती है वहाँ पहुँच नहीं पाती. वैसे यह प्रस्तुति अभी निर्माण की अवस्था में है और निर्देशक को चाहिए की इसे थोड़ा और तराशे.
बस्तर बैंड ने कम समय में ही अपनी पहचान बना ली है. पिछले कुछ महीने से यह देश के विभिन्न शहरों में लगातार प्रदर्शन कर रही है. यह बैंड बस्तर की उस पहचान को धोने का प्रयास करती है जो उसपे चस्पा कर दिया गया है. आदिम जनजातियों पर हो रहे चौतरफा आक्रमणों के बीच में यह बैंड उस संस्कृति की जीवन्तता को बनाए रखने के साथ साथ अपनी अस्मिता को भी मुख्य धारा के सामने रख रहा है.
अनूप रंजन पांडे प्रतिष्ठित संस्कृतिकर्मी है.हबीब तनवीर के नया थियेटर के सक्रिय सदस्य है. राजरक्त,हिरमा की अमर कहानी इत्यादि नाटकों में इनका अभिनय प्रशंसित हुआ है. आदिवासी वाद्य यंत्रो के सरक्षण की धुन का परिणाम है बस्तर बैंड. इस के जरिये वे हबीब साहब के काम को आगे बढ़ा रहे है. हबीब साहब ने अपनी प्रस्तुतियों में लोककलाओ का सार्थक उपयोग किया था उन्हें मंच दिया था. 
बस्तर बैंड आदिम कला को रंगमंच देता है उसको आधुनिक दर्शक समाज देता है. बस्तर बैंड से आगे बहुत उम्मीदे हैं. 

बस्तर  बैंड की प्रस्तुति पर एक दर्शकीय अनुभव. यह प्रस्तुति मैंने राष्ट्रमंडल के अंतर्गत हो रहे कला के उत्सव देशपर्व  में देखी.

रविवार, 3 अक्तूबर 2010

प्रेम और कर्तव्य में छुपा आर्तनाद


 यह आलेख  वाक् (वाणी प्रकाशन , सं- सुधीश पचौरी ) के नए अंक में प्रकाशित हुआ है. इसे अब ब्लॉग पर लगा रहा हूँ.
फ़्रास और बेल्जियम – 68   वीं सूची – मैदान में घावों से मरा – नं. 77 सिख राइफ़ल्स जमादार लहना सिंह
लहना सिंहइस घावों  भरे शरीर से  बाहर निकल कर एक मिथकीय चरित्र में तब्दील हो जाता है। हिन्दी साहित्य में उसकी उपस्थिति अब लगभग सौ सालों की होने को आ गयी है। इन सौ सालों में उसका शरीर अभी भी बेल्जियम के उसी मोर्चे पर पडा हुआ है और आत्मा हमारे जेहन में छाइ हुई है। इस पात्र की कहानी ‘उसने कहा था’ ने इसके कृतिकार को अप्रतिम ख्याति दीलवाई। इस एक कहानी से उन्होंने अपना नाम हिन्दी साहित्य के इतिहास में सुरक्षित करवा लिया। यद्यपि उन्होंने साहित्य की अन्य विधाओं को भी समृद्ध किया है।
  1915 ई. में ‘सरस्वती’  में ‘उसने कहा था’ का प्रकाशन इस समुचे काल खंड की अदभुत और चमत्कृत कर देने वाली घटना है। आज इतने वर्षों बाद भी इस कहानी की पठनीयता अक्षुण्ण और अप्रभावित रही है।[1] इसकी पाठनीयता के निरंतर प्रासंगिक बने रहने के कारण कहानी का बार बार पुनर्पाठ होता रहा है। प्रेम और कर्तव्य के अप्रतिम उदाहरण बन चुके इस कहानी की जिन  संदर्भों में अधिक चरचा होती रही है वह युं है-
·         प्रेम और कर्तव्य की बलिवेदी पर शहीद लहना सिंह का अद्भुत नायकत्व
·         हिन्दी कहानी के विकास के प्रारंभिक अवस्था में ही एक परिपक्व कहानी के रूप में इस कहानी का लिखा जाना ।
·         शिल्प के तौर पर पांच दृश्यों को एक साथ रख कर कहानी की रचना और इसके दृश्यात्मक प्रभाव  कि मानों सब कुछ आंखों के सामने घट रहा हो।
·         फ़्लैश बैक अथ्वा पूर्व दीप्ति का प्रभावी प्रयोग ।
इसमें प्रथम की चर्चा अत्यधिक हुई है। प्रेम  कहानी का कोइ भी जिक्र ‘उसने कहा था’ के बगैर पू्रा नहीं हो्ता।
इस एक लीक को पकडकर चलते रहने से कहानी के अन्य अर्थ दब गये हैं जो अपने समय के बहुत महत्त्वपूर्ण संदर्भों के साथ शाश्वत प्रश्नों को भी समेटे हुए हैं। इन संदर्भों और प्रश्नों के पडताल के लिये कहानी को बारबार तोडकर उसमें छिपे अर्थों को बाहर निकालना आवश्यक हो जाता है। कहानी का विखंडन करते हुए इसे इसकी सरंचना की जकड से मुक्त करने से हमें वे महत्त्वपूर्ण सूत्र मिल सकते है जिन्हें कहानीकार और कहानी की सरंचना ने दबा हुआ छोड दिया है।
  ‘उसने कहा था’ का विखंडन करते हुए हमें सबसे पहले उसके परपंरागत अर्थ से मुक्त होना पडेगा। इससे हम अपनी दृष्टि को एक खास दिशा में संचालित होने से रोक पायेंगे। विखंडन भी ‘है’ की सत्ता के अस्वीकार से ही शुरु होता है।[2] इस सत्ता को नकारने से ही हम अर्थ की  लीला को पकड पायेंगे।
 ‘उसने कहा था’ कहानी का प्रारम्भ बिलकुल सिनेमाई अंदाज में होता है। जैसे कैमरा भीड की चहल पहल को दीखाते हुए बाजार का दृश्य स्थापित करता है और फ़िर  लडके लडकी के मिड शाट और क्लोज अप पर  ले आता है। लांग शाट से क्लोज अप की  यह सिनेमायी तकनीक उस समय तक तो धुंधली ही थी। कहानी शुरु करते ही  वाचक हमें अमृतसर  के सलीके दार तांगे वालों की बीच से गुजारते हुए एक दुकान पर ले आता है। तांगे वालों के जिक्र में ही शहर का मिजाज, नफ़ासय और अन्य शहरों से उसके फ़र्क का पता चल जाता है। यहां के तांगे वाले ( जो अन्य शहरी की तुलना में लगभग असभ्य माने जाते होंगे) भी अपने सब्र का बांध टुटने पर भी सलीका नहीं छोडते और जबान की ‘मीठी छुरी’ चलाते हैं।
क्या मजाल है कि जी और साहब सुने बिना किसी को हटना पडे। यह बात नहीं कि उनकी जीभ चलती नहीं; चलती है, पर मीठी छूरी की तरह महीन मार करती है
इन्हीं तांगे वालों के बीच से निकल कर लडका और लडकी एक दुकान पर आ मिलतें हैं। जहां उनका परिचय होता है और प्रथम परिचय में ही लड्का पूछ बैठता है तेरी कुडमाई हो गयी लडके् की यह  साहस और बेबाकी लडकी को ‘धत’ कह कर भागने पर मजबुर कर दे्ती है। लडके लडकी का इस तरह बात करना उस समय के समाज में कुछ अजीब जरुर लगता है पर यह बातचीत अकारण नहीं है;
तुम्हें याद है, एक दिन तांगेवाले का गोडा दहीवाली की दुकान के पास बिगड गया था । तुमने उस दिन मेरे प्राण बचाये थे
प्राण रक्षा का यही भाव लडके से निर्भिकता से पूछवा देता है,तेरी कुडमाई हो गयेलडकी का यह ‘धत’ लडके की आस बंधा देता है। इस घटना के बाद भी दोनों लगातार मिलते रहते हैं, लडके ने यह प्रश्न मजाक में कई बार पूछा और लडकी ने हर बार ‘धत’ कहा और एक दिन उसने जब ‘हांकहा और ‘रेशम से कढा हुआ शालु’ दीखाया उस दिन लडकी की हालत दर्शनी य हो गयी;
रास्ते में एक लडके को मोरी में धकेल दिया, एक छाबडीवाले(खोमचे वाले) की दिन- भर की कमाई खोई, एक कुत्ते पर पत्थर मारा और एक गोभीवाली के ठेले में दुध  उडेल दिया। सामने से नहा कर आती हुइ किसी वैषणवी से टकराकर अन्धे की उपाधि पायी तब कहीं घर पहुंचा
लडके का यह विक्षिप्त व्यवहार उसकी हताशा का परिणाम है और उस अपराध बोध का भी जिसमें कभी वह लडकी से अपने बारे में नहीं पूछ पाया। उसे अंदाजा नहीं था कि यह सिलसिला इतने कम दिनों में ही  खतम हो जायेगा।
कथा के पहले खंड में प्रेम का अंकुरण और अंत हो जाता है। इस प्रेम का पता ना लडकी को लग पाता है ना लडके को। तभी तो लडका अपने व्यवहार का कारण नहीं समझ  पाता। यहां हम कहानी में लडके की मनोस्थिति को जान लेते हैं परंतु लडकी के मन की दशा क्या है यह नहीं जान पाते। क्या लडकी इस प्रेम से भिग्य है जिसके वशीभूत हो वो हर दूसरे तीसरे दिन टकरा जाते थे। क्या वह ये जान पाती है के उसके शालु को देख कर लडके के मन में क्या तुफ़ान  उठा है। वह उदास है या नया शालु मिल जाने की बाल सुलभ चपलता से उत्साहित। यह प्रश्न अनुतरित नहीं हैं कहानी में इसके उत्तर आगे मिल जाते हैं।
कहानी में दृश्य परिवर्तित हो जाता है, हम अमृतसर की गलियों से  सीधे फ़्रांस और बेल्जियम के मोर्चे पर पहुंच जाते हैं। कहानी के पहले खंड के रुमानी एहसास को लिये हुए हम बम -गोलियों की आवाज और बारुद की महक के बीच पहुंच जाते हैं। जहां विषम परिस्थितियों में कुछ सैनिक उस देश के लिये लड रहें हैं जिस देश ने उनके देश को गुलाम बनाया हुआ है। वो ऐसे युद्ध में अपना योगदान दिये हुए हैं जो आधुनिक मनुष्य के इतिहास का सबसे पहला भयानक युद्ध है और इससे उनका सीधे सीधे कोइ ताल्लुक नहीं। कहानी में इन सैनिकों की कोई ‘राष्ट्रवादी निष्ठा’ भी है इसका जिक्र नहीं है। ऐसे युद्ध में जि्सके कारको में राष्ट्रवाद प्रमुख है, ये सैनिक ‘परराष्ट्र’ के लिये लड रहें हैं किसी पेशेवर सैनिक की तरह  साम्राज्यवादी आकांक्षाओं की पुर्ती के  औजार  बने हुए।
कडाके की ठंड मे ये सैनिक जर्मनों के खिलाफ़ मोर्चा संभाले हुएं हैं।
 युद्ध ऐसा भयावह है;
घंटे दो घंटे में कान के पर्दे फ़ाडने वाले धमाके के साथ सारी खंदक हिल जाती है और सौ सौ गज धरती उछल पडती है। इस गैबी गोली से कोई बचे तो कोई लडे । नगरकोट का जलजला( भुकम्प), सुना था,यहां दिन में पचास जलजले होते हैं
 लहनासिंह, वजीरसिंह. सुबेदार हजारासिंह, और घायल बोधासिंह अन्य सैनिको के साथ इस खंदक में पडे हुए मोर्चे के खतम हो जाने का इंतजार कर रहें हैं। पंजाब से दूर गैर मुल्क के लिये लड रहे इन सैनिकों की छवि इस मुल्क के लिये मुक्तिदाता की है।
तुम राजा हो , मेरे मुल्क को बचाने आये हुए हो
बिना फ़ेरे घोडा बिगडता है और बिना लडे सिपाही सो सभी धावे के इंतजार में बैठे हैं। उनकी बहादूरी का पैमाना धर्म से भी आबद्ध है। सात जर्मनों को मारकर ना लौटूं तो मुझे दरबार साहब की देहली नसीब न हो।  अपने बातचीत से वे युद्ध के माहौल को भी जीवंत बनाये रखने की कोशिश करते हैं तो भिन्न देश के चाल चलन के साथ अपने व्यवहार से सामंजस्य बैठाने का प्रयास भी। देश- देस की चाल है । मैं आज तक उसे समझा न सका कि सिख तमाकु नहीं पीता। वह सिगरेट देने में हठ करती है, ओंठ से लगाना चाहती है और पीछे हटता हुं तो समझती है कि राजा बुरा मान गया, अब मेरे मुलुक के लिये नहीं लडेगा
सिपहियों के संवाद में लडने का उनका जोश, प्राणरक्षा का माद्दा, विषम  परिस्थितियों मे हौसला बनाये रखने के  लिये हंसी-गीत और परस्पर प्रेम का भान हो जाता है। विदेशी भूमी पर लडते हुए घर लौटने की इच्छा भी बलवती है। इसलिये ये लडाई  जल्दी से जल्दी खतम कर देना चाहते हैं। परदेश में तो इन्हें मरना भी गंवारा नहीं;
मेरा डर मत करो। मै तो बुलेल की खड्ड   के किनारे मरुंगा। भाई कीरत सिंह की गोद में मेरा सिर होगा और मेरे हाथ के लगाये हुए आम के पेड की छाया होगी
मेम के सीगरेट पीलाने का हठ, बोधा की तीमारदारी और आम का पेड कहानी में ऐसे सुत्र है जो इसका अर्थ खोलते भी हैं और कहानी को आगे बढाते हैं। कहानी के इस भाग से पहले भाग का कोइ लिंक नही बनता और हम यह जानने की कोशिश भी नहीं करते  कि हम अमृतसर के बाजार से यह कहां आ गये। हम नैरेटर के वर्णन में खोये इस उम्मीद में रहतें हैं कि इनमें शायद वह लडका भी हो।
‘उसने कहा था’ का धर्मवीर भारती द्वारा किया गया नाट्य रूपांतर रंग- प्रसंग 35 में प्रकाशित हुआ है। यह रूपांतरण भी एक व्याख्या ही है। इसमें भारती ने एक  उदघोषकीय प्रस्तावना के साथ कहानी के इसी खंड को पहला दॄश्य बनाया है और इसके अगले वाले दृश्य में पहले खंड को लहना की स्मृति में घटित होते दीखाया है। लेकिन  वाचक  किसी अबुझ पहेली  की  तरह उस घटना को छोडकर फ़िर युद्ध के मैदान में ही रह जता है।
 लड्के औए लडकी का क्या हुआ यह प्रश्न हमारे मन में दबा रहा जाता है और हम दृश्य में आगे बढते हैं।
 आगे दृश्य में घायल बोधा सिंह और दुशमन पर नजर डाले हुए लहना सिंह पहरे पर है। घायल बोधा सिंह को वह जबरदस्ती अपनी जरसी पहना देता है। यहां पर  एक प्रश्न उठता है कि आखिर क्यों लहनासिंह अपनी परवाह न करते हुए बोधा सिंह की रक्षा करता है। बोधा को उसने जबरद्स्ती जरसी पहना दी और आप खाकी कोट और जीन का कुर्ता भर पहन कर पहरे पर आ खडा हुआ। मेम की जरसी की कथा केवल कथा थी
  लहनासिंह की टुकडी पर हमला होता है जिसे लहनासिंह अपनी बहादूरी और प्रतिव्युतपन्नमतित्व (जिसे हम आज ‘आइ.क्यु’. के नाम से जानते हैं) से हमले को विफ़ल कर अपने साथियों की जान बचाता है। सिखों की बेवकुफ़ियों से भरे चुटकुलों के दौर में एक सरदार की बुद्धिमता का यह  उल्लेख जरूरी  है जो लगभग मिथ  की तरह बनती  जा रही  सामाजिक सोच का निषेध करता है। लहनासिंह केवल  मोर्चे पर नकली वेश में आये जर्मन फ़ौजी की ही नहीं अपने गांव में आये जासुस की भी पोल खोल चुका है। माझे के लहना को चकमा देने के लिए चार आंखे चाहिये। लहनासिंह अपने कर्तव्य को युद्ध के मोर्चे पर ही नहीं समाज में भी सक्रिय रखता है। उसके सरोकार गहरे तौर पर अपने समाज से जुडे हुए हैं। अपनी जमीन के प्रति  इस जुडाव के कारण ही लहना मौत की एक रुमानी कल्पना करने में सक्षम है। आम के पेड यहां एक ऐसे समाज का प्रतीक बन जाता है जिसे उसने अपने लहु से सिंचित किया है पर उसकी छाया उसे नसीब नहीं होती।
जर्मन लपटन साहब का अपनी हेनरी मार्टिनी से क्रिया कर्म लहना कर तो देता है पर उसकी गोली से अपने जांघ को नहीं बचा पाता। लपटन साहब के पीछे आयी जर्मन की फ़ौज दो तरफ़ा हमले में घिर जाती है। पीछे से सूबेदार हजारा सिंह के जवान आग बरसाते थे और सामने लहना सिंह के साथियों के संगीन चल रहे थे। युद्ध का यह वर्णन इतना सजीव है मानो वाचक युद्ध के मैदान से रीपोर्टिंग कर रहा है और सब कुछ हमारे आंखो के सामने आ जाता है। मिड शाट में परिवेश ही नहीं दर्द और पीडा भी वाचक क्लोज अप्स के जरिये हमें दीखा देता है। पन्द्रह सिख और तीरसठ जरमनों के  प्राण लेकर यह लडाई थमती है। दो विपरीत कौम जिनकी आपस में कोई शत्रुता नहीं, जिनकी जमीनें भी एक दूसरे से सात समंदर की दूरी पर है, एक दूसरे को संगीन की नोंक पर ले रहें हैं। अगर ये युद्ध के मोर्चे पर ना मिल कर कहीं और मिले होते तो क्या एक दूसरे को देखकर दुआ सलाम करते या बिना देखे आगे बढ जाते। युद्ध ने अनजाने में ही उन्हें अपरिचितों का प्राणहंता अकारण बना दिया है। मनुष्य को मनुष्य के खिलाफ़ खडा कर दिया है। आधुनिकता की वस्तुपरकता भी युद्ध का कोइ विकल्प नहीं प्रस्तुत कर सकी और उतर आधुनिकता के अंतवाद में भी युद्ध के अंत की कोइ घोषणा नहीं है।  युद्ध के इस अमानवीयता का दबा उल्लेख हम इस कहानी में आसानी से पा सकते हैं।
बहरहाल, लहनासिंह पसली में लगी एक गोली पर मिट्टी का लेप चढाकर अपना उपचार कर लेता है लेकिन किसी को खबर नहीं लगती कि उसे ‘दूसरा भारी घाव’ लगा है। युद्ध का वर्णन करते करते वाचक प्रकृति का  वर्णन  करने लगता है। अंतर्पाठीयता का यह समावेश युध से घायल हमारे कोमल मन की विश्रांति के लिये हो सकता है या मौत के समय की नीरव स्तब्धता के वर्णन के लिये। लडाइ के समय चांद निकल आया था। ऐसा चांद जिसके प्रकाश से संस्कृत कवियों का दिया हुआ क्षयी नाम सार्थक होता है। और हवा ऐसी चल रही थी जैसी की बाणभट्ट की भाषा में ‘दन्तीवी्णोपदेशाचार्य’ कहलाती
 लडाई के बाद राहत उपचार का कार्य शुरु होता है। सूबेदार लहना को गाडी पर जाने के  लिये सूबेदारनी और बोधा की कसम देता है पर लहना सिंह नही जाता  और सूबेदार को भेज देता है। जिसकी  कसम की रक्षा के लिये उसने इतना उपक्रम किया,  उसी की कसम उसको दी जाती है। इस समय लहना की क्या स्थिति है इसका वर्णन लिखित रूप मे नहीं है। लहना कहता है; सुनिये तो सुबेदारनी होरां को चिट्ठी लिखो तो मेरा मत्था टेकना लिख देना और जब घर जाओ तो कह देना कि मुझसे जो उन्होंने कहा था, वह मैंने कर दिया।  लहना ने किस तरह अपनी समुची पीडा को एकत्रित कर उसको जज्ब कर के यह बात कही होगी इसका वर्णन  निश्चित ही लिखित में नहीं हो सकता।  सूबेदार के लाख पूछने की बाद भी सूबेदारनी ने क्या कहा था, लहना नहीं बताता। पाठकीय उत्सुकता चरम पर है। यह अंत से पहले का क्लाइमेक्स है। शीर्षक का रहस्य अब खुलने लगता है। मृत्यु का समय समीप है और लहनासिंह को सारी बातें याद आ रही हैं; अमृतसर, लडकी, कुडमाइ, धत, रेशम का शालु उसका विक्षिप्त व्यवहार और क्रोध। लेकिन क्रोध का कारण अब भी उसे पता नहीं चल पाता।
77 राइफ़ल्स में जमादार लहनासिंह लाम पर जाते वक्त सूबेदार के गांव जाता है। सूबेदारनी जहां उसे बुलवाती है, ये वहीं ‘रेशमी बुटों वाली शालु पहने लडकी’ का बदला हुआ रूप है। एक साधारण स्त्री की तरह अपने पति और पुत्र की चिंता में ग्रस्त उनकी रक्षा का वचन वह लहनासिंह से लेती है। ये वचन वह लहनासिंह से ही ले सकती है। यहां पता लगता है कि प्रीति का जो भाव लहनासिंह के मन में पनपा था वो सूबेदारनी के मन में भी था इसीलिये वह लहनासिह से अपनी पीडा को साझा करती है। जाहिर है उसने सूबेदार को बस यहीं बताया है कि वह लहना को जानती भर है।
प्रथम विश्वयुद्ध के  समय भारत में ब्रिटिश शासन  ने फ़ौज भरती का अभियान चलाया था, पंजाब इससे सबसे ज्यादा प्रभावित था।
हजारों भारतीयों को नितांत अपरिचित भूमि पर मरने के लिये भेज दिया जाता था।….सिद्धांत रूप में तो सैनिक भर्ती स्वैच्छिक थी, किंतु व्यवहार में यह लगभग जोर जबरदस्ती का रूप धारण कर लेती थी। पंजाब में 1919 के उपद्रवों के पश्चात कांग्रेस द्वारा की गयी जांच –पडताल से ग्यात होता है कि वहां के ले. गवर्नर माइकेल ओ डायर के शासनकाल में लंबरदारों के माध्यम से जवानों की भरती होने के लिये बाध्य किया जाता था[3]
 अर्थात कि युद्द में जबरदस्ती भरती और फ़िर लाम पर भेजना । लाम पर भेजने का मतलब मौत। भारत के सामाजिक जीवन में एक स्त्री का जीवन  क्या होगा जिसका एक मात्र पुत्र और पति मरने के लिये चला जाये इसकी कल्पना सहज संभव है। सूबेदारनी आंतकित है तभी उसे एक आशा की किरण लहना सिंह के रूप में दीखायी देता है और उससे वह मांग बैठती है;
तुम्हे याद है, एक दिन तांगे वाले का घोडा दहीवाले के दुकान के पास बिगड गया था। तुमने उस दिन मेरे प्राण बचाये थे। आप घोडों की लातों में चले गये थे। और मुझे उठाकर दुकान के तख्ते पर खडा कर दिया था। ऐसे ही इन दोनों को बचाना। यह मेरी भिक्षा है। तुम्हारे आगे मैं आंचल पसारती हूं
कैशौर्य का यह प्रतिदान देने में लहना कैसे चुकता । वह सूबेदार और बोधासिंह के प्राण रक्षा तो कर देता है लेकिन अपने वतन से दूर वीर गति को प्राप्त होआ है जहां ना बुलेल की खड्ड है, ना कीरत सिंह की गोद और ना ही आम का पेड। वजीरा सिंह को उसके आसुंओ के साथ छोडकर लहना सिंह अपनी और अपने जीवन की कहानी समाप्त करता है। प्रेम और कर्तव्य  की बलिवेदी पर शहीद लहना सिंह अपनी महानता से ऊपर उठ जाता है। लेकिन कुछ प्रश्न  छोड जाता है
  • उसके जाने के बाद उसकी पत्नी और पुत्र का क्या होगा।
  • सूबेदारनी अपने पूत्र और पति को वापस आने का रहस्य सूबेदार को बतायेगी?
  • उन परिवारों का क्या होता है जिनके शहीदों की कहानियों में उनकी कहानियां दफ़न हो जाती है।
  • क्या लहना सिंह सिर्फ़ अपने प्रेम और कर्तव्य के लिये शहीद हुआ है या एक परिवार को बचाने की भावना भी उसके मन में है।

बहरहाल. विखंडन में इस कहानी को तोडने से इसका क्रम कुछ ऐसे बनता है;  
अमृतसर, लडका- लडकी, उनका मिलना, कुडमाई का जिक्र, धत,रेशम का शालु, लडके का विक्षिप्त व्यवहार,
लडाई का मोर्चा, बोधा सिंह की प्राण रक्षा, जरमन हमले को विफ़ल करना,लहना सिंह का घायल होना, सूबेदार को बोधा के साथ वापस भेजना,
सूबेदार का गांव, सूबेदारनी को वचन, वजीरा सिंह के गोद में मत्यु, मृत सैनिको की सूची में लहना सिंह का नाम
 इस क्रम के अध्ययन से जो बात उभरती है वो यह है कि अमृतसर का एक मासुम लड्का फ़्रांस और बेल्जियम के मोर्चे पर शहीद हो जाता है। वो कौन सी परिस्थितियां हैं जिसमें उसकी मत्यु होती है, लडाई और सूबेदारनी के वचन के कारण ?  
कहानी के व्यंजकों- व्यंजितों के सोपान क्रम के अध्य्यन से अर्थ थोडा और खुल सकता है;
अमृतसर, सूबेदार का गांव, फ़्रांस और बेल्जियम का मोर्चा
लडका- लडकी, लहनासिंह, वजीरासिंह, सूबेदार हजारा सिंह, बोधा सिंह, सूबेदारनी, जर्मन अफ़सर
तांगा , कुडमाई, रेशम का सालु, आम का पेड, सूबेदारनी की कसम, बम-संगीन, लडाई, शहीदोंकी सूची में नाम
इन सोपानों के क्रम उलट देने से शहीदों की सूची में नाम, जर्मन अफ़सर और लडाइ का मोर्चा केंद्र में आ जाता है। साफ़ है कि सिर्फ़ प्रेम और कर्तव्य नहीं बल्कि शहीदोंकी सूची में लहना का नाम, जर्मन अफ़सर और लडाई उस मासूम लडके की शहादत के जिम्मेवार हैं 
  युद्ध की अमानवीयता का विरोध अब कहानी के मुख्य अर्थ के समानांतर उभरने लगता है जो प्रेम और कर्तव्य की उदात्त भावनाओं के आगे दबा हुआ रह गया है। इसका एक ट्रेश सूबेदारनी के संवाद में है;
सरकार ने हम तीमियों की घघरिया पलटन क्यों ना बना दी जो मैं भी सूबेदार जी के साथ साथ चली जाती
इस संवाद को कहानी की सरंचना से अलग करके  देखने पर इसका अलग अर्थ संदर्भ खुलता है जो मूल संदर्भ से अलग है थोडा। हर युद्ध के बाद  स्त्रियां ही बच जाती हैं रोने के लिये।
 इतिहास में इसके अनगिनत प्रमाण हैं। इस बार लहनासिंह की स्त्री छूट गयी हैं और उसके साथ अन्य स्त्रियां भी।  मनुष्यता के इतिहास में नारियों का यह अरण्य  रोदन सुनने वाला कोइ नहीं। युद्ध का ज्वलंत प्रश्न आज भी अनुत्तरित है। ‘भारती’ के रूपांतरण में युद्ध विरोध ही मुख्य स्वर बन गया है।
यह कहानी मानव हृदय की सनसे पुरानी और सबसे नवीन कहानी है जो सृष्टि के आदि में उलझ गयी थी और आज तक उलझी । यह कहानी युद्ध के लथपथ मैदानों में, लाशों से पटी हुई खाईयों में, खुंखार श्मशानों में भी सहानुभूति, त्याग और करूणा की पवित्र रागिनी की तरह भट्कता रहता है। वह प्रेम जो हिंसा और हत्या के पैशाचिक नग्न नृत्य में भी मनुष्य  को पशु होने से रोक लेता है और मानवता की उसमें आत्मविश्वास की भावना जगाये रखती है[4]
युद्ध तो फ़्रांस और बेल्जियम की सीमा  से अमृतसर के लहनासिंह को बुलाकर उसे लाशों की 68वीं सूची का महज एक नाम बना कर छोड देता है। युद्ध इसी तरह हमारे घरों में प्रवेश करता है। ना जाने कितने लहना युद्ध के इस आग में झोंके जा रहें हैं आज भी और हम प्रेम और कर्तव्य की आड लेकर उसमें अपने आप को छिपा रहें हैं। 



[1] मधुरेश, हिन्दी कहानी का विकाश, सुमित प्रकाशन, दिल्ली, 2001 पृ.17

[2]  De construction begins, as it were,from a refusal of the authority or determining power of every ‘is’, or simply ferom a refusal of authority in genral.
Niall Lucy, A Derridaa Dictionary, Blackwell Publishing,2004,p.11

[3] सुमित सरकार, आधुनिक भारत(1885-1947), राजकमल प्रकाशन ,09, अनु. सुशीला डोभाल
[4] रंग प्रसंग अंक 35, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नईदिल्ली
5. उसने कहा था कहानी का पाठ नया ग्यानोदय के प्रेम महाविशेषांक जुलाई 09 से लिया गया है।