मैं तो बस युं ही पहुंच गया था मुआयना करने के लिहाज़ से कि क्या चीज है यह. जाते ही दानिश भाई ने पूछा क्या पढोगे, मंने कहा कि मैं तो बस देखने आया हूं. बस देखने आये हो, नथिंगएल्स ? मैं चुप रहा और सोचता रहा. मैं कुछ सोच के ही नहीं गया था. इसलिये सोचने लगा कि यदि पढुंगा तो क्या पढुंगा ? हिम्मत भी बांध रहा था. बगल में बैठा नितिन अपनी तैयारी बताये जा रहा था और सुझाव मांग रहा था कि वो क्या पढ़े ? अपनी नर्वसनेस के बारे में बता रहा था और मैं खुद तय नहीं कर पा रहा था कुछ भी. लोग तैयार हो के आये थे. बहुत से लोगो के हाथ में कागज था. एक सज्जन को मैंने खुद कागज़ उपलब्ध कराया जिसपे वे कुछ लिखने लगे. कार्यक्रम शुरु हुआ दानिश भाई ने नियमों के बारे में इत्तिला दी और फ़िर पूछा कि कोई और इस बोर्ड पे अपना नाम लिखना चाहता है ? बोर्ड पे खुद जा के अपने पसंद के क्रम के आगे अपना नाम लिखना था. एक लड़का उठा, मैं भी उठा और अपना नाम इक्कीसवें नं. पे लिख दिया. क्रम के पहले और दुसरे वीर अपना नाम लिख के गायब हो गये थे. तीसरे से शुरु हुआ..
बकायदा शुरुआत ‘खालिद जावेद (उर्दु उपनाय्सकार) के उप्न्यास अंश के वाचन से हुई. इसके बाद सिलसिला चला, एक एक कर के लोग अपनी, कवितायें, कहानियां, नज़्म, गीत, अभिनय अंश सुनाते और दिखाते गये. लोग उनका उत्साह बढाते गये.
मैंने जो देखा वह यह कि इनमें से अधिकांश लोग वो हैं जो एकांत के रचनाकार हैं. वो अपना लिखा या तैयार किया दूसरों को दिखा नहीं पाते. इसकी वज़ह संकोच भी होता है और मौका ना मिलना भी. लेकिन ‘कैफ़ेराटि’ एक ऐसा मंच है जहां माईक दो मिनट के लिये आपका है. इसमें आप कुछ भी पढ़ सकते हैं, दिखा सकते हैं बशर्ते वह आपका हो. बकौल दानिश ‘इसमें आप फ़ैज़, गालीब और दिनकर को नहीं पढ़ सकते. एक तरह से यह अवसर है अपने को आंकने का आया अपने को दूसरों तक पहुंचाने का और उनकी प्रतिक्रिया जानने का. इससे झिझक भी टुटेगी और सुधार भी होगा.
परफ़ार्मर्स में गंभीर लोग भी थे और नये नवेले लोग भी. अनुभवी लोग पूरे आत्मविश्वास के साथ अपने को पेश कर रहे थे तो नये लोगों की घबड़ाहट भी झलक रही थी. प्रकाश क इंतज़ाम ऐसा था कि परफ़ार्मर दर्शक को ठीक से ना देख पाये इससे उसकी घबड़ाहट थॊडी कम हो सकती थी (जैसा कि मेरे साथ हुआ). भाषा, फ़ार्म और कथ्य के आधार पर भी काफ़ी विविधता थी. किसी ने माओवादी अंदोलन को अपना विषय बनाय किसी ने मां को. किसी ने हिजड़े के जीवन पे छोटा सा अभिनय किया तो किसी ने गाना गाया. किसी ने बताया कि नये स्कूल में उसका अनुभव कैसा था तो किसी ने यह बताया कि स्कूल के पुराने दिन कैसे थे. एक कुत्ते की मौत से लेकर न्युक्लियर डील तक पे बात हुई. वफ़ा के नज़्म के साथ साथ छोटी छोटी प्रेम कथा भी पढ़ी गई.
इस शाम तो केवल हिन्दी,उर्दु और अंग्रेजी थी लेकिन उम्मीद जताई गई कि अगले संस्करणों में अन्य भाषा भाषी जुड़ेंगे तो अनुभव और अच्छा होगा. मेरा तो मानना है कि यह अच्छा मौका है उन लोगों के लिये जिन्हें मंच या श्रोता नहीं मिलता. आप हर महिने की आखिरी शुक्रवार को सात बजे हैबिटेट सेंटर में आयें और अपना हुनर दिखायें.
अंत में अपनी बात, आखिर डरते डरते मैंने भी माईक पकड़ ही लिया और तीन लघु प्रेम कथा(micro love story) पढ़ दी. और जो मुझे याद रह गई लाइन वो यह कि
वहां भी होता है शोक जहां नहीं जलती है मोमबत्तियां
वहां भी होता है शुन्य, जहां नहीं पहुंचते हैं मीडिया के कैमरे (नोमान शौक).
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