बुधवार, 7 जनवरी 2009

एक अदद प्रेमिका की तलाश

दिल-ए नादां तुझे हुआ क्या है
आखिर इस दर्द की दवा क्या है
गालिब का यह वो मशहूर शेर है जिसकी सुगबुगाहट हर व्यक्ती अपने अन्दर तब महसुस करता है जब उसे इश्क की हवा लगती है... और ये हवा हर किसी को कभी न कभी लगती ही है। पर मेरे लिये यह हवा अगल बगल आगे पिछॆ उपर नीचे से गुजरती रही है और जब तक मै महसुस करता तब तक सर्र..... ।
आप क्या समझते हैं मैने ये शीर्षक चौकाने के लिये रखा है? बिलकुल नही, आप इस शीर्षक को ध्यान से पढ ले तो पुरी व्यथा कथा उजागर हो जाएगी। दिलचस्प बात तो ये है कि मेरी ये कथा उन लोगो कि कथा से भी साम्यता रखती है जिनके लिये यह इश्क ,प्रेम, मोहब्बत, जो भी कह ले ' दिल को खुश रखने का ख्याल ही' साबित हो रहा है। वो इस लू से बचकर हीनग्रंथि का शिकार नही हो रहे वरन सागर की तरह धैर्य धारण किये हुए है कि नदी कभी न कभी आकर तो मिलेगी ही [ अपने पुरुषार्थ से नही तो विवाह के बाद ]। जी हाँ विवाह एक ऐसा बाजार है जहा मैने कई खोटे सिक्के चलते देखे है। इसिलिये हमे [ इस हम मे मै और इश्क रहीत सभी लोग सम्मीलित है ] निराश होने की जरुरत नही है,जरुरत है कोशिश करते रहने की [विवाह तक] क्योन्की कोशिशे ही कामयाब होती है। खैर मै अपने प्रेमविहीन और प्रेमिकाविहीन होने की चर्चा कर रहा था । ऐसा नही है कि मैने किसी से प्रेम नही किया या मुझ से किसी ने प्रेम नही किया, फिर समस्या क्या है? समस्या यह है की यूँ कहे : 'किसी से दिल नही मिलता कोइ दिल से नही मिलता'।
मेरा जो 'केस' है वो अजीब है अक्सर यही होता है कि मै 'मुख्य अभीनेत्री' के पिछॆ होता हूँ और मेरे पिछे 'सहायक अभिनेत्री'। इन हालातो मे मुझे कई बार बीच का ही नही किनारे का रास्ता अख्तियार करना पडा है। कई बार तो वैम्प से भी पिछा छुडाना पडा है। कैसे ये मत पुछीये [प्राईवेसी का प्रश्न है और सुचना का अधिकार उतना कारगर नही,....]। एक बार तो ऐसा हुआ जब जबरन दो ए़क्स्ट्राओ ने मुझसे प्रेम का स्वीकार कराना चाहा, उस समय मैं उस उम्र मे था जो प्रेम करने की कतई नही थी [ मेरे ख्याल से ] उस दिन मुझे पता चला था दिन मे तारे दिखना किसको कहते हैं। घटनाक्रम उस विद्यालय के प्रान्गन मे हो रहा था जीसमे मेरे पिताजी शिक्षक थे ।उस दिन मै वहा से कैसे भागा ये मै ही जानता हूँ। एक बार मैने बहुत साहस करके 'तीन शब्द' कहने की हिम्मत की थी , परन्तु यहाँ अपने ही 'विलेन' निकले और मुझे 'रन्ग्मन्च 'से हटा दिया। दोबारा जब मैं मन्च पर पन्हुचा तो उसका सीन समाप्त हो चुका था।
कई बार क्या होता है, आप कुछ लिखने बैठे लेकिन बीच मे छॊड दे तो लय टुट जाती है.लय टूट जाए तो बात नही बन पाती खैर मै अपनी लय पाने की कोशिश करता हूँ। बहरहाल बात हो रही थी प्रेम की.......मेरे विचार मे प्रेम होने की सम्भावना सबसे अधिक शैक्षिक सन्स्थानो मे होती है। मेरा दुर्भाग्य ये है की विद्यालय ,महाविद्यालय,विश्व्विद्यालय तीनो इस लीहाज से मेरे लिये अप्रासन्गीक है। जबकी तीनो जगह सह शिक्षा थी और आलम्बन योग्य पत्रो की कमी नही थी। आप पुछ सकते हैं फिर वजह क्या थी? बहुत विश्लेशन के बाद जो वजहें मैने खोजी है उनमे मुख्य है, दिमाग का अधिक चलना।ये तो सबको पता ही है आकर्षण प्रेम की पहली सीढी है। पर जब भी मेरा दिल किसी की तरफ़ बढा...मेरे दिमाग ने तुरत उसकी लगाम थाम ली और प्रेम दिमाग से तो किया नही जा सकता ... इसलिए मै ये सुझाव दे सकता हूँ की हे प्रेम पथिको प्रेम मे दिल कि सुनो...[ ये सुझाव पुरुषॊ के लिये है, महिलाओ को ये सुझाव दिया जाता है कि किसी प्रस्ताव को स्वीकार करने से पहले दिमाग का सहारा अवश्य ले ]।
अगली वजह है मेरा सन्कोची स्वभाव जो अक्सर मुझे 'क्या करे क्या ना करे ' की स्थिति मे डाल देता है। एक और वजह है साहस की कमी ...लेकिन यहा मै उन लडकियो को दोषी ठ्हरा सकता हूँ जिनके साथ परस्पर आकर्षण था उन्होने हिम्मत क्यो नही दिखाई। खैर ....वजह तो अनगिनत गिनाई जा सकती है। दुसरो के अनुभव सुनते सुनते और उपन्यासो का यथार्थ पढते पढ्ते मेरे लिये प्रेम ऐसी चीज नही रह गया जो रक्त के प्रवाह को तेज कर दे...वैसे आकर्षण अब भी है। मैने अपने लिये प्रेम का जो स्वरुप निर्धारीत किया है, उस मापदन्ड मे प्रेम होना असम्भव सोचा करता था प्रेम सम्ब्न्धी कुछ उलझने दुर हो जाए तो प्रेम किया जा सकता है। उलझने -जैसे प्रेम क्या है? यह स्वीकार है या समर्पण ? ये कैसे पता चले की प्रेम हो गया है ? क्या प्रेम को व्यक्त करना अनिवार्य है? इत्यादि ... अब मुझे पता है कि ये उल्झने दुर होने वाली नही हैं। ये प्रश्न प्रेम के साथ जुड़े शाश्वत प्रश्न है जिनका ठीक ठाक उत्तर नही हो सकता। तब मै सोचता हूँ की जैसे तैसे एक प्रेम कर लिया जाए...किसी के सामने प्रेम का इजहार कर दो ...फ़िर जो हो वो देखा जाए। पर सोचने और करने कितना मे कितना फ़र्क है -ये आप जानते ही है। लेकिन इस फ़र्क को पाट्ने की कोशिश करते हुए मैने एक साथ अलग अलग सम्भावनाए तलासी पर उहापोह, मोह्भन्ग, अनुत्साह इत्यादि मेरे स्वभाव के पक्षों ने 'हिट ऎण्ड रन ' की यह युक्ति भी अपनाने ना दी और वही स्थिति पैदा हो गइ जिसे कहते है 'ना खुदा ही मिला ना मिसाले सनम' ।
ऊपर की जो तमाम बाते है वो अन्तहीन बकवासो का सिल्सिला है।इस रोचक विषय पर विमर्श करते मैने राते गुजारी हैं । इस चर्चा के दौरान मुझे एक किस्सा य़ाद आ रहा है कि एक बार एक युवक ने 'ओशो' से आकर कहा कि मुझे प्रेम हो गया है...फ़िर उसने अपनी उलझने बताइ .....उसकी बातो को सुनने के बाद ओशो ने उससे पुछा कि क्या तुम्हे सचमुच प्रेम हो गया है?उस युवक का विश्वाश हिल गया जो प्रेम के बडॆ दावे के साथ आया था, वह विचार के लिये कुछ समय मांग के चला गया।कुछ दिनो के बाद उसने लौट कर ओशो से कहा कि मुझे छ्मा किजियेगा, मै गलत था' । कहने का तातपर्य यह है कि कभी कभी प्रेम का होना भी प्रेम का ना होना है। ओशो ने अपने एक प्रवचन मे कहा है कि प्रेम विराट है वो जब हो जाए तो पता अवश्य चलता है, और उसका प्रभाव इतना व्यापक है कि जिससे हो उसे भी पता चल जायेगा।ओशो जी आपके इस प्रवचन ने मुझे काफ़ी हिम्मत दी है।
धरती पर प्रत्येक मनुष्य अद्वितीय होता है। इस लिहाज से मै भी हूँ। मैने अब तक प्रेमिका ना मिल पाने के 'इश्वरीय निहितार्थ' तलाश लिये है। पहला यह कि अवश्य ही मेरा अवतार धरती पर किसी श्रेष्ठ कार्य के लिये हुआ है, इसलिये भगवान भी नही चाहते कि मै इस चक्कर मे पडु। तभी तो कई बार प्रेम होते होते रह गया ।
दुसरा यह कि अवश्य ही कही ना कही कोइ है जो सिर्फ़ मेरे लिये है ...या तो वो अब तक दिखी नही या दिखने के बाद भी नजर नही आ रही। खैर मेरे मित्र इन निहितार्थो मे हताशा धुन्द्ते हैं। [उन्हे क्या मालुम की दिल को दिलाशा देने वाले ये शशक्त तर्क है।]
लेखन के पिछॆ कोई ना कोई उद्देश्य अवश्य रहता है, ये सभी जानते है। इससे पहले की आलोचक कोई और मतलब तलाशे, मै खुद ही स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि यह सब लिख कर मैने एक सम्भावना जगाने कि कोशीश की है जिससे मेरी तलाश शीघ्र समाप्त हो .... अतः इसे विग्यापन भी समझा जा सकता है। जब तक यह तलाश समाप्त नही होती तब तक तो सब्र का फ़ल मीठा होता ही है [वैसे मीठा हो या कड्वा सब्र के सिवा रास्ता क्या है? और फ़ल मिल जाए इतना क्या कम है। इति शुभम.