बुधवार, 16 मार्च 2011

एक स्मरणीय सुबह


कभी कभी कोई दिन आपकी जिंदगी में ऐसा होता है जिसे आप संजो लेना चाहते हैं. आप उन्हें याद कर के खुश हो सकते हैं, गर्व कर सकते हैं, उनकी कहानियां बना सकते हैं आदि आदि. वह दिन भी कुछ ऐसा ही था. इंडिया इंटरनेशनल सेंटर की वह सुबह अब स्मृति का जीवंत हिस्सा है.
वहां पहुंचने का सबब यह था कि एम.. उत्तरार्ध (हिन्दी) के आधुनिक साहित्य विकल्प के विद्यार्थियों की कक्षा वहीं लगने वाली थी. यहां यह बात रेखांकित कर दिया जाये कि आधुनिक साहित्य का मतलब विश्व साहित्य से है जिसमें हिन्दी के साथ साथ अन्य भारतीय़ भाषाओं और विश्व के अन्य भाषाओं की कृतियां और प्रवृतियां भी शामिल हैं. जिन्हें लगता है कि हिन्दी विभाग जड़ होता जा रहा है इस तथ्य को नोट कर लें.
वहां प्रसिद्ध कन्नड लेखक और समकालीन लेखकों में से एक यू.आर. अन्नतमूर्ति के साथ छात्रों की वार्ता थी. मैं वहां पहूंचा तो एक विद्यार्थी प्रश्न पूछ रहा था. हिन्दी का छात्र आत्मविश्वास के साथ अंग्रेजी बोल रहा था (बेशक लटपटाते हुए). मुझे अच्छा लगा, जब एक अंग्रेजी भाषी या गैर हिन्दी भाषी हिन्दी बोलने की कोशिश करता है तब हम ऐसा मानते है कि हिन्दी पर उपकार कर रहा है ऐसा ही उपकार हिन्दी भाषी क्यों नहीं कर सकता. वैसे अनन्तमूर्ति ने कहा कि वे संस्कृतनिष्ठ हिन्दी समझ लेते हैं. बहुत से सवाल जो हिन्दी में हुए उनको समझने में उन्हें कोइ दिक्कत नहीं हुई. और बहुत से सवालों को समझाने में अपूर्वानन्द सर ने मदद की.
बहरहाल, छात्रों ने प्रश्न अच्छी संख्या में पूछा. अनन्तमूर्ति ने सबका धैर्यपूर्वक जवाब दिया. अधिकतर प्रश्न संस्कार से संबंधित थे. गौरतलब है कि संस्कार उनका सबसे प्रसिद्ध उपन्यास है जिसमें उन्होंने ब्राह्मण व्यवस्था की अंदरूनी समस्याओं, ब्राह्मण्वाद, दमित कामवृति जैसे संवेदनशील विषयों को समेटा है.
अनन्तमूर्ति ने कहा कि उन्होंने इस उपन्यास को एक कविता की तरह विकसित किया जिसमें यथार्थ  भी था और कल्पना भी. इसके मिश्रण से उन्होंने एक रूपक रचा जिसको बहुत से लोगों ने यथार्थ ही समझा. इस उपन्यास के बाद उनके अग्रहार की महिलाओं ने उनसे कहा कि तुम फ़िर यहां आ गये हो हमारे विरोध में लिखने के लिये ? इस उपन्यास पर बहुत से आरोप भी लगे थे और विरोध भी हुआ था.
अन्नतमूर्ति ने बताया कि उन्होंने ब्राह्मण रीति-रिवाजों को बहुत गौर से समझा था, उनकी ब्राह्मण पृष्ठभूमि इसमें मददगार हुई. ब्राह्मण रिवाजों में श्राद्ध एक बहुत महत्त्वपूर्ण कर्म है जिसे संस्कार भी कहा जाता है. इस श्राद्ध के कर्मों के बारे में उन्होंने विस्तार से बताया कि कैसे शरीर, पंचभूत में फ़िर प्रेत में और फ़िर पितर में बदल जाता है. और इस कर्म के द्वारा आत्मा की यात्रा शुरु होती है.
 एक सवाल जो उपन्यास के अधूरेपन पर था उसके बारे में उन्होंने बताया कि यथार्थवादी लेखक ऐसा आभास कराता है कि वह  सबकुछ जानता है और इसलिये उपन्यास में वह सबकुछ बता देना चाहता है. लेकिन वे ऐसा नहीं करना चाहते थे. उन्होंने जान बूझ कर कई चीजों को पाठकों के लिये छोड़ दिया क्योंकि उनके अनुसार एक लेखक को कभी यह नहीं दिखाना चाहिये कि वह सब कुछ जानता है. वे भ्रम को बनाये रखना चाहते थे. तात्पर्य यह कि उपन्यास में कुछ ऐसा हो जिसमें से पाठक अपना पाठ निकाल सके.
उन्होंने बताया कि गोरा उनके प्रिय उपन्यासों में से एक है. और यह उपन्यास, अन्य उपन्यासों की तुलना में बहुत सशक्त तरिके से हिन्दू धर्म के पक्ष में मत स्थापित करता है. यह आज के सस्ते हिन्दुवाद से बिलकुल अलग है.
भाषा के बारे में उन्होंने कहा कि एक शिक्षित आदमी की तुलना में एक अशिक्षित आदमी अधिक शीघ्रता से भाषा सीखता है. उसकी भाषा भी उनसे आधिक समृद्ध होती है. आप जितना अधिक शिक्षित होते हैं उतनी ही कम भाषा आपके पास होती है. यहां यह भी ध्यान कर लीजिये कि अनन्तमुर्ति लोहिया के करीबी थे और भाषा के बारे में उनके बहुत से विचार उनके संसर्ग में निर्मित हुए. उन्होंने बताया कि भाषा तीन प्रकार की है. गृहभाषा( home languaage) जैसे-मैथिली, भोजपुरी आदि नुक्कड़ भाषा(street language) जैसे हिन्दी, कन्नड़ आदि और उच्च भाषा( up stairs language) जैसे संस्कृत और अंग्रेजी.
उन्होंने बताया कि हमने एक खुले भारत को खो दिया है. ऐसे भारत को जिसमें हर तरह का विचार संभव था. आज का भारत मध्यकालीन संत कवियों का बनाया भारत है. कन्नड़ के बगैर भारत संभव नहीं है और भारत के बगैर कन्नड संभव नहीं है. यहीं कथन अन्य भाषा और विचार के संदर्भ में भी लागु होती है.
लगभग दो घंटे संवाद हुआ. संवाद वहां रुका जहां उन्होंने कहा कि आधुनिकता  में आलोचना धर्म की आलोचना से शुरु होती थी और अब विकास और तकनीक की आलोचना से शुरु होती है.
वार्ता के उपरांत छात्रों ने समूह चित्र लिये और व्यक्तिगत भी. आटोग्राफ भी लिया जिसमें मैं भी शामिल था. अपने  समय के साहित्यकार के  चिह्न को संजोना सच में कीमती होता है.

बुधवार, 2 मार्च 2011

नचारी


नचारी भगवान शिव के लिये गाये जाना वाला गीत है. मिथिलांचल के इन गीतों में शिव के अस्त-व्यस्त छवि जो लोक में व्याप्त है उसकी छवि मिलती है. ऐसे अव्यवस्थित शिव कैसे गौरी के साथ वैवाहिक जीवन में व्यवस्थित रहेंगे यहीं इन गीतों की मुख्य चिंता है.
नचारी
आजु नाथ एक व्रत महा सुख लागत हे,
आहे तोहे शिव धरु नट भेष कि डमरू बजावथ हे।
तोहे गौरी कहई छी नाचय कि हम कोना क नाचब हे,
चारी सोच मोही होय कि हम कोना बांचब हे।
अमिय चूई भूमि खसत बाघम्बर जागत हे,
आहे होयत बाघम्बर बाघ बसहो धरि खायत हे।
सिर स संसरत सांप  कि भूमि लोटायत हे,
आहे कार्तिक पोसल मयुर सेहो धरि खायत हे।
जटा स छलकत गंगा दसो दिस पाटत हे,
आहे होयत सहस्र मुख धार समेटलो नै जायत हे।
मुंडमाल छूटि खसत मसानी जागत हे,
आहे तोहे गौरी जेबहु पराय कि नाच के देखत हे।
भनहि विद्यापति गाओल गावि सुनाओल हे,
आहे राखल गौरी के मान चारु बचावल हे।
२.
एना जे सुतईत आंख मसानी, कोना क चलतई काज
 जगा दे भोले बाबा को मनादे भोले बाबा को
इ भोले जोगिया आक धतुर में मतंग छथि,
नगरा बताह जका सुतल इ अर्धंग छथि,
इ अपराधी भूत के संगी, रूप सदाशिव भावे
जगा दे भोले बाबा को, मना दे भोले बाबा को
बसहा सवारी शिव के, घर नै घरारी एको धुर बटाईया,
अपने भिखारी शिव दुनिया लेल अन्न धन छई,
जटा स निकले गंगा छीट छीट के गंगाधार जगा दे
भोले बाबा को मना दे भोले बाबा को