शुक्रवार, 18 दिसंबर 2009

मदारी,सपेरा,जोगी….

मदारी,सपेरा,जोगी….
लगभग छः – सात महिने की एकरसता और उब को तोडने के लिये गर्मियों की छुट्टियों में घर जाना काफ़ी मददगार होता है। हर बार कुछ नये कार्यों की योजना बना के जाता हूं पर योजनायें धरी की धरी रह जाती है और छुट्टियां मां और बाबुजी के स्नेह तले अकर्मण्यता में बीतती है। इस बार गरमियों की छुट्टी में ऐसे ही एक आलस भरी दोपहरी में घर में लेटा हुआ था तभी एक आवाज सुनाई दी…किसी के गाने की…शैली जोगियों वाली थी। गौर किया तो लगा की बहुत दिन बाद ऐसी आवाज सुनाई दे रही है। बिस्तर से उठ के भागा तो सामने वाले घर के दरवाजे पर एक व्यक्ति हाथ में एक डिब्बा लिये झनझनाते हुए मुख पर कपडे का मुखौटा डाले जो बटनों से जडा था गा रहा था। उस घर के ही बच्चे उसे घेरे हुए थे। कदम बरबस उसकी ओर उठ गये। गाना गाने के दर्म्यान ही घर में से किसी ने निकल कर उसे चावल दे दिया। गाना खत्म करने के बाद वह दुसरे दरवाजे की तरफ़ चला गया । जाते जाते लेकिन मेरी स्मृतियों को कुरेद गया। बचपन में हम इस मुखौटे वाले जिसे बाकुम कहते थे के आते ही उसे घेर लेते थे…दुरी बनाकर क्योंकि वह कभी कभी डरावनी आवाज निकालता था और हम डर जाते। उसके झनझनाते डिब्बे की आवाज की लय में अद्भुत आकर्षण था। बाद में इस ‘बाकुम’ की हम नकल भी करते थे।
सपेरें तो पहले बहुत आते थे तरह तरह के सांप लिये हुए । सारे बच्चे उसके पीछे एक दरवाजे से दूसरे दरवाजे घुमते रहते थे। इसके लिये उसे बीन भी नहीं बजाना पडता था।
इसी तरह सारंगी बजाने वाले योगी भी आते थे कंधे पर बडा झोला लिये। उनकी सारंगी से मनुष्यों जैसी आवाज निकलती थी। देर तक उनका गाना सुनने की लालसा में उन्हे भिक्षा देने में विलम्ब कर दिया जाता था। बच्चों को डराया जाता था बदमाशी करोगे तो बाबाजी इसी झोला में ले जायेंगे।
विद्यालय से लौटते हुए भीड लगी देख कर हम समझ जाते थे कि मदारी का खेल लगा है। भीड में धंस कर हम अपनी जगह बना कर खेल देखने लग जाते थे। मदारी के साथ एक जमुरा और ताबीज होता था और वह कुछ भी गायब करने की क्षमता रखता है ऐसी मान्यता थी। वो दोनों अपने वाक जाल में तमाशाइयों को उलझाये रखते थे। इसे तो हमने फ़िल्मों में भी देखा है।
एक लकडी के घोडे वाला आता था ढोलक वाले के साथ। लकडी के रंगीन घोडे की बीच में जगह बना कर घुसे उसके पैरों में घुंघरु और हाथों में चाबुक होता था । उसे दुल्दुलवा घोडा कहते थे। वह यहां से वहां ढोलक के थाप पर कुदते हुए अपना खेल दिखाता था। इन सबका आना हमारे लिये अतीव प्रसन्न्ता का विषय था।
पर ये सारी चीजं लुप्तप्राय हो गयी है। सपेरे और मदारी तो कभीकभी स्टेशन या कचहरी जैसी जगहों पर दिख भी जाते हैं पर बाकुम, दुल्दुलवा घोडा, जोगी…नहीं दीखते। मुझे ठीक से याद नहीं की इन्हें अंतिम बार कब देखा था। लेकिन यह तय है कि पिछ्ले बारह सालों में तो नहीं देखा। शहरीकरण और रोजी रोटी का दबाव इनके विलुप्त होने के मुख्य कारणों में से एक है। इनका जिक्र तो किस्से कहानियों में भी नही है। उत्तर आधुनिकता के इस समय में हम सचमुच कुछ रोचक कलाओं से वंचित होतें जा रहें हैं। अपने बच्चो को देने के लिये हमारे पास अत्याधुनिक यंत्र और प्ले स्कुल तो हैं लेकिन समाज को जीवंत रखने वाली ये कलायें नहीं है।

अमितेश कुमार
amitesh0@gmail .com
vatsrj@yahoo.com

सोमवार, 7 दिसंबर 2009

भगवती गीत

मैं इस बार अपने घर से अपनी माँ की डायरी उठा के ले आया हूँ. उसमे मिथिला में होने वाली संस्कारों और लोक व्यवहारों से संबधित बहुत से गीत है. इस श्रृंखला में पहली बार भगवती गीतों के साथ शुरू कर रहा हूँ.
भगवती गीत
1
दुर्गा नाम तोहार हे जननी…
कालीनाम तोहार…
खड्ग खप्पर दाहिन कर राखल
निशुम्भ के कैलऊ संहार हे जननी…
दुर्गा नाम तोहार…
रक्त बीज महिषासुर मारल
केलउ असुर संहार हे जननी
दुर्गा नाम तोहार…
निसी वासर कैलास शिखर पर
मिली क कैलौ विहार हे जननी
दुर्गा नाम तोहार…
हम सन पतित अनेको तारल
हमरो करब उद्धार हे जननी
दुर्गा नाम तोहार…
2
हम अबला अग्यान हे जननी-2
धन समपति किछु नहिं हमरा
नहिं अछि किछुओ ध्यान हे जननी
हम अबला…
नहिं अछि बल, नहिं अछि बुद्धि,
नहिं अछि किछुओ ग्यान हे जननी
हम अबला…
कोन विधि हम भवसागर उतरब
अहिं के जपब हम नाम हे जननी
हम अबला…
3
आब नहिं बाचत पति मोर हे जननी आब नहिं बाचत पति मोर
चारु दिस हम हेरि बैसल छी किया नै सुनई छी दुख मोर हे जननी
आब नहिं बाचत…
उलटि पलटि जौ हम मर जायब हसत जगत क लोक हे जननी
आब नहिं बाचत पति मोर…
एहि बेर रक्षा करु हे जननी पुत्र कहायब तोर हे जननी
आब नहिं बाचत पति मोर…
4
सुनु सुनु जगदम्ब आहां हमर अवलम्ब , आहां रहि जईयौ प्रेम के मंदिरवा में
फ़ूल लोढब गुलाब पुजा करब तोहार … आहां रहि जईयौ प्रेम के ….
कंचन धार मंगायेब, अमृत अल सजायेब मां के आगे लगायेब प्रेम के मंदिरवा में
सेवक कहथि करजोरी मईया विनती सुनु मोर आहां रहि…
5
हे जगदम्ब जगत मां अम्बे प्रथम प्रणाम करई छी हे!
नहिं जानि हम सेवा पुजा अटपट गीत गवई छी हे!
सुनलऊ कतेक अधम के मइय़ा मनवांछित फ़ल दई छी हे!
सुत संग्राम चरण सेवक के जनम क्लेश हरई छी हे!
सोना चांदी महल अटारी सबटा व्यर्थ बुझई छी हे!
एक अहां के प्रेम चाहई छी प्रान प्रदान करई छी हे!
दुख के हाल कहु कि मईया आशा ले जिवै छी हे!
हमरा देखि क आख मुनइ छी पापी जानि डरई छी हे!
प्रेमी जग स पावि निराशा नयन नीर बहवई छी हे !
नोर बटोरि आहां लय मैया मोती हार गथई छी हे!
भजई छी ताराणि निशिदिन किया छी दृष्टि के झपने।
6
अवई अछि नाव नहिं भव स कदाचित ललित छी अपने।
वैजन्ती मंगला काली शिवासिनी नाम अछि अपने।
हमर दुख कियो नहि बुझय कहब हम जाय ककरा स कृपा करू आजु हे जननी बेकल भय आवि बैसल छी।
7
वीनती सुनु जगतारिणि मईया शरण आहांक हम आयल छी
कतहु शरण नहिं भेंटल जननी जग भरि स ठुकरायल छी
कत जन पतितक कष्ट हरण भेल आहां हमर किया परतारई छी
वामही अंग वामही कर खप्पर, दाहीन खडग विराजई छी
अरुण नयन युग अंग कपइत, हंसइत अति विकराल छी
छनहिं कतेक असुर के मारल, कतेक भयल जिवताने छी
8
करु भवसागर पार हे जननी करु भवसागर पर
के मोरा नईया के खेवैया के उतारत पार हे जननी
अहीं मोरा नइया अहीं खेवैया अहीं उतारब पार हे जननी
के मोरा माता के पिता के सहोदर भाई हे जननी
अहीं मोरा माता अहिं मोरा पिता अहिं सहोदर भाइ हे जननी
9
काली नाम तोहार हे जननी!… काली नाम तोहार
जाही दिन अवतार भयो है पर्वत पर असवार हे जननी!
ताही दिन महिषासुर मारल सब देवन करथि पुकार हे जननी!
कलयुग द्वापर त्रेता सतयुग सब युग नाम तोहार हे जननी!
तुलसीदास प्रभु तुम्हरे दरस को गले में मुण्ड के माल हे जननी!
10
युग युग स नाच नचा रहलंउ भव मंच ऊपर जननी हमरा
सत जानु एही में कनिको नहिं आनंद भेंट्य जननी हमरा
युग कखनो भुतल समीरन में, कखनो आकाश धरातल में, कखनो जल बीच हमरा नचवई छी सतत जननी हमरा
अगणित युग क चक्कर कटलहुं, अगणित वेष धारण कयलयुं, नहिं भेल अन्त इ लिखलाहा घुरमुरिया ई जननी हमरा
मन हमर अशान्त रहीत नहीं जौ कसीतउ नहीं विविध प्रलोभन में त बुझि लिय सकितहूं नहिं नचा कय दिवस एना जननी हमरा
सेवक जन ई अभिनय स यदि भेलउ खुशी, बड ईनाम दिय नहीं त ई नाटक मंडल स झट झारि दिअ जननी हमरा
11
वरदान अहां स कोना मांगु आशीषक आश किया नै करु
कतबो यदि पुत्र कपुत हुये पर मातु कुमातु कतहु ना सुने जौ मातु कुमातु हुये त कहु फ़ेर ममता नाम किया नै धरु
देखि बाट बहुत भुतिआए गेलहु पथ बीच भ्रमर पथ भ्रष्ट भेलऊ करु मुक्त शारदे सब भय स हे आदि शक्ती कल्याण करु

सोमवार, 30 नवंबर 2009

धर्मेन्द्र के हिन्दी सिनेमा में पचास साल

रविवार के जनसत्ता से एक खास जानकारी मिली कि फ़िल्म अभिनेता धर्मेन्द्र फ़िल्म जगत में पचास साल पूरे करने जा रहे हैं। खबर पढते ही धर्मेन्द्र के पूरे कैरीयर पर नजर पड गई और एक अफ़सोस यह उभरा कि धर्मेन्द्र एक ऐसे अभिनेता रहे जिनकी अभिनय प्रतिभा का ठीक ठीक मुल्यांकन नहीं हो पाया। इस बात को ऐसे समझा जा सकता है कि अपने कैरीयर में धर्मेन्द्र को एक भी फ़िल्मफ़ेअर अवार्ड नहीं मिला। मिला तो वो भी लाइफ़ टाइम अचीवमेंट। इस अवार्ड को लेते हुए धर्मेन्द्र ने कहा “ मैं हर साल फ़िल्मफ़ेअर अवार्ड से पहले सूट सिलवाता था कि इस बार शायद यह अवार्ड मिल जाये। लेकिन कभी नहीं मिला”।
धर्मेन्द्र फ़िल्म जगत में संभवतः टैलेंट हंट के जरिये पहूंचने वाले शुरुआती कलाकार रहे होंगे। फ़िल्मफ़ेअर द्वारा आयोजित इस प्रतियोगिता को जीतने के कारण उन्हें बिमल राय जैसे निर्देशक ने अपनी फ़िल्म बंदिनी में काम करने का मौका दिया है। उल्लेखनीय है कि बंदिनी हिन्दी के बेहतरीन फ़िल्मों में से एक है। इस फ़िल्म में अशोक कुमार और नुतन के बीच में धर्मेन्द्र ने अपनी मजबुत उपस्थिती दर्ज कराई। धर्मेन्द्र ने जब फ़िल्म में अपनी पारी शुरु की तब वो दिलीप, राज और देव का युग था, इसके बाद राजेश खन्ना और अमिताभ का युग आया। धर्मेन्द्र इन सबके साथ मजबुती से जमे रहे और अपनी पहचान को पुख्ता करते रहे।
फ़ूल और पत्थर(1966) की सफ़लता से धर्मेन्द्र के साथ जो हीमैन की छवि जो चिपकी वो अंत तक चिपकी रही। हमेशा उन्हें कुत्ते मैं तेरा खून पी जाउंगा के साथ याद किया जाता रहा। लेकिन हम जब उनके द्वारा निभाई गयी भूमिका को देखते हैं तो उनके रेंज का पता चलता है। शोले का वीरु, चुपके- चुपके का प्रोफ़ेसर, सत्यकाम का सत्यप्रिय, नौकर बीवी का में दब्बु पति, सुरत और सीरत का नेत्र हीन प्रेमी इत्यादि उनकी अभिनय की विविधता का परिचय देता है।
वस्तुतः देखा जाये तो धर्मेन्द्र ने हमेशा दो तरह की फ़िल्में कि एक उस प्रकार कि जिसमें उनकी ही मैन की छवि सुदृढ होती रही जो बाक्स आफ़िस की मांग थी। इस श्रेणी में शोले, चाचा-भतिजा, धर्म वीर, कर्तव्य, यादों की बारात, तहलका, इत्यादि फ़िल्में की। दूसरी तरफ़ उन्होंने विसी फ़िल्में की जिसमे उनका अभिनेता तुष्ट होता था। इस श्रेणी में बंदिनी, चुपके चुपके, सत्यकाम इत्यादि फ़िल्में हैं। वैसे फ़ार्मुला फ़िल्मों में भी उनका अभिनय दोयम नहीं है पर बाद में जाकर वे अपने को दोहराने लगे। अस्सी और नब्बे दशक में उन्होंने ऐसी ना जाने कितनी फ़िल्में की जो भुल जाने के योग्य है। वैसे यह युग हिन्दी सिनेमा का सबसे खराब दौर था। इस दौर में धर्मेंद्र नायक के रोल के लायक नहीं रह गये थे पर तब भी उनको केंद्र में रख के फ़िल्में बनी। उस दौर मे बुजुर्ग अभिनेता तुरंत चरित्र भुमिका में आने लगते थे। यह धर्मेंद्र का जलवा था।
हिन्दी सिनेमा में धर्मेन्द्र को जिस भुमिका के लिये सम्मान मिलना चाहिये वो है सत्यकाम। अभिनय के लिहाज से यह फ़िल्म अद्भुत और अविस्मरणीय है। एक सत्यवादी, निर्भीक उर्जावान इंजीनियर का किरदार धर्मेन्द्र ने इतनी शिद्दत से निभाया है कि फ़िल्म देखने के बाद अंतर्मन भीग जाता है। अशोक कुमार और संजीव कुमार जैसे अभिनेताओं के मध्य वे इस फ़िल्म में सबसे ऊंचे खडे होते हैं। घुटन और अंतर्द्वंद्व का अभिनय अभिभुत कर देता है। शोले में दोस्त के लिये जान लगा देने वाले वीरु और चुपके चुपके के प्रोफ़ेसर धर्मेन्द्र की अन्य यादगार भुमिका है। दोनों ही भुमिकाओं से उनके हास्य उत्पन करने की क्षमता का परिचय मिलता है।
धर्मेन्द्र ने हिन्दी सिनेमा को निर्माता के तौर पर भी योगदान दिया है। बेताब, घायल और सोचा ना था जैसी उल्लेखनीय फ़िल्में उन्होंने निर्मित की है। इसी सोचा ना था से इम्तियाज अली समर्थ निदेशक के तौर पर पहचाने जाने लगे हैं। अभिनय के उनकी परम्परा को उनका परिवार आगे बढा रहा है। इसमें सन्नी देयोल और अभय देयोल जैसे समर्थ अभिनेता हिन्दी सिनेमा को मिलें हैं। गौर करने की बात यह रही कि फ़िल्मफ़ेअर ने उनको अभिनेता बनने का मौका दिया और इसके बाद सीधे लाइफ़ टाइम अचीवमेंट अवार्ड दे दिया । जाहिर है कि उनकी उपेक्षा हुई। इस उपेक्षा के बाद भी वे अपने समकालीन सुपरस्टारों के चकाचौंध मे गुम नहीं हुए। उनका अपना एक विशिष्ट पहचान और दर्शक वर्ग बरकरार रहा। वरना आसान नहीं होता फ़िल्म जगत में पचास साल पूरा कर लेना वो भी चमकते हुए। हमने कई सितारों का हश्र देखा है। वक्त आ गया है कि हम उन अभिनेताओं का मुल्यांकन भी करना शुरु करे जो सुपरस्टार नहीं रहे पर जिनका विशेष प्रभाव है। निश्चय ही धर्मेन्द्र का नाम उसमें अग्रिम पंक्ति में होगा।

सोमवार, 16 नवंबर 2009

कोरे रह गये कागज…



कोरे रह गये कागज…
यह इतवार हर इतवार की तरह था। आलस भरी सुबह से आगाज करते हुए। उठने के बाद पैर स्वतः अखबार की तलाश में बरामदे में आ गया। अखबार खोलते ही एक उदासी तारी हो गयी, बीच का पन्ना खोला ‘कागद कारे’ नहीं था। अब हर इतवार बिना कारे कागद को पढे गुजारना होगा। यानि अब वो उत्सुकता भी नहीं रहेगी कि  इस बार कागद कारे का विषय क्या होगा? जैसा कि मैं और काका हर शनिवार को संभावित विषय के बारे में चर्चा कर लेते थे। आज अपन को  पुरी शिद्दत से पता चला कि प्रभाष जोशी के ना रहने के क्या मायने हैं। इस बीच तहलका  का भी पाठक हो गया था जिसमें उनका नियमित कालम छपता था। इस कालम की विषय की विविधता का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है इसमें उन्होंने चुनाव, आस्कर, आईपीएल इत्यादि पर लिखा था।
मैं संभवतः जनसत्ता  के सबसे कम उम्र के पाठकों में से होऊंगा। इतनी कम दिन के पाठन के बाद ही उनके लेखन से मेरा जुडाव ऐसा हो गया था तो उन पाठकों को उनकी कमी कितनी खलेगी ये बताने कि जरुरत नहीं है।
मैं उन खुश नसीब लोगो में से हुं जिन्होंने प्रभाष जोशी को देखा सुना है। दिल्ली विश्वविद्यालय के गांधी भवन में हिन्द स्वराज पर हुए एक कार्यक्रम में  बोलने आये थे। उस दिन मुझे पता चला कि जैसा वो लिखते हैं वैसा बोलते भी हैं धारदार। उस कार्यक्रम के अंत के बाद मेरी तीव्र इच्छा उनसे मिलने की  हो गयी थी। उस झक सफ़ेद धोती कुर्ते में लिपटे शख्स के वयक्तित्व में कुछ ऐसा ही जादु था। मैं उन के पास पहूंचा तो, मगर कुछ बात ना कर सका। हां वो अपना जुता खोज रहे थे तो मैंने उन्हें जुता ला के दिया था। सच पूछिये यह बिलकुल अपुर्व अनुभव था। इसी बहाने उनके चरण छुने का मौका जो मिला था।   आजकल के बुद्धीजीवियों को यह लिजलिजी श्रद्धा का पर्याय लगता हो पर जोशी जी के लिये यह संस्कार से जुडा मसला था।
मैं जोशी जी से मिलना चाहता था उनके साक्षात्कार के लिये। मैं तैयारी भी कर रहा था। परंतु…
इन दिनों कागद कारे के कई पन्नों में वो जिस  तरह मृत्यु का जिक्र कर रहे थे उससे तो लगता है कि उन्हें अपनी मृत्यु का आभास हो गया था। तभी तो अनथक यात्रा कर रहे थे। शायद जल्दी जल्दी काम निबटा लेना चाहते थे। जब सभी इस बात का   इंतजार कर रहे थे कि जोशी जी सचिन के सत्रह हजार रन और क्रिकेट जीवन के बीस साल पर क्या लिखेंगे वो चल दिये। चुनावों में हुए पत्रकारिता के काले कारनामे के खिलाफ़ अपने मुहीम के पुरा होने का भी उन्होंने इंतज़ार नहीं किया।
अब शायद ही कोई ऐसा होगा जो राजनीति, खेल ,साहित्य, मीडिया, संगीत इत्यादि सबकी एक साथ  खबर लेगा और देगा?
क्या जनसत्ता उनके प्रतिमानों पर टिकी रहेगी?
क्या पत्रकारिता जगत में फ़ैले उनके अनुयायी पत्रकारिता जगत को क्षयग्रस्त होने से रोकने के लिये कुछ करेंगे?
 बहुत सारे प्रश्न हैं जो उनके जाने के बाद अनुत्तरित हैं।
दुनिया है चलते रहती है। हर मनुष्य इस संसार में आके अपना योगदान देके चला जाता है। कुछ गुमनाम रह जातें हैं तो कुछ अनुकरणीय हो जाते हैं। प्रभाष जोशी ऐसी ही शख्सीयत थे। ठीक है अपन तो बिना कागद कारे और शुन्यकाल के बिना जी लेंगे पर ये सच है कि  उनकी   याद बहुत आएगी 

शुक्रवार, 11 सितंबर 2009

बारिश के मौसम में

बरसात के दिन आए ....
भइया अब तो मन कर रहा है की बारिश में निकल के दोनों हाथ फैला के गोल गोल घुमाते हुए जोर जोर से गाया जाए की एक मुट्ठी लाई मेघवा बिलाईये हमारे बचपन की बात है जब आसमान में बादल घिरते ही सारे बच्चे आसमन की तरफ़ मुह करके गोल गोल घूमते हुए ऐसा गाने लगते थे। ऐसा तब भी होता था जब बारिश का मौसम हो और बारिश ना हो रहा है तो इसी प्रक्रिया में तब हम ये गाया करते एक मुठी सरसों पिट पिट बरसो। तीन दिन से दिल्ली में लगातार बारिश हो रही है । पिछले छे सालो से दिल्ली में हूँ ऐसी बारिश तो कभी नही देखि । दिल्ली का मौसम इतना उदार कभी ना था। ये अलग बात है की मौसम की इस उदारता से ट्राफिक का नालो का स्वास्थ्य ख़राब हो गया है। हम तो ऐसी ही बारिश के आदि रहे है जब लगातार बारिश होने लगाती तो वो दिन याद किया जाने लगता और अनुमान लगाया जाता की अछा बारिश शनिवार को शुरू हुई है अब ये शनिवार को ही ख़तम होगी। हमारे बचपन के दिनों में हमारे गाव या शहर की धरती की मिट्टी पर कंक्रीट का बोझा नही था तो बारिश के मौसम की मिटटी की खुशबू भी विभोर कर देती थी। बारिश के दिनों में लिट्टी और चोखा खाने का मजा ही कुछ और था। स्कुल जाने के लिए कोई जिद नही करता था और दिन भर सोने का बहाना मिलता। मैदान गिला होने की वजह से आउटडोर खेल तो नही खेल सकते थे तो ये मौसम लूडो,व्यापार, शतरंज जैसो खेलो के लिए था। व्यापार ऐसा खेल था जो दिन भर चलता रह सकता था और इसमे झगडे की सम्भावना कम थी। हमने तो एक नया खेल विकसित कर लिया था जिसे हम बैंक बैंक कहते थे। बारिश के पानी से जब आँगन लबालब भर जाता तो उसमे नाव चलाने का मजा ही कुछ अलग था। नहाने के लिए तो मम्मी के मना कराने के बाद भी बारिश में ही नहा लेते थे। गीली मिटटी पे पैर चिपकाते हुए चलना या बारिश के जमा पानी में छाप छाप करना ..... काफ़ी यादे है याद कर रहा हूँ तो लग रहा है की सब आँख के सामने सिनेमा के स्क्रीन की तरह आ जा रहे हैं... अब मैं बड़ा हो गया हूँ... इस अहसाह के बाद एक दिन बारिश के पानी में छपाछप की तो अगल बगल देख लिया की कहीं कोई है तो नही । बारिश में ज्यादा भीग नही सकता क्योंकि अपनी देखभाल का जिमा अपना ही है। खेलने के लिए कंप्युटर है...पीने के लिए चाय वो भी ख़ुद से बनाना है...नो कोई मम्मी की तरह स्नेह देने वाला है ना पापा की तरह डांटने वाला ना भाई के साथ पहले वाला झगडा है...कुछ है तो बस अधूरे होने का अहसास ....

रविवार, 30 अगस्त 2009

छात्र राजनीति के बहाने


भईआ लिंगदोह साहब का डंडा तो कुछ ज्यादा ही जोर से छात्र राजनीति को लगा है। कुछ संगठनों को तो ऐसा लगा है जो बहुत भभा रहा होगा। इस डंडे का असर छात्र राजनीति के दो जीवित विश्वविद्यालय ज.ने.वि. (J.N.U.) और दि.वि.(D.U.) पर कुछ ज्यादा ही है। क्योंकि अपन भी दिल्ली में रहते हैं और इनमें से एक विश्वविद्यालय के छात्र हैं तो इस का असर महसुस कर रहे हैं। ज.ने.वि. के बारे में बात करने से अच्छा है कि दि.वि. के बारे में बात की जाये क्योंकि इसकी छात्र राजनीति को करीब से देखा है। मनी, मसल औए फ़ेस के इर्द गिर्द घुमती राजनीति की धारा इस बार अलग दिशा में ही मुड गयी है। इससे अपना स्थान बनाने के लिये कई सालों से संघर्ष कर रहे वामपंथी छात्र संगठन उत्साहित हो गये हैं। दो मुख्य दलों के एकाधिकार में फ़ंसी डुसु शायद ही अपना औचित्य सिद्ध कर सके यदि उससे पुछा जाये कि फ़ेस्ट और रक्त्दान शिविर के आयोजन के अतिरिक्त उसके कुछ और कार्यक्रम भी हैं। मुझे तो याद ही नहीं कि कक्षा के नियमित संचालन, आंतरिक मूल्यांकन, रैगिंग, छात्रावास, बाहरी तत्त्वों के प्रवेश इत्यादि मुद्दों को लेकर कभी किसी छात्र संगठन ने कुछ कहा हो। मुद्दे और भी गिनाये जा सकते हैं पर जब ये प्राथमिक मुद्दे ही ध्यान में नहीं है तो गुढ मुद्दों की कौन फ़िक्र करे। प्रचार के दौरान के हो हल्ला,आपसी झडप,गुंडा गर्दी, छेडखानी के बढने से आम छात्र धीरे धीरे इस राजनीति से कटते गये हैं। पिछले साल के पहले तक दि.वि. पोस्टरो से नारों पटा रहता था । पिछले साल से लगी रोक के बाद इस साल विश्विद्यालय की सक्रियता से हो सकता है कि इस बार कि गहामा गहमी कम हो जाये। लेकिन उन छात्रों या छात्रनुमा लड्कों का नुकसान हो सकता है जिनके लिये ये कमाई का मौसम था। हास्टलर्स को अफ़सोस हो सकता है कि दारु की धार कुछ पतली हो सकती है। वोट के ठेकेदार दुखी हो सकते हैं कि जिससे वो मोल जोल कर सकते थे वो मैदान में ही नहीं है। वो नेता हाथ मल रहे होंगे जिन्होंने अपने उमीदवारों के पीछे पूरी लामबंदी कर ली थी। मातृ दल भी सोच में जरूर होंगे।
इसीलिये लिंगदोह साहब की सिफ़ारिशों की छात्र संगठनों द्वारा जम के आलोचना की जा रही है। इसे छात्र राजनीति को कुंठित करने का कदम बताया जा रहा है। मैं तो इसकी बारीकी नहीं जानता पर अपने अनुभव से अवश्य ही कह सकता हूं कि यह अंकुश जरूरी है। अगर छात्र राजनीति छात्र के तरिके से नहीं संचालित हो रही तो फ़िर उसे छात्र राजनीति क्यों कहा जाये। यह मानने में तो किसी को गुरेज नहीं होगा कि छात्र राजनीति अपनी रचनात्मकता खोती जा रही है। अच्छा यह होगा कि यह अतिशीघ्र अपनी रचनात्मक जिम्मेदारी सम्भाल नहीं तो सत्ता और मुख्यधारा इसके प्रभाव से अवगत है और इसे कुंद तो करना ही चाहती है।

सोमवार, 27 जुलाई 2009

बिखरे बिंब का सामना

बिखरे बिंब का सामना

लगभग तीन महिने के अन्तराल के बाद कोई नाटक देखा। संगीत नाटक अकादमी, पुरस्कार विजेताओं का उत्सव करा रहा है। इसी अवसर पर। नाटक हो रहा था गिरिश कर्नाड का बिखरे बिंब, नाटक की एक मात्र पात्र को जिया अरुंधती नाग ने।

आम तौर पर नाटक देखने जाने का मेरा जो अनुभव रहा है उसी के आधार पर मैं नाटक देखने 6.30 में पहुंचा क्योंकि अखबारों मे समय वहीं दिया गया था। और हिन्दी नाटकों के लिये उतनी भीड तो हो्ती नहीं। कमानी के सामने पहुंचते ही मैं गलत हो गया क्योंकि दरवाजा बंद हो गया था हाउसफ़ुल के कारण। लेकिन दर्शक वहां जमे हुए थे और अंदर जाने की लगातार मांग कर रहे थे। काफ़ी हंगामे और शोर शराबे के बाद अंदर जाने दिया गया लेकिन तब तक आधे घंटे का नुकसान हो गया था। इसकी जिम्मेवारी कमानी के प्रबंधकों पर ही थी। अन्दर जाने के बाद देखा तो उनके दावे को झूठा पाया कि काफ़ी लोग अन्दर में जमीन पर पहले से बैठे हुए हैं। हकीकत यह थी कि अन्दर कुर्सियां भी खाली थी। उनके निरंकुश रवैये के चलते कई दर्शक लौट गये और कुछ का नाटक छूट गया। कमानी में अक्सर ऐसे होता है टिकट रहने के बाद भी प्रवेश में काफ़ी मशक्क्त करनी पडती है।

खैर…नाटक जहां से भी देखा अनुभव किया कि ना देखना कितना नुकसानदायक होता। शिल्प के स्तर पर अनुठा प्रयोग था, एक ही पात्र को उसके प्रतिबिम्ब के सामने खडे कर देना। प्रयोग का आधार आधुनिक तकनीक थी जिसमें बिंबो या तस्वीर के विकृत हो जाने को सम्वादों कथ्यों और प्रयोगों के जरिये उभारा गया ।

मंजुला नायक के जीवन के खोखलेपन, फ़रेब, विवशता, अकेलेपन… को उसके बिंब ने उसके सामने ला दिया जिससे अंततः उसने पीछा छुडाना चाहा..पर ऐसा कहां हो पाता है। कैरीयर के पीछे भागते हुए अपने परिवार की उपेक्षा, पति से दुरी, परिणामस्वरुप पति मंजुला नायक के अपाहिज बहन की ओर आकर्षित हो जाता है। यह आकर्षण जिस्म से परे है जिसे मंजुला अपने जिस्म में महसुस करती है। बहन की मौत के बाद उसके उपन्यास को अपने नाम से छपवाकर प्रसिद्धि पा जाने के बाद भी मंजुला अपने मृत बहन से हार जाती है। मंजुला के इस चरित्र को अरुंधती नाग ने बडॆ शिद्दत से निभाया। स्वर का उतार चढाव, देह भाषा, गति सब कुछ नियंत्रण में था। स्क्रीन पर चल रहे संवाद से तालमेल का अनुठा प्रयोग था। अपने ही प्रतिबिंब ने व्यक्तित्व के नंगापन को उभार दिया। सच है, मनुष्य जो भी कर्म करता है उसके प्रभाव और कारण को वह स्वंय तो जानता ही है। खैर इतना ही कहा जा सकता है कि अविस्मरणीय प्रस्तुति रही।

गिरिश कर्नाड को फ़िल्म के बाद रंगमंच पर उनकी उपस्थिति देखी। आजादी के बाद की भारतीय रंग जगत की वो एक उपलब्धी हैं और बहुआयामी प्रतिभा से युक्त हैं। एक साथ वो अभिनेता, लेखक, निर्देशक के रूप में कार्यरत हैं। उनको सजीव देखना अच्छा लगा।

एक बात और मन में उठी कि नाटक देखने के लिये जब इतनी भीड होती है तो यह भीड केवल बडे नामों या फ़िल्म के लोगों के उपस्थिति पर ही क्यों होती है। क्या यह भीड नयी रंग प्रतिभा को प्रोत्साहन नहीं देगी? और क्या मुफ़्त में दिखाये जाने वाले नाटकों में ही टूट पडेगी।

सोमवार, 30 मार्च 2009

सबसे प्रिय कविता जो हाल ही में पढी

अपने कॉलेज के पत्रिका हस्ताक्षर के लिए कविता तलाशते हुए एक कविता देखि जो बहुत अच्छी लगी। कवि हैं लाल्टू जी



शब्द

सीखो शब्दों को सही सही

शब्द जो बोलते है

और शब्द जो चुप होते है



अक्सर प्यार और नफरत

बिना कहे कहे जाते है

इनमे ध्वनि नही होती पर होती है

बहुत घनी गूंज

जो सुनाई पड़ती है धरती के इस पार से उस पार तक



व्यर्थ ही कुछ लोग चिंतित है

की नुक्ता सही लगा या नही

कोई फर्क नही पङता

की कौन कह रहा है देस देश को

फर्क पङता है जब सही आवाज नही निकलती

जब किसी से बस इतना ही कहना हो

की तुम्हारी आंखों में जादू है

फर्क पङता है

जब सही ना कही गई हो एक सहज सी बात

की ब्रह्माण्ड के दुसरे कोने से आया हूँ

जानेमन छूने के लिए।



शुक्रवार, 20 फ़रवरी 2009

चल चला चल के बहाने


इस बिच में फ़िल्म आई चल चला चल। अखबारों में उसकी समीक्षा पढी सभी अखबारों ने फ़िल्म को खारिज कर दिया और आश्चर्य व्यक्त किया की गोविंदा ने ऎसी फ़िल्म की क्यों....मुझे इस फ़िल्म को देखने का मौका मिला और आअश्चार्यजनक रूप से फ़िल्म अच्छी लगी...मुझे शक हुआ की हो है की फ़िल्म बस मुझे अच्छी लगी हो मैंने अपने और साथियों से puchhaa...फ़िल्म सभी को अच्छी लगी थी।दरअसल फ़िल्म एक सीधे साधे नौजवान की कहानी है जो अपनो के और समाज के खल यंत्रो से घिरा हुआ अपनी जिंदगी की 'बस ' चलाना चाहता है । इस काम में उसके साथ उसके प्रेरक पिता और मित्र है। वह अपने काम में व्यस्त सब से भले तरीके से पेश आता है । लेकिन समाज के तंत्र में आख़िर वह फस ही जाता है ...अंततः जित उसी की होती है...इस सीधी सी कहानी में एक मजदुर यूनियन का नेता नुमा गुंडा, सरकारी कर्मचारी,वकील भे है,साथ ही एक दारुबाज पिता की बेटी जो हीरो को बेवकूफ बनाती रहती है.... खैर इस फ़िल्म के बहाने मैं जो बात कहना चाहता हूँ ॥वो यह है..की फ़िल्म समीक्षा वर्तमान में बुरी तरह पूर्वाग्रह ग्रस्त है...वो एक ख़ास तरह की फिल्मो को ही सफल होते देखना चाहती है..खैर अधिकाँश प्रोजेक्टेड फिल्में फ्लॉप हो जाती है...जनता बहुधा इनके झांसे में नही आती। एक कारन मुझे और लगता ही की ,,आज के दौर में कोई चल चला चल के हीरो जैसे चरित्र को नही pacha paataa. यथार्थ को देखने का यह एकांगी दृष्टिकोण समाज में आज आम हो गया है। यह दृष्टी देव डी जैसे चरित्र को स्वीकार कर इसे एक महान फ़िल्म घोषित करती है तो चल चला चल जैसी हलकी फलकी फिल्मो के प्रति नकारात्मक रवैया अपनाती है।

बुधवार, 7 जनवरी 2009

एक अदद प्रेमिका की तलाश

दिल-ए नादां तुझे हुआ क्या है
आखिर इस दर्द की दवा क्या है
गालिब का यह वो मशहूर शेर है जिसकी सुगबुगाहट हर व्यक्ती अपने अन्दर तब महसुस करता है जब उसे इश्क की हवा लगती है... और ये हवा हर किसी को कभी न कभी लगती ही है। पर मेरे लिये यह हवा अगल बगल आगे पिछॆ उपर नीचे से गुजरती रही है और जब तक मै महसुस करता तब तक सर्र..... ।
आप क्या समझते हैं मैने ये शीर्षक चौकाने के लिये रखा है? बिलकुल नही, आप इस शीर्षक को ध्यान से पढ ले तो पुरी व्यथा कथा उजागर हो जाएगी। दिलचस्प बात तो ये है कि मेरी ये कथा उन लोगो कि कथा से भी साम्यता रखती है जिनके लिये यह इश्क ,प्रेम, मोहब्बत, जो भी कह ले ' दिल को खुश रखने का ख्याल ही' साबित हो रहा है। वो इस लू से बचकर हीनग्रंथि का शिकार नही हो रहे वरन सागर की तरह धैर्य धारण किये हुए है कि नदी कभी न कभी आकर तो मिलेगी ही [ अपने पुरुषार्थ से नही तो विवाह के बाद ]। जी हाँ विवाह एक ऐसा बाजार है जहा मैने कई खोटे सिक्के चलते देखे है। इसिलिये हमे [ इस हम मे मै और इश्क रहीत सभी लोग सम्मीलित है ] निराश होने की जरुरत नही है,जरुरत है कोशिश करते रहने की [विवाह तक] क्योन्की कोशिशे ही कामयाब होती है। खैर मै अपने प्रेमविहीन और प्रेमिकाविहीन होने की चर्चा कर रहा था । ऐसा नही है कि मैने किसी से प्रेम नही किया या मुझ से किसी ने प्रेम नही किया, फिर समस्या क्या है? समस्या यह है की यूँ कहे : 'किसी से दिल नही मिलता कोइ दिल से नही मिलता'।
मेरा जो 'केस' है वो अजीब है अक्सर यही होता है कि मै 'मुख्य अभीनेत्री' के पिछॆ होता हूँ और मेरे पिछे 'सहायक अभिनेत्री'। इन हालातो मे मुझे कई बार बीच का ही नही किनारे का रास्ता अख्तियार करना पडा है। कई बार तो वैम्प से भी पिछा छुडाना पडा है। कैसे ये मत पुछीये [प्राईवेसी का प्रश्न है और सुचना का अधिकार उतना कारगर नही,....]। एक बार तो ऐसा हुआ जब जबरन दो ए़क्स्ट्राओ ने मुझसे प्रेम का स्वीकार कराना चाहा, उस समय मैं उस उम्र मे था जो प्रेम करने की कतई नही थी [ मेरे ख्याल से ] उस दिन मुझे पता चला था दिन मे तारे दिखना किसको कहते हैं। घटनाक्रम उस विद्यालय के प्रान्गन मे हो रहा था जीसमे मेरे पिताजी शिक्षक थे ।उस दिन मै वहा से कैसे भागा ये मै ही जानता हूँ। एक बार मैने बहुत साहस करके 'तीन शब्द' कहने की हिम्मत की थी , परन्तु यहाँ अपने ही 'विलेन' निकले और मुझे 'रन्ग्मन्च 'से हटा दिया। दोबारा जब मैं मन्च पर पन्हुचा तो उसका सीन समाप्त हो चुका था।
कई बार क्या होता है, आप कुछ लिखने बैठे लेकिन बीच मे छॊड दे तो लय टुट जाती है.लय टूट जाए तो बात नही बन पाती खैर मै अपनी लय पाने की कोशिश करता हूँ। बहरहाल बात हो रही थी प्रेम की.......मेरे विचार मे प्रेम होने की सम्भावना सबसे अधिक शैक्षिक सन्स्थानो मे होती है। मेरा दुर्भाग्य ये है की विद्यालय ,महाविद्यालय,विश्व्विद्यालय तीनो इस लीहाज से मेरे लिये अप्रासन्गीक है। जबकी तीनो जगह सह शिक्षा थी और आलम्बन योग्य पत्रो की कमी नही थी। आप पुछ सकते हैं फिर वजह क्या थी? बहुत विश्लेशन के बाद जो वजहें मैने खोजी है उनमे मुख्य है, दिमाग का अधिक चलना।ये तो सबको पता ही है आकर्षण प्रेम की पहली सीढी है। पर जब भी मेरा दिल किसी की तरफ़ बढा...मेरे दिमाग ने तुरत उसकी लगाम थाम ली और प्रेम दिमाग से तो किया नही जा सकता ... इसलिए मै ये सुझाव दे सकता हूँ की हे प्रेम पथिको प्रेम मे दिल कि सुनो...[ ये सुझाव पुरुषॊ के लिये है, महिलाओ को ये सुझाव दिया जाता है कि किसी प्रस्ताव को स्वीकार करने से पहले दिमाग का सहारा अवश्य ले ]।
अगली वजह है मेरा सन्कोची स्वभाव जो अक्सर मुझे 'क्या करे क्या ना करे ' की स्थिति मे डाल देता है। एक और वजह है साहस की कमी ...लेकिन यहा मै उन लडकियो को दोषी ठ्हरा सकता हूँ जिनके साथ परस्पर आकर्षण था उन्होने हिम्मत क्यो नही दिखाई। खैर ....वजह तो अनगिनत गिनाई जा सकती है। दुसरो के अनुभव सुनते सुनते और उपन्यासो का यथार्थ पढते पढ्ते मेरे लिये प्रेम ऐसी चीज नही रह गया जो रक्त के प्रवाह को तेज कर दे...वैसे आकर्षण अब भी है। मैने अपने लिये प्रेम का जो स्वरुप निर्धारीत किया है, उस मापदन्ड मे प्रेम होना असम्भव सोचा करता था प्रेम सम्ब्न्धी कुछ उलझने दुर हो जाए तो प्रेम किया जा सकता है। उलझने -जैसे प्रेम क्या है? यह स्वीकार है या समर्पण ? ये कैसे पता चले की प्रेम हो गया है ? क्या प्रेम को व्यक्त करना अनिवार्य है? इत्यादि ... अब मुझे पता है कि ये उल्झने दुर होने वाली नही हैं। ये प्रश्न प्रेम के साथ जुड़े शाश्वत प्रश्न है जिनका ठीक ठाक उत्तर नही हो सकता। तब मै सोचता हूँ की जैसे तैसे एक प्रेम कर लिया जाए...किसी के सामने प्रेम का इजहार कर दो ...फ़िर जो हो वो देखा जाए। पर सोचने और करने कितना मे कितना फ़र्क है -ये आप जानते ही है। लेकिन इस फ़र्क को पाट्ने की कोशिश करते हुए मैने एक साथ अलग अलग सम्भावनाए तलासी पर उहापोह, मोह्भन्ग, अनुत्साह इत्यादि मेरे स्वभाव के पक्षों ने 'हिट ऎण्ड रन ' की यह युक्ति भी अपनाने ना दी और वही स्थिति पैदा हो गइ जिसे कहते है 'ना खुदा ही मिला ना मिसाले सनम' ।
ऊपर की जो तमाम बाते है वो अन्तहीन बकवासो का सिल्सिला है।इस रोचक विषय पर विमर्श करते मैने राते गुजारी हैं । इस चर्चा के दौरान मुझे एक किस्सा य़ाद आ रहा है कि एक बार एक युवक ने 'ओशो' से आकर कहा कि मुझे प्रेम हो गया है...फ़िर उसने अपनी उलझने बताइ .....उसकी बातो को सुनने के बाद ओशो ने उससे पुछा कि क्या तुम्हे सचमुच प्रेम हो गया है?उस युवक का विश्वाश हिल गया जो प्रेम के बडॆ दावे के साथ आया था, वह विचार के लिये कुछ समय मांग के चला गया।कुछ दिनो के बाद उसने लौट कर ओशो से कहा कि मुझे छ्मा किजियेगा, मै गलत था' । कहने का तातपर्य यह है कि कभी कभी प्रेम का होना भी प्रेम का ना होना है। ओशो ने अपने एक प्रवचन मे कहा है कि प्रेम विराट है वो जब हो जाए तो पता अवश्य चलता है, और उसका प्रभाव इतना व्यापक है कि जिससे हो उसे भी पता चल जायेगा।ओशो जी आपके इस प्रवचन ने मुझे काफ़ी हिम्मत दी है।
धरती पर प्रत्येक मनुष्य अद्वितीय होता है। इस लिहाज से मै भी हूँ। मैने अब तक प्रेमिका ना मिल पाने के 'इश्वरीय निहितार्थ' तलाश लिये है। पहला यह कि अवश्य ही मेरा अवतार धरती पर किसी श्रेष्ठ कार्य के लिये हुआ है, इसलिये भगवान भी नही चाहते कि मै इस चक्कर मे पडु। तभी तो कई बार प्रेम होते होते रह गया ।
दुसरा यह कि अवश्य ही कही ना कही कोइ है जो सिर्फ़ मेरे लिये है ...या तो वो अब तक दिखी नही या दिखने के बाद भी नजर नही आ रही। खैर मेरे मित्र इन निहितार्थो मे हताशा धुन्द्ते हैं। [उन्हे क्या मालुम की दिल को दिलाशा देने वाले ये शशक्त तर्क है।]
लेखन के पिछॆ कोई ना कोई उद्देश्य अवश्य रहता है, ये सभी जानते है। इससे पहले की आलोचक कोई और मतलब तलाशे, मै खुद ही स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि यह सब लिख कर मैने एक सम्भावना जगाने कि कोशीश की है जिससे मेरी तलाश शीघ्र समाप्त हो .... अतः इसे विग्यापन भी समझा जा सकता है। जब तक यह तलाश समाप्त नही होती तब तक तो सब्र का फ़ल मीठा होता ही है [वैसे मीठा हो या कड्वा सब्र के सिवा रास्ता क्या है? और फ़ल मिल जाए इतना क्या कम है। इति शुभम.