सोमवार, 27 जुलाई 2009

बिखरे बिंब का सामना

बिखरे बिंब का सामना

लगभग तीन महिने के अन्तराल के बाद कोई नाटक देखा। संगीत नाटक अकादमी, पुरस्कार विजेताओं का उत्सव करा रहा है। इसी अवसर पर। नाटक हो रहा था गिरिश कर्नाड का बिखरे बिंब, नाटक की एक मात्र पात्र को जिया अरुंधती नाग ने।

आम तौर पर नाटक देखने जाने का मेरा जो अनुभव रहा है उसी के आधार पर मैं नाटक देखने 6.30 में पहुंचा क्योंकि अखबारों मे समय वहीं दिया गया था। और हिन्दी नाटकों के लिये उतनी भीड तो हो्ती नहीं। कमानी के सामने पहुंचते ही मैं गलत हो गया क्योंकि दरवाजा बंद हो गया था हाउसफ़ुल के कारण। लेकिन दर्शक वहां जमे हुए थे और अंदर जाने की लगातार मांग कर रहे थे। काफ़ी हंगामे और शोर शराबे के बाद अंदर जाने दिया गया लेकिन तब तक आधे घंटे का नुकसान हो गया था। इसकी जिम्मेवारी कमानी के प्रबंधकों पर ही थी। अन्दर जाने के बाद देखा तो उनके दावे को झूठा पाया कि काफ़ी लोग अन्दर में जमीन पर पहले से बैठे हुए हैं। हकीकत यह थी कि अन्दर कुर्सियां भी खाली थी। उनके निरंकुश रवैये के चलते कई दर्शक लौट गये और कुछ का नाटक छूट गया। कमानी में अक्सर ऐसे होता है टिकट रहने के बाद भी प्रवेश में काफ़ी मशक्क्त करनी पडती है।

खैर…नाटक जहां से भी देखा अनुभव किया कि ना देखना कितना नुकसानदायक होता। शिल्प के स्तर पर अनुठा प्रयोग था, एक ही पात्र को उसके प्रतिबिम्ब के सामने खडे कर देना। प्रयोग का आधार आधुनिक तकनीक थी जिसमें बिंबो या तस्वीर के विकृत हो जाने को सम्वादों कथ्यों और प्रयोगों के जरिये उभारा गया ।

मंजुला नायक के जीवन के खोखलेपन, फ़रेब, विवशता, अकेलेपन… को उसके बिंब ने उसके सामने ला दिया जिससे अंततः उसने पीछा छुडाना चाहा..पर ऐसा कहां हो पाता है। कैरीयर के पीछे भागते हुए अपने परिवार की उपेक्षा, पति से दुरी, परिणामस्वरुप पति मंजुला नायक के अपाहिज बहन की ओर आकर्षित हो जाता है। यह आकर्षण जिस्म से परे है जिसे मंजुला अपने जिस्म में महसुस करती है। बहन की मौत के बाद उसके उपन्यास को अपने नाम से छपवाकर प्रसिद्धि पा जाने के बाद भी मंजुला अपने मृत बहन से हार जाती है। मंजुला के इस चरित्र को अरुंधती नाग ने बडॆ शिद्दत से निभाया। स्वर का उतार चढाव, देह भाषा, गति सब कुछ नियंत्रण में था। स्क्रीन पर चल रहे संवाद से तालमेल का अनुठा प्रयोग था। अपने ही प्रतिबिंब ने व्यक्तित्व के नंगापन को उभार दिया। सच है, मनुष्य जो भी कर्म करता है उसके प्रभाव और कारण को वह स्वंय तो जानता ही है। खैर इतना ही कहा जा सकता है कि अविस्मरणीय प्रस्तुति रही।

गिरिश कर्नाड को फ़िल्म के बाद रंगमंच पर उनकी उपस्थिति देखी। आजादी के बाद की भारतीय रंग जगत की वो एक उपलब्धी हैं और बहुआयामी प्रतिभा से युक्त हैं। एक साथ वो अभिनेता, लेखक, निर्देशक के रूप में कार्यरत हैं। उनको सजीव देखना अच्छा लगा।

एक बात और मन में उठी कि नाटक देखने के लिये जब इतनी भीड होती है तो यह भीड केवल बडे नामों या फ़िल्म के लोगों के उपस्थिति पर ही क्यों होती है। क्या यह भीड नयी रंग प्रतिभा को प्रोत्साहन नहीं देगी? और क्या मुफ़्त में दिखाये जाने वाले नाटकों में ही टूट पडेगी।