शुक्रवार, 28 जनवरी 2011

गुलज़ार :गीत यात्रा के पांच दशक(भाग-दो)


 हिन्दी सिनेमा में बतौर गीतकार पचास साल पूरा करने जा रहे हैं गुलज़ार । इन पचास साल मे  फ़िल्म लगभग सौ, यानि गुलज़ार ने थोक भाव में गीत नहीं लिखा। संख्या से ज्यादा उन्होंने गुणवत्ता का खयाल रखा। सिनेमा जैसे माध्यम में इसको बचाये रखना निश्चय ही बड़ी उपलब्धी है। इसी कारण से वो लगातार प्रासंगिक बने रहें हैं। उनके कम ही गीत होंगे जो गुमनामी के अंधेरे में खोये होंगे।
 गुलज़ार के गीतों में व्यापक विविधता है पर जैसे उनके गीतों में रात, चांद, धूप, प्रेम बार बार आते रहतें हैं।  वैसे  ही कुछ खास ट्रेंड या प्रवृति को हम पहचान सकते हैं।
गुलज़ार को दार्शनिक गीतों से खासा लगाव है। बोझिल अकेलेपन, उदासी और जिंदगी के फ़लसफ़े को व्यक्त करते ये गीत किसी के तन्हाई को साझा कर सकते हैं। यथा-
 वो  शाम कुछ अजीब थी
 ये  शाम  कुछ अजीब है
 वो कल भी पास पास थी
 वो आज भी करीब है (खामोशी)

जब भी ये दिल उदास होता है
जाने कौन आस पास होता है (सीमा)

मुसाफ़िर हूं यारो ना घर है ना ठिकाना
मुझे चलते जाना है (परिचय)

तेरे बिना जिंदगी से कोई शिकवा तो नहीं (आंधी)

क्या करें जिंदगी उसको हम जा मिले
इसकी जां खा गयी रात दिन के गिले
मेरी आरजू कमिने मेरे ख्वाब भी  कमीने
इक दिल से दोस्ती थी वो हुजुर भी कमीने (कमीने)
 गीतों में व्यक्त जीवन के यथार्थ की अभिव्यक्ति के कारण ये सिनेमा के पर्दे से निकल कर किसी के भी पर्सनल फ़ीलींगस से जुड़ जाते हैं। कभी पूरी तरह सुफ़ियाना होते हुए गुलज़ार इस जिंदगी को ही पुरी तरह मस्ती में डुबो देने के बात करते हैं
तिल तिल ताड़ा मेरा तेली का तेल
कौड़ी कौड़ी पैसा पैसा पैसे का खेल
चल चल सड़को पर होगी धेन धेन
धन ते नान (कमीने )
अब कोई इस मस्ती में क्यों ना सड़कों पर निकल आये और पूरी तरह अपने को तिरोहित कर दे
हवा से फ़ूंक दे, हयात फ़ूंक दे
सांस से सीला हुआ लिबास फूंक दे (नो स्मोकिंग)
 प्रेम गुलज़ार की ही नहीं हिन्दी सिनेमा के गीतों की केन्द्रीय प्रवृति है। इसकी अनेक प्रकार से अभिव्यक्तियां बार बार होती रहती हैं। गुलज़ार के प्रेम गीत अपनी तरह के अनोखे गीत हैं। लहजा बिलकुल सहज सरल और बात बड़ी गंभीर। जैसे;
तुम आ गये हो नूर  आ गया है
नहीं तो चिरागों से लौ जा रही थी
जीने की तुमसे वजह मिल गयी है
बड़ी जिंदगी बेवजह जा रही थी (आंधी)
या
हमने देखी है इन आंखों से महकती खुशबु
हाथ से छु के इसे रिश्तों का इलज़ाम ना दो
सिर्फ़ एहसास है ये रूह से महसूस  करो
प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम दो (खामोशी)
  गुलज़ार के यहां  इश्क इतना मासुम है कि होने पर पांव जमीन पर नहीं पडते, नीद में चलने लगता है, सर पे आसमां झुकने लगता है, स्व और पर का एहसास गुम हो जाता है पता नहीं चलता कि किसकी धड़कन है और सीली हवा के चलने से ही बदन छील जाता है। इस प्रेम में आमंत्रण भी है
आजा गुफ़ाओ में आ
आज गुनाह कर ले
या
लबों से चूम लो आंखों से थाम लो मुझको
तुम्हीं से जनमु तो शायद मुझे पनाह मिले
हिन्दी सिनेमा में बच्चों के लिये सिनेमा कम ही बनता है। ये समझा जाता है कि बच्चों पर फ़िल्म बनाने से दर्शक वर्ग पहले ही सिकुड जाता है  इसलिये व्यावसायिक सफ़लता संदेहास्पद हो जाती है। गुलज़ार ने बच्चों के लिये दो महत्त्वपूर्ण फ़िल्म किताब और परिचय  बना कर इस संदेह को निर्मुल किया है। बच्चों की दुनिया  को बडों से जोड़  कर उनके संसार में झांकने की कोशिश है ये फ़िल्मे। बाद में बनी मासूम(शेखर कपूर ) और तारे जमीन पर (आमिर खान) को इसी परम्परा में देखा जाना चाहिये। चर्चा तो हम गीत की कर रहें हैं। बच्चों का गीत कहते हीं हमारे जुबान पर जो पहला गीत आता है वो गुलज़ार का ही लिखा हुआ है।
लकड़ी की काठी, काठी का घोड़ा
घोड़े की दुम पर जो मारा हथौड़ा
दौड़ा दौड़ा दौड़ा घोड़ा दुम दबा के दौड़ा
इसके अलावा ‘अ आ इ ई मास्टर जी की हो गयी छुट्टी’ (किताब), ‘चुपड़ी चुपड़ी चाची’ (चाची 420) इत्यादि बच्चों के लिये लिखे गुलज़ार के प्रसिद्ध गीत हैं। गुड्डी का यह पार्थना गीत तो बहुत से विद्यालयों का पार्थना गीत बन गया
हमको मन की शक्ति देना मन विजय करें
दूसरों की जय से पहले खुद की जय करें
फ़िल्मों से हटकर सीरियल के लिये के लिये लिखा यह गीत तो अनोखा ही है
जंगल जंगल बात चली है पता चला है
चड्ढी पहन के फूल खिला है।
 गुलज़ार अपने गीतों में शब्द चयन और संयोजन को लेकर विशेष रूप से सचेत रहें हैं। एकदम अप्रचलित और एकदम प्रचलित शब्दों के इस्तेमाल से गीत विशेष बन जाता है। जैसे-प्रचलित शब्द से
छोटे छोटे शहरों से खाली बोर  दोपहरों से
हम तो झोला उठा के चले
अप्रचलित शब्द से-
गुलपोश कभी इतराये कहीं
महके तो नजर आ जाये कहीं
ताबिज़ बना के पहनुं उसे
आयत की तरह मिल जाये कहीं
 अपने गीतों मे गुलज़ार ने कुछ शब्द भी इजाद कियें हैं। चप्पा-चप्पा, चुपडी चुपडी  ,छईयां छईयां, छईं छप्पा छईं, उर्जु उर्जु दुरकट, मय्या मय्या, हुम हुम , धन ते नन इत्यादि शब्दों के प्रयोग से गीत और खास हो जाता है। गीतों में कभी शब्द अपने कार्य से हटकर प्रयुक्त होते हैं
हमने देखी है इन आंखों की महकती खुशबु
हाथ से छु के इसे रिश्तों का इलज़ाम ना दो
अब खुशबु का देखा जाना और हाथ से छुए जाने को भी गुलज़ार अपने गीतों में संभव कर देतें हैं और श्रोता को यह खटकता भी नहीं।
शब्दों मे बसी दृश्यात्मकता से गीत मन के पर्दे पर सजीव हो उठतें हैं।  रीडर रीस्पांस थ्योरी यहां साकार होती है क्योंकि हर श्रोता अपना अपना दृश्य निर्मित करता है। उदाहरण के लिये इजाजत के इस गाने को देखा जा सकता है
एक अकेली छतरी में जब आधे आधे भीग रहे थे
आधे सुखे आधे गीले सुखा मैं तो साथ ले आई थी
गीला मन शायद बिस्तर के पास पडा हो
वो भिजवा दो मेरा वो सामान लौटा दो
इस गीत को सुनने के बाद फ़िल्म का दश्य कभी ध्यान में नहीं आता ऐसा मेरा अनुभव है यकीन है कि ऐसा ही  दुसरों का भी होगा।
गुलज़ार अपने फ़िल्मों में राजनीतिक हैं और गीतों में भाव प्रणव । ऐसा बहुत से लोग मानते है। लेकिन ऐसा नहीं है गुलज़ार अपने परिवेश के हलचल को अपने गीतों में सीधे सीधे उभारते हैं इन गीतों में वे प्रतीक का सहारा भी नहीं लेते। ‘मेरे अपने’ का यह गाना बेरोजगारों की हकीकत बयानी करता है
हालचाल ठीक ठाक है सबकुछ ठीक ठाक है
बी.. किया है एम.ए. किया है
लगता है सब कुछ एं वें किया है
काम नहीं है वरना यहां आपकी दुआ से बाकी ठीक ठाक है
इसके साथ हीं ‘गोलमाल है भई सब गोलमाल है’ (गोलमाल), ‘सलाम कीजिये आली जनाब आयें हैं’ (आंधी), ‘घपला है भई घपला है’ (हु तु तु) ये सब गीत अपने परिवेश को बयान करते हैं। आतंकवाद से क्षत पंजाब का यह काव्यात्मक वर्णन तो मर्मस्पर्शी है
जहां तेरे देहरी से धूप उगा करती थी
सुना है उस चौखट पे अब शाम रहा करती है (माचिस)
ओमकारा में ‘बिल्लो चमन बहार’ के जिस गीत को हम आईटम गीत समझ के झुमते हैं वह दरअसल पेशे की सच्चाइ है। आखिर जिगर की आग ही उससे यह सब करा रही है।

गुलज़ार वैसे सब को भाते हैं पर युवाओं के बीच खासे लोकप्रिय हैं क्योंकि उनके पास युवा मन की सारी अभिव्यक्तियां हैं। जिंदगी को फ़ूंक देने का जोश, दिल निचोडने का जज्बा, किसी को शिद्दत से अपना कह सकने की चाहत, उदास शाम का खालीपन और सबसे खुबसुरत, प्रेम को स्थान देने की सरल और मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति-
ले चलें डोलियों में तुम्हें गर इरादा करो
ऊंगुलियों में पहन लो ये रिश्ता और वादा करो।
किसे को प्रपोज करना हो तो इससे बेहतर लाइने कहां मिलेंगी।
संपुर्ण सिंह गुलज़ार 18 अगस्त 1936 को पाकिस्तान  के दीना में जन्मे। विभाजन के बाद उनका परिवार अमृतसर चला गया और वो बंबई। जीवनयापन के लिये गैरेज में काम करना प्रारंभ किया। साहित्य और संगीत से लगाव बचपन से ही था। सिनेमा में  विमल राय ,हृषिकेश मुखर्जी, और हेमंत कुमार के सहायक के तौर पर काम किया। एस. डी. बर्मन के संगीत पर ‘बंदिनी’ फ़िल्म के लिये लिखे गीत ‘मोरा गोरा अंग लई ले’ से इनको पहचान मिली। उस समय फ़िल्मों में गीतकार के तौर पर जगह बनाना आसान नहीं रहा होगा। गुलज़ार को उस समय साहिर लुधियानवी, शकील बदायुनी, शैलेन्द्र, हसरत जयपुरी, मजरुह सुल्तानपुरी, आनंद बक्षी जैसे गीतकारों के बीच जगह  बनानी पडी। गुलज़ार हिन्दी सिनेमा में शैलेन्द्र के सबसे ज्यादे करीब हैं। शैलेन्द्र को वो सबसे महान गीतकार मानते हैं। उन्ही के शब्दों में
 “ मेरी राय में शैलेन्द्र हिन्दी सिनेमा में सबसे महान गीतकार हुए। इससे पहले डी.एन. मधोक थे। शैलेन्द्र कविता और गीत के अंतर को जानते थे। उन्होंने गीतों की साहित्यिकता कायम रखते हुए उसे आम आदमी के छंद में पेश किया। साहिर साहब साहित्यिक कवि थे और रहे उन्होंने माध्यम को उतना स्वीकार नहीं किया जितना माध्यम नें उन्हें।”
 गुलज़ार को  अपने समय के संगीतकारों का भी अच्छा सहयोग मिला। आर. डी. बर्मन गुलज़ार के दोस्त और सबसे प्रिय सगीतकार थे । पंचम के साथ उन्होंने सबसे अधिक काम किया ईक्कीस फ़िल्मों मे। परिचय, खुशबु, किनारा, गोलमाल. मासुम, इजाजत इत्यादि प्रमुख फ़िल्में थी जिनमे इनका साथ रहा। गुलज़ार ने अपने समकालीन सभी संगीतकारों के साथ काम किया जैसे- सलिल चौधरी (आनंद. मेरे अपने), शंकर जयकिशन (सीमा), एस.डी. बर्मन (बंदिनी), हेमंतकुमार (खामोशी), मदनमोहन (मौसम, कोशीश), लक्ष्मीकांत प्यारेलाल (गुलामी), खययाम (थोडी सी बेवफ़ाई, मुसाफ़िर), भुपेन हजारिका (हु तु तु, रुदाली),हृदयनाथ मंगेशकर (लेकिन), अनु मलिक (फ़िजां अक्स, फ़िलहाल), शंकर एहसान लाय (बंटी और बबली, झुम बराबर झुम), ए. आर. रहमान (दिल से गुरु, स्लमडाग मिलेनर)। नये  संगीतकारों में गुलज़ार ने सबसे ज्यादा विशाल भारद्वाज के साथ काम किया है - 12 फ़िल्मों में। सत्या, मकबूल, माचिस, ओमकारा, कमीने इनकी जुगलबंदी  का प्रतिफ़ल है।
गुलज़ार पर कुछ लिखने की सोचा तो स्वंय की भी यह जिज्ञासा थी कि क्या कारण है कि ये आदमी इस उम्र में भी टाप टेन की सूची में टाप पर बजता है। जिस उम्र में आकर सभी नये दौर और नयी पीढी को कोसते हैं कि अब वैसी बात कहां?
आचार्य रामचंद्र शुक्ल का कहना है कि साहित्य जनता कि चित्तवृतियों का संचित प्रतिबिंब है और ये चित्तवृतियां निरंतर पर्तिवर्तन की प्रक्रिया में होते हैं। इस  कथन के आलोक में जब हम गुलज़ार के गीतों को देखते हैं तो साफ़ समझ में आता है कि इन चितत्वृतियों की पहचान गुलजार को है। तभी तो वो ‘मोरा गोरा अंग लई ले’ से ‘किस आफ़ लव’ की यात्रा तय करते हैं। माध्यम और समय के नब्ज को हाथ में लेकर वे रचनाशील हैं तभी तो खूब सुने जाते हैं। फ़िल्मी गीतों में साहित्यिकता  को लेकर अक्सर चर्चा  होती है। गुलज़ार उन चन्द गीतकारों में हैं जो अपने गीतों को साहित्य के सबसे समीप रखे हुएं है। इस  सम्दर्भ में मेरे पास तीन उदाहरण है उनके तीन दौर के। पाठक गण खुद तय करें
एक लाज रोके पैयां
एक मोह खींचे बैयां
जांउ किधर ना जाउं
हमका कोइ बताइये दे
मोरा गोरा अंग लई ले
मोहे शाम रंग दई दे
छुप जाऊंगी रात ही में
मोहे पी का संग दई दे।(बंदिनी 63)

पतझड में कुछ पत्तों के  गिरने की आहट
कानों में पहन के लौट आई थी
पतझड की वो शाख अभी तक कांप रही है
वो शाख गिरा दो मेरा वो सामान लौटा दो (इजाजत 88)

जिसका भी चेहरा छीला अंदर से और निकला
मासुम सा कबुतर नाचा तो मोर निकला
कभी  हम  कमीने  निकले कभी दूसरे कमीने  (कमीने 2009)
 सोचा था गुलज़ार पर कुछ लिखने के बहाने इनके गीतों की गहराई में उतरूंगा और कुछ निकाल के ले आऊंगा। अनुभव हो रहा है की अभी मैं किनारे से केवल विस्तार में देख पा रहा हुं। गहराई में उतरना कुछ निकाल के लाना दूर की बात है। आज तेज़ शोर वाले संगीत और बेसिर पैर के गीतों के बीच गुलज़ार को सुनना प्रदूषित हवा से निकल कर स्वच्छ हवा मे सांस लेने के जैसा है और इस अठन्नी सी जिंदगीको बचाने के लिये स्वचछ हवा में सांस लेना बहुत जरूरी है।

गुरुवार, 27 जनवरी 2011

गुलज़ार :गीत यात्रा के पांच दशक(भाग-एक)


गंगा आये कहां से’ ‘काबुलीवालाके इस गीत के साथ गुलजार का पदार्पण फ़िल्मी गीतों के क्षेत्र में हुआ था। बंदिनीके गीत ‘मोरा गोरा अंग लईले’ से गुलज़ार फ़िल्म जगत में प्रसिद्धी पा गये। लगभग पांच दशकों से वे लगातार दर्शकों को अपनी लेखनी से मंत्रमुग्ध किये हुए हैं। इस सफ़लता और लोकप्रियता को पांच दशकों तक कायम रखना निश्चय ही उनकी असाधारण प्रतिभा का परिचय़ देता है। इस बीच में उनकी प्रतिस्पर्धा भी कमजोर लोगो से नहीं रही। जनता और प्रबुद्ध दोनों वर्गों मे उनके गीत लोकप्रिय हुए। उनका गीत देश की सीमाओं को लांघ कर विदेश पहुंचा और उसने आस्कर पुरस्कार को भी  मोहित  कर लिया और ग्रैमी को भी |
  गुलज़ार बहुआयामी प्रतिभा के धनी हैं। फ़िल्मों मे निर्देशन, संवाद और गीत  लेखन के साथ अदबी जगत में भी सक्रिय हैं। गुलज़ार का फ़िल्मकार रूप मुझे हमेशा आकर्षित करता रहा है। लोकप्रिय सिनेमा की सरंचना में रहते हुए उन्होंने सार्थक फ़िल्में बनाई हैं। उनके द्वारा निर्देशित फ़िल्मों की सिनेमा के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण जगह है। मेरे अपने, कोशिश, मौसम, आंधी, खुशबु, परिचय, इजाजत, माचिस इत्यादि  उनके द्वारा निर्देशित फ़िल्में एक व्यवस्थित और विस्तृत अध्ययन की मांग करती हैं। मेरा ध्यान इस वक्त सिर्फ़ उनके गीतों और वो भी फ़िल्मों में लिखे गीतों पर केंद्रित है।
    गुलज़ार के गीतों की तह में जाने से पहले कुछ सूचनात्मक जानकारियां बांट ली जाये। गुलज़ार ने अब तक लगभग सौ फ़िल्मों के लिये गीत लिखें हैं और बाइस फ़िल्में निर्देशित की हैं। कुछ फ़िल्मों के लिये संवाद भी लिखे हैं जिसमें आनंद, नमकहराम, माचिस ,साथियां इत्यादि हैं।
  गुलज़ार अब तक सात राष्ट्रीय पुरस्कार जीत चुके हैं। सर्वश्रेष्ठ निर्देशन - मौसम, सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म - माचिस, सर्वश्रेष्ठ गीत - मेरा कुछ सामान (इजाजत), यारा सीली सीली (लेकिन), सर्वश्रेष्ठ पटकथा - कोशिश, सर्वश्रेष्ठ वृतचित्र - पं भीमसेन जोशी और उस्ताद अमजद अली खान। गीतों के लिये गुलज़ार को नौ फ़िल्मफ़ेअर अवार्ड मिला। निर्देशन के लिए एक (मौसम), कहानी के लिये एक (माचिस), फ़िल्म के लिये एक (आंधी ,समीक्षक) और संवाद के लिये चार (आनंद, नमकहराम, मचिस और साथिया।) फ़िल्मफ़ेअर अवार्ड मिला है।
उनके कहानी संग्रह धुआं के लिये 2003 में उन्हें साहित्य अकादमी अवार्ड मिला और 2004 में भारत सरकार ने उन्हें पद्म भुषण से समानित किया।
गुलज़ार के गीतों में प्रवेश के लिये किस रास्ते का प्रयोग किया जाये इस पर विचार के बाद सबसे आसान लगा कि उनके गीत यात्रा का दशक के अनुसार अध्ययन कर लिया जाये इससे बहुत सारे तथ्य एक साथ उजागर हो जायेंगे।
गुलज़ार ने फ़िल्मों में गीत लेखन की शुरुआत 1961 मे फ़िल्म ‘काबुलीवाला’ से की,  गीत था ‘गंगा आये कहां से’। इस दशक यानि 60-70 में गुलज़ार ने बंदिनी(63), पुर्णिमा(65), दो दुनी चार(68), और खामोशी(69) में गीत लिखा। मोरा गोरा अंग लई ले (बंदिनी), तुम्हें जिंदगी के उजाले मुबारक (पुर्णिमा), वो शाम कुछ अजीब थी और हमने देखी है इन आंखों की महकती खुशबु (खामोशी) इत्यादि गीत बेहद लोकप्रिय हुए। इन गानों से ही गुलज़ार के रेंज़ का पता चलता है। ‘पी’ के रंग में रंग जाने की इच्छा से लेकर रिश्तों की खुबसुरती का बेनामीपन और जिंदगी के उजालों को प्रिय के लिये छोड कर स्वयं को अंधेरें का अभ्यस्त बताने की उदासी गीतों की इस विविधता ने निश्चय ही सिनेमा जगत को एक समर्थ गीतकार के उदय की सूचना दे दी होगी। 
70-80 के दशक में गुलज़ार ने सीमा, गुड्डी, मेरे अपने (71), परिचय (72), मौसम, खुशबु, आंधी (75), घर, खट्टा-मीठा, किनारा, घरौंदा, किताब (77), गोलमाल (79),इत्यादि फ़िल्मों के लिये गीत लिखा। इस दशक में फ़िल्मों की संख्या अधिक हैं और गीतों की भी। गौरतलब है कि यहीं वो दशक है जिसमें गुलज़ार ने निर्देशन की कमान संभाली और मेरे अपने, परिचय, मौसम, खुशबु, आंधी व किताब का निर्देशन किया। फ़िल्मों की सरंचना में गीतों को घुला देने और उनके खुबसुरत फ़िल्मांकन के उदाहरण के तौर पर इन फ़िल्मों को देखा जा सकता है। हालचाल ठीक ठाक है (मेरे अपने), तेरे बिना जिंदगी से कोई शिकवा (आंधी), दिल ढूंढता है फ़िर वहीं (मौसम) गीतों को हटाकर इन फ़िल्मों को देखा जा सकता है क्या? आखिरकार गुलज़ार विमल राय और हृषिकेश मुखर्जी के सहायक रह चुके थे। इस दशक में गुलज़ार को मौसम के लिये राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। दो दीवाने शहर में (घरौंदा 77), और आनेवाल पल जाने वाला है( गोलमाल 79) को सर्वश्रेष्ठ गीत का फ़िल्मफ़ेअर अवार्ड मिला।
अपने कैरीयर के तीसरे दशक (80-90) में खुबसुरत, थोडी सी बेवफ़ाई (80), बसेरा (81), मासुम, सदमा (83), इजाजत, लिबास(88) इत्यादि फ़िल्मों में गुलज़ार ने गीत लिखे। पिया बावरी ( खूबसूरत), आंखों में हमने आपके सपने सजाये हैं (थोडी सी बेवफ़ाई),  जिंदगी गले लगा ले (सदमा), रोज रोज आंखो तले (जीवा), खाली हाथ शाम, मेरा कुछ सामान (इजाजत) सीली हवा छु गयी (लिबास) इत्यादि इस दशक के बेहद लोकप्रिय गाने थे। हजार राहें, (थोडी सी बेवफ़ाई), तुझसे  नाराज नहीं (मासुम) और  मेरा कुछ सामान को फ़िल्मफ़ेअर अवार्ड मिला था। उल्लेखनीय है कि इस दशक को हिन्दी सिनेमा के पतन का दौर माना जाता है। अभी तक हिन्दी सिनेमा इतने खराब दौर से नहीं गुजरा था। व्यावसायिकता और स्तरीयता दोनों मोर्चों पर यह विफ़ल हो रहा था। हिन्दी सिनेमा गीत संगीत का सुनहला दौर देख चुका था और इस दशक में सबसे  बुरी हालत गीत संगीत की ही थी। लेकिन इस खराब दौर में भी गुलज़ार ने अंगुर, इजाजत, और लिबास जैसी फ़िल्म बनायी। उनके गीत इस दौर के संगीत पक्ष के गिरावट से अछूते रहे। तुझसे नाराज नहीं जिंदगी और मेरा कुछ सामान जैसे गीतों से नयी उंचाइयों को छुआ।
1990-2000 के बीच में गुलज़ार की लेकिन (91), माया मेमसाहब, रुदाली(93), माचिस(96), आस्था(97), दिल से, सत्या(98), जहां तुम ले चलो, हु तु तु(99), इत्यादि फ़िल्में आई।  बीसवीं सदी का यह अन्तिम दशक हिन्दी सिनेमा के लिये वैसा दशक है जब हिन्दी सिनेमा में बहुत कुछ परिवर्तित हो रहा था। मार धाड और बुरे संगीत से दर्शक लगभग उब गये थे और फ़्रेश की तलाश में थे। फ़िल्मों का फ़्लाप होना जारी  था लेकिन वो फ़िल्मे हिट हो रहीं थीं जिनमें कुछ नयापन था। मैनें प्यार किया, हम आपके हैं कौन, दिलवाले दुलहनिया ले जायेंगे, सत्या, कुछ कुछ होता है, इत्यादि जैसी अत्यधिक सफ़ल फ़िल्में इस दौर में बनी। खास बात कि इन फ़िल्मों की सफ़लता में गीत संगीत का बहुत योगदान था। अभिनेता, निर्माता, निर्देशक, संगीतकार, गीतकार की एक पूरी नयी जमात सामने आ गयी थी और गुलज़ार की जगह बकायदे बुजुर्ग की हो गयी थी। मजबुत पेड़ अपनी जगह हमेशा बरकरार रहते हैं और हमेशा नये पत्ते, फ़ुल औए फ़ल देते रहतें हैं। गुलज़ार ने अपने को नये जमाने के हिसाब में ढाला, बिना स्तर गिराये हुए, बिना समझौता किये। हां उन्होंने फ़िल्मों की संख्या जरुर कम कर दी। इस दशक में उन्होंने एक ओर ‘यारा सीली सीली’ (लेकिन 91) लिखा दुसरी ओर ‘गोली मार भेजे में’ मनोविज्ञान और  दर्शन को यह गीत  बखूबी व्यक्त करता है। ‘छोड आये हम वो गलियां’ (माचिस 96) से उनका दार्शनिक अंदाज बरकरार रहा तो ‘चुपड़ी चुपड़ी चाची’ (चाची 420) से बाल सुलभ  अंदाज भी। रुदाली, और दिल से का  सभी गीत लोकप्रिय हु। यारा सीली सीली (लेकिन, 91) और चल छैयां छैयां (दिल से, 98) को फ़िल्मफ़ेअर अवार्ड मिला। 
वर्तमान दशक (2000-10) में  भी गुलज़ार की आंच कम नहीं हुई है और उसी लौ में जल रहे है जो 61 में जली थी। फ़िजां, अक्स (2000), फ़िलहाल, अशोका (02), साथिया, चुपके से (03) पिंजर, मकबुल (04) रु-ब-रु, बंटी और बबली (05), झुम बराबर झुम, नो स्मोकिंग, दस कहानियां (07), युवराज(08), बिल्लु, स्लमडाग मिलेनर, कमीने(09) की लंबी लिस्ट ये बता रही है कि इस दशक में वो अधिक सक्रिय हो गये हैं। इस दौर में उनकी चमक फ़िल्मफ़ेअर (साथिया और बंटी और बबली) से आगे जाकर स्कर (जय हो,स्लम्डाग मिलेनर,09) तक पहुंच गयी है। आ धू मलूँ (फ़िजा), बंदा ये बिंदास है (अक्स), साथियां (साथियां), मार उडारी (पिंजर), रु-ब-रु (मकबुल), फ़ूंक दे (नो स्मोकिंग), बोल ना हल्के हल्के (झुम बराबर झुम), बीड़ी जलाईले (ओमकारा), तु ही तो मेरी दोस्त है (युवराज), धन ते नान (कमिने) इत्यादि गीत चार्ट बस्टर मे लगातार उपर की पायदानों मे बजे हैं। कजरारे कजरारेने लोकप्रियता के सारे  मानदंड तोड़ दियें है। वैसे इसी दशक में गुलज़ार ने किस आफ़ लव, टिकट टू हालीवुड (झुम बराबर झुम), मरजानी मरजानी (बिल्लु) जैसे गीत भी लिखें है जो उनकी सूची से मेल नहीं खाते। यह शायद प्रयोग की उत्सुकता या फ़िल्म की मांग है परंतु ऐसे गीतों से वे बच सकते हैं। जारी...
यह आलेख वाक के आठवें अंक में प्रकाशित हो चुका है.

रविवार, 23 जनवरी 2011

विवाह गीत


१.
काहे को ब्याहे बिदेस अरे सुन बाबुल मोरे
मैं बाबुल तोरे आंगन की पंक्षी
फ़ुदक फ़ुदक उड़ि जाउं रे
सुन बाबुल मोरे

मैं बाबुल तोरे आंगन की गंइया
जहां बांधो, बंध जाऊं रे
सुन बाबुल मोरे

चार बरस पहले गुड़िआ छोड़ा
छुटा बाबुल तोरा देस रे
सुन बाबुल मोरे

जाई डोली पहूंचि अवधपुर
छूटा जनक तोरा देस रे
सुन बाबुल मोरे

.
सेनुरा बरन हम सुन्दर हो बाबा, इंगुरा बरन चटकार हो
मोतिया बरन बर खोजिहा हो बाबा, तब होइ हमरा बियाह हो
ताल सुखीय गईले पोखरा सुखीय गईले, इनरा परे हाहाकार हो
बेटी के बाबुजी के दलकी समा गईले कईसे में होईहे बियाह हो
जाई ना बाबा अवधपुर नगरिया राजा दशरथ के दुआर हो
राजा दशरथ के चार बेटवा, चारु सं बाड़े कुंवार हो
चार भईया में सुन्दर बर सांवर उनके के तिलक चढ़ाव हो
ताल भरीय गईले पोखरा भरीये गईले इनरा पर परे झझकार हो
बेटी के बाबुजी के खुसिया समा गईल, अब होईहे धर्म बियाह हो.

हमारे समाज में हर रश्म के लिये गीत हैं और ये गीत ऐसे ही नहीं हैं. ये अपने समाज और अपनी परंपरा से जुड़े हुएं हैं. इनका स्रोत पौराणिक संदर्भ और प्राण लोक जीवन है. ये गीत भी मेरी माता जी की डायरी के सौजन्य से.
संकलन- रीता मिश्र


शनिवार, 8 जनवरी 2011

भाषा, ज्ञान और वर्चस्व

स्मृति का यह अनुभव यथार्थ है जो हमारे देश के उच्च शिक्षा के परिसरों में फ़ैला है. यह एक ऐसी स्थिति है जिसमें न जाने कितने वर्षों से उच्च शिक्षा के आकांक्षी विद्यार्थियों के स्वप्न टूट रहे हैं. इसके विरोध में उठी कोई भी आवाज़ नक्कारखाने की तुती है. ये आवाज़ भी सही...

भाषा  अभिव्यक्ति और ज्ञान  की अभिव्यक्ति का एक मूलभूत माध्यम है यह एक मान्य अवधारणा है. या युं कहें कि एक स्वीकृत सत्य है. परन्तु चार्ल्स टेलर के शब्दों मे इससे भी बड़ा सत्य है कि भाषा ज्ञान का निर्माण भी करती है. भाषा सत्य की सरंचना में भी अहम भूमिका निभाती है. ज्ञान और सत्य का रिश्ता जगजाहिर है.
खैर, मेरा उद्देश्य भाषा से जुड़े इन प्रश्नों पर आपका ध्यान दिलाने का नहीं है. मेरी रुचि केवल यह बताने में है कि भाषा  ज्ञान  के निर्माण से जुड़ी है. फ़ुको के शब्दों में ज्ञान  शक्ति के निर्माण में अहम भूमिका निभाता है. अतः भाषा और शक्ति का भी सीधा संबंध है.
यहां मैं भाषा और शक्ति के संबंध को इस बड़े विवादित प्रश्न से नहीं वरन अपने शैक्षणिक अनुभवों से जोड़ने का प्रयास कर रही हूं. बिहार से इंटरमिडियेट की शिक्षा पूरी करने के बाद मैंने दिल्ली विश्वविद्याल में राजनीति विज्ञान  विषय में दाखिला लिया. विषय को ठीक से समझने और उसे व्यक्त करने के कारण और अंग्रेजी में हाथ तंग होने के कारण मैंने हिन्दी को माध्यम के रूप में चुना, तब तक मैं इस बात से अनजान थी कि भाषा की भूमिका अभिव्यक्त की सुविधा ही सिर्फ़ नहीं है.
प्रथम वर्ष में हिन्दी की पुस्तकों पर आश्रित रहने के बाद दूसरे वर्ष में मैंने अंग्रेजी की भी पुस्तकों का उपयोग किया. तीसरे वर्ष में मैंने सिर्फ़ अंग्रेजी की पुस्तकों का सहारा लिया लेकिन परीक्षा में रीमिक्स यानी हिंग्लिश का प्रयोग किया. मेरा नतिज़ा पिछले दो वर्षों से बेहतर था. यह किस्सा इसलिये नहीं बताया कि अंग्रेजी के प्रयोग ने मेरे अंक को बढ़ा दिया. बल्कि इसलिये कि मेरी समझ में धीरे धीरे आना शुरु हो गया था कि हिन्दी को माध्यम के रूप में उपयोग करने वाले के लिये राजनीति विज्ञान  उतना स्पेस नहीं दे सकता. स्नातकोत्तर का प्रथम वर्ष मेरे तीन सालों से भी अधिक संघर्षपूर्ण रहा. विषय की सभी शाखाओं के रीडिंग पैकेज अंग्रेजी में थे और मेरे जैसे बहुत से छात्रों को यह मान कर चलना था कि हमें इसी माध्यम में चीजों को पढना होगा बेहतर अंक और समझ के लिये. यहां से नयी जद्दोजहद शुरु हुई. पहले रीडींग को पढना, पहले पाठ में केवल अंग्रेजी के जटील शब्दों के अर्थ को जानना, दुसरे में अर्थ को संदर्भ में समझने की कोशिश करना, तीसरे में यह समझना की रीडींग किन पहलुओं को उजागर कर रहा है और चौथे में निहितार्थ समझना. अब सोचिये कि जिस पाठ को अंग्रेजी माध्यम के छात्र एक बार में समझ सकते थे उसे हमें चार बार में समझना पड़ता था. और यह समझ भी संतोषजनक नहीं थी क्योंकि अपरिचित भाषा से प्राप्त  ज्ञान  कितना सुदृढ़ होगा ?
प्रथम सेमेस्टर में हिन्दी माध्यम के अधिकांश छात्र फ़ेल हुए, विवशता में अंग्रेजी को अपना माध्यम बनाये छात्रों में से एक मेरी भी स्थिति अच्छी नहीं थी. दूसरे से चौथे सेमेस्टर तक हिन्दी माध्यम के अधिकांश विद्यार्थी या तो इस विषय को छोड़ चुके थे या किसी तरह संघर्षरत थे, पचपन प्रतिशत बनाने के लिये क्योंकि एम.फ़िल. प्रवेश की यह न्युनतम अहर्ता होती है. अब उनका संघर्ष विषय को समझने का नहीं बल्कि अध्ययन को जारी रखने का था.
 यह पूरा दोष भाषा का नहीं है. परंतु यह प्रश्न तो है कि क्या अधिकांश हिन्दी माध्यम के छात्र कमजोर थे. वे प्रतिभाशाली नही थे या उनकी असफ़लता का कारण भाषा भी थी. भाषा का यह भेद भाव नया नहीं है. मेरा क्षोभ इस बात का है कि दिल्ली विश्वविद्यालय या कुछ बड़े केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में राजनीति विज्ञान का अध्ययन केन्द्र हर प्रकार के भेद भाव का अध्ययन करती है चाहे वह जाति का हो लिंग का हो धर्म का हो या समुदाय का हो मगर भाषा के क्षेत्र में जो यहां होता है या पुरे एकेडेमिक क्षेत्र में होता है, उनकी बात क्यों नहीं करते? शायद यह उपेक्षा इसलिये भी है क्योंकि भाषा की तानाशाही कायम रखी जा सके ताकि एक विशेष प्रकार के ग्यान का उत्पादन हो सके जो इनके वर्चस्व को कायम रखने में मदद करे.
मेरा वास्ता उन छात्रों के दर्द से है जिसमें भारत के सुदुर हिस्से से आनेवाले छात्र उच्च शिक्षा हासिल का सपना लिये हजारों मिल दूर आते हैं. परन्तु उनका स्वप्न भाषा की तानाशाही तले कुचल जाता है, इन सपनों के टूटने की जिम्मेवारी कौन लेगा. क्या वे एक अजनबी भाषा के अनुकूल अपने को बनाये या उससे पराजित होकर शस्त्र रख दे. दुनिया की ज्ञान परम्परा गवाह है कि एक अज़नबी भाषा में मौलिक ज्ञान का निर्माण नहीं सो सकता. उसमें तो नकल ही हो सकती है जिसमें हम माहिर हैं. लेकिन एक प्रश्न अंग्रेजी भाषा के साम्राज्यवादियों सी भी है कि क्या वे इन अध्ययन केन्द्रों को समावेशी बनायेंगे ताकि ज्ञान का निर्बाध प्रवाह नीचे तक हो