रविवार, 26 अगस्त 2012

फिक्र करा नादां... भोजपुरी सिनेमा के सिमटते व्यवसाय का एक विश्लेषण


वैसे यह एक शहर का ही मामला हो सकता है, लेकिन हम जानते हैं कि हमारे शहर मिजाज में एक दूसरे से बहुत भिन्न नहीं है. इसलिये इस एक शहर को उदाहरण के तौर पर विश्लेषित कर हम एक परिघटना का अध्ययन कर सकते हैं.
अरसे बाद बगहा में उतरने के बाद मैंने किसी सिनेमाघर में हिन्दी फ़िल्म लगे हुए देखा. बगहा में तीन सिनेमाघर है और बगहा क्षेत्र के जनसंख्या को देखते हुए उनका बाजार भी बड़ा है. स्थानीय कस्बा निवासियों के अलावा इलाके के सटे हुए गांवों के लोग और खास कर देहात और थरूहट के लोग बगहा आकर ही सिनेमा देखते हैं. बगहा पुलिस जिला भी है और अनुमंडल भी. बाजार है और ब्लाक भी. चहल पहल होती है और कारोबार अच्छा चलता है. मैंने देखा कि बगहा मे तीन में से दो हाल में एक में डब किया हुआ दक्षिण का सिनेमा दूसरे में हालिवुड और तीसरे में भोजपुरी सिनेमा लगा हुआ था. भोजपुरी सिनेमा जिस हाल में लगा हुआ था उसका नवीकरण हो रहा था और किसी तरह उसे कामचलाऊ फ़िल्में लगा कर चलाया जा रहा था ताकि हाल बन्द करने की नौबत ना आये और थोड़ी बहुत आय होती रहे. इस हाल में रोज सिनेमा बदलता रहा और  किसी भोजपुरी फ़िल्म का नंबर नहीं आया.
बिहार में अखबारों में भी सिनेमा के प्रदर्शन की सूचना छपी रहती है. अखबार का वह हिस्सा जो भोजपुरी फ़िल्मों से ही भरा रहता था, हिन्दी फिल्मों से भरा हुआ था और भोजपुरी की चल रही फ़िल्मों से अधिक आने वाली फ़िल्मों के विग्यापन अधिक थे जो आगामी दिनों में रीलिज होंगे.
बिहार में अभी सरकार द्वारा सिनेमा उद्योग को प्रोत्साहन दिया जा रहा है और इस क्रम में उनको टैक्ससंबंधी और अन्य छूट भी दिये जा रहे हैं है इसलिये बहुत सारे सिनेमाघरों का जीर्णोद्धार हो रहा है. जीर्णोद्धार का मतलब है हाल में दी गई सुविधाओं का विस्तार और टेक्नोलजी से उनको समृद्ध करना. बगहा में तीन में से एक हाल ने व्यापक स्तर पर पुनर्निमाण किया है. दूसरे का चल रहा है और तीसरे का कुछ दिन पहले हो चुका है. इस सिलसिले में हाल में बेहतर प्रोजेक्शन और ध्वनि से लैस किया जा रहा है. हाल युएफ़ओ तकनीक से जुड़ रहे हैं. बेहतर तकनीक लगा लेने के बाद हाल ने अपने किराये में भी वृद्धि कर दी है. पहले जिस हाल का अधिकतम टिक्ट दर बीस रूपया भी नहीं था अब उस हाल का न्युनतम किराया है बीस रूपया और अधिकतम पचास रूपया. हाल के प्रबंधक के –अनुसार लोग टिकट खरीद रहे हैं और तीस रूपये का टिकट पहले बिक जाता है.  सफाई पर विशेष ध्यान दिया गया है और पान गुटखा खा कर थुकने पर रोक लगाने की कोशिश की जा रही है. (कुछ दिनों पहले मोतीहारी के एक अच्छे सिनेमाघर संगीत में फ़िल्म् देखते हुए महसूस किया कि सबसे कड़ा मोर्चा हाल प्रबंधन के सामने साफ-सफाई का है. सिग्रेट पीने के लिये मना करने पर एक दर्शक से झगड़ा होते होते बचा) चित्रागंदा जो शहर का सबसे पुराना सिनेमा हाल है जिसका हाल ही में नवीकरण हुआ है के प्रबंधक ने स्वीकार किया कि परिवार सिनेमा में लौट है. अभी हाल ही में ‘राउडी राठौड़’ में उन्होंने वितरक को दो लाख पचहत्तर हजार रूपया शेयर दिया है, लाभांश में से जो. ‘एक था टाइगर’ भी वो लगाना चाहते थे लेकिन कमला टाकीज (अन्य स्थानीय हाल) ने इसमें बाजी मारी और अधिक कीमत देकर ले आया. कमला टाकिज ने लागत वसूलने के लिये टिकट दर भी बढ़ा दिया था लेकिन फ़िर भी लोग फ़िल्म देखने के लिये आये और बगहा में मैंने पहली बार अग्रीम बुकिंग की बात सुनी. अब ऐसी स्थिति में भोजपुरी सिनेमा के व्यवसाय का क्या होगा?  चित्रांगदा सिनेमा के प्रबंधक ने स्वीकार किया कि  पचास रूपया देकर कोई भोजपुरी सिनेमा शायद ही कोई देखेगा और् हमारा जोर हिन्दी सिनेमा पर ही है. ‘एक था टाइगर’ के साथ रीलिज हुई  दिनेश लाल यादव निरहुआ की फ़िल्म ‘एक बिहारी सौ पर भारी’ को हाल ने इसलिये लगाया क्योंकि उसे दूसरी फ़िल्म नहीं मिली.
कुछ वर्ष पहले तक स्थिति अलग थी. नई रीलिज हिन्दी फ़िल्में लगाने की हैसियत इन हाल मालिकों की नहीं थी. नई फ़िल्में बिहार में सिर्फ़ उस शहरों में लगती था जहां जिला मुख्यायालय हैं और बाजार बड़ा है. या रक्सौल जैसे शहर में जो सीमावर्ती इलाका है और नेपाल के कुछ दर्शक भी नई हिन्दी फ़िल्म देखने चले आते हैं. नई फ़िल्में कुछ दिनों के बाद जब इन शहरों से उतर जाती तब इन छोटे कस्बों का नंबर आता था. पहले लोग सिनेमा के पर्दे पर सिनेमा देखने चले भी जाते थे. केबल और वीसीडी का प्रचलन नहीं था और हाल कि स्थिति भी अच्छी थी. केबल और वीडियो के संक्रामक आगमन के बाद और हाल की स्थिति में गिरावट के बाद हिन्दी सिनेमा के लिये दर्शक जुटाना इन हाल के लिये मुश्किल हो गया. हिन्दी सिनेमा जब तक इन हाल में लगता तब तक उसे अन्य मध्यमों द्वारा देख लिया गया रहता. पायरेटेड सीडी से लोग घर बैठ कर अपनी सुविधा के अनुसार छोटे पर्दे पर ही सिनेमा देखने लगे. इससे कम मूल्य भी चुकाना पड़ता और हाल की गंदगी, सीलन भरे माहौल में नहीं जाना पड़ता था. और कस्बों का जो आभिजात्य और सामंती आचरण होता उसकी भी तुष्टी होती. ऐसे समय में भोजपुरी फ़िल्मों ने ही इन सिनेमाघरों  को बचाया था. कई सिनेमाघर मालिक इस बात को स्वीकारते हैं. यह वह समय भी था जब मल्टीप्लेक्स के दर्शकों को पकड़ने के चक्कर में हिंदी सिनेमा में वह मास अपील समाप्त हो रही थी. चुंकि एक बड़ा तबका उस कहानी और शिल्प से परिचित नहीं था इसलिये इन इलाकों में फ़िल्में भी धड़ाधड़ पिट रही थी. भोजपुरी फ़िल्मों के बाजार ने रंग पकड़ा. हमारे इलाके के बहुत सारे लोग आज भी सिनेमा देखने नहीं जाते, जो जाते थे उनमें से बहुत से लोग सिनेमाघर के माहौल और घर में देख लेने की सुविधा के चलते नहीं जाते. बाजार आने वाले, केबल और सी.डी. से दूर रहने वाले और जहां बिजली नहीं गई है, छात्र और पक्के सिनेमची लोग ही दर्शक है. इस दरम्यान भोजपुरी की कच्ची पक्की सभी फ़िल्मों ने कमाई की. लेकिन किसी ने इस बात को नहीं समझा या कोशिश भी की कि गुणवत्ता में निरंतर बढ़ोत्तरी कर के ही इस बाजार को कायम रखा जा सकता है. अभिनय, कथ्य, शिल्प, भाषा और प्रोडक्शन स्तर पर किसी भी स्तर पर भोजपुरी फ़िल्मों में सुधार नहीं देखा जा रहा. इक्क दुक्का को छोड़ ही दें. प्रोडक्शन वैल्यु तो इतनी खराब है कि पूछिये मत, और संदेह भी होता है कि प्रोडक्शन वैल्यु का मतलब भोजपुरी के निर्माता समझते भी हैं. हिन्दी सिनेमा की बेसिर-पैर नकल के साथ दक्षिण भारतीय फ़िल्मों की नकल, हिंसा और सेक्स परोसते परोसते ऐसा लगता है कि भोजपुरी फ़िल्मों ने दर्शकों को अघा दिया है. संगीत में भी व्यापक गिरावट है. हालिया भोजपुरी फ़िल्मों के गाने उतने लोकप्रिय नहीं हुए. भोजपुरी फ़िल्मों का प्रचार तंत्र अभी भी परंपरागत है. पोस्टर और अखबार के विग्यापन के सहारे प्रचार होता है और सिनेमाघर रिक्शे, जीप, टमटम  आदि पर लाउड स्पीकर घुमाकर प्रचार करते हैं. भोजपुरी के चैनलों पर भी प्रचार नहीं होता. ऐसे में भोजपुरी के अभिनेताओं को स्टार कहलाने का नशा लगा है. उन्होंने अपनी कीमते बेतहाशा बढ़ाई है, फ़िल्म के लागत पर असर पड़ा है और स्टार वैल्यु का बाजार वैल्यु से कोई रिश्ता नहीं दिख रहा फ़िर भी उसको बरकरार रखने का उनका पी.आर. तंत्र जी जान से लगा है. (गनीमत है कि वह अभी वर्चुअल दुनिया में अधिक है जहां स्टारी मद में डुबी तस्वीरें हम देखते हैं आये दिन) लेकिन यह स्टार खुद देखने में अक्षम है कि उनके नीचे की जमीन खिसक रही है.
ऐसा हुआ गज़नी के बाद. गजनी ऐसी फ़िल्म थी जो मास एंटर्टेनर थी और उस समय तक सबसे अधिक प्रिंट के साथ भारत भर में रीलिज हुई थी. फ़िल्म एक साथ मुंबई और दिल्ली और  बगहा जैसे छोटे कस्बे में रीलिज हुई थी. हिन्दी फ़िल्मों के प्रमोशन की आक्रमकाता (आमिर खान की फ़िल्मों की खासकर), उसके प्रति दर्शकों की उत्सुकता और नई फ़िल्म देखने के उत्साह ने हाल मालिक की जेब को भर दिया. अब ऐसी मास एंटरटेनर कहलाने वाली फ़िल्में हाल मालिकों के लिये मुनाफ़े का सौदा हो गई और वह ऐसी फ़िल्में लगाने लगे. हिन्दी सिनेमा भी मसाला फिल्मों की ओर लौटा और ऐसी फ़िल्म बनाने का प्रचलन बढ़ा. सलमान खान की फिल्मों ने इस फ़ेनामेना को भुनाया. दबंग के बाद उनकी सभी फ़िल्में एक साथ हर बार अधिक प्रिंटो के साथ रीलिज हुई और कमाई के आंकड़ों (तथाकथित ही सही) में इन जगहों का भी योगदान रहा. सौ करोड़ वाली फ़िल्में और मास एंटरटेनर बनाने की जो होड़ चली उसमें सभी फ़िल्मों ने इन सिनेमाघरों में कमाई की. गोलमाल, सिंघम, राउडी राठौड़, थ्री इडियट, हाउसफुल २, बोल बचन,  इत्यादि सभी फ़िल्में इन सिनेमाघरों में रीलिज हुई. इसलिये ‘एक था टाइगर’  के लिये वितरकों ने मुंहमागी कीमत इन सिनेमाघरों से ली.  अब ऐसी एंटरटेनर फ़िल्में जिसमें प्रोडक्शन क्वालिटी है और हिट बनाने के लिये बे सिर पैर के सभी फ़ार्मुलों का इस्तेमाल है और जो कामयाब भी हो रही हैं इसने भोजपुरी फ़िल्मों को बाहर रास्ता दिखाया. एक हिन्दी सिनेमा दुसरे के लिये रास्ता छोड़ रही है, भोजपुरी सिनेमा के लिये हाल कम हो रहे है.  दक्षिण की भी एक्शन फिल्में डब होकर इन कस्बों में आ रहीं है और हालीवुड की भी. हिन्दी फ़िल्में हर बार पहले से अधिक प्रिंट के साथ रीलिज होती है और यु.एफ़.ओ. के जरिये भी सिनेमाघरों में पहूंचती हैं. हिन्दी सिनेमा के कमाई  का फ़ार्मूला  है जितना अधिक प्रिंट उतनी अधिक कमाई. भोजपुरी फिल्मों का वितरण तंत्र इस मामले में और भी खराब है. वह एक साथ सभी क्षेत्रों में रीलिज भी नहीं होती. मुंबई, उत्तर प्रदेश, और बिहार में एक ही फिल्म अलग अलग समय पर लगती है. साथ ही,  भोजपुरी सिनेमा जिन सिनेमाघरों में लगता रहा है उसे  कमतर माना जाता रहा है. इसलिये सिनेमाघरों का नवीकरण होने के बाद सिनेमाघर प्रबंधन भोजपुरी सिनेमा लगाने में हिचक रहा है. चित्रागंदा के प्रबंधक ने स्वीकार किया कि भोजपुरी के दर्शक शायद ही ५० रुपया देकर फ़िल्म देखेंगे जबकि हिन्दी सिनेमा लगाने से वो लोग लौट रहें हैं सिनेमाघरो में जो हाल में  सिनेमा देखना छोड़ चुके थे. टिकट के लिये लाईन लग रही है और उन दर्शकों को रोकने के लिये हम सुविधायें बढ़ा रहें  हैं. इसीलिये चित्रांगदा किसी भोजपुरी फ़िल्मों को चलाने के बजाय पिरान्हा और किंग कांग जैसी डब फ़िल्में चला रहा है और ध्रुव टाकिज रगड़ा. एक था टाइगर के साथ निरहुआ कि एक बिहारी सौ पर भारी रिलिज हुइ लेकिन निरहुआ बेचारे एक कमजोर और घिसीपिटी फ़िल्म से एक था टाइगर के सलमान खान, स्टंट और कैटरिना के आकर्षण का मुकाबला कैसे कर पायेंगे.
अब ये समय है कि ‘स्टार’ अपने ‘सुपरस्टारी’ आभा से निकले और क्वालिटी फ़िल्में बनायें. तीन स्टार एक साथ आने या एक बिहारी सौ पर भारी जैसी नारेबाज फ़िल्म बनाने और डकैत, ज्वालामंडी  के रूप में   हिन्दी फ़िल्मों की फ़ुहड़ नकल भोजपुरी फ़िल्मों के व्यवसाय को रसातल में धकेल रही है. वर्चुअल स्पेस पर, अखबारो, पत्रिकाओं में जयगान करने वाले पी.आर. से बच कर भोजपुरी फ़िल्मों के ‘धंधेबाज’ अपने ‘धंधे’ को बचाने की फिक्र करें. हम प्रलाप के सिवा क्या कर सकते हैं.