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गुरुवार, 11 अगस्त 2011

रामनाथ का जीवन चरित्र- हबीब तनवीर


इस कविता को पढ़ते हुए रघुवीर सहाय की कविता रामदास की याद आती है. परन्तु  हबीब साहब की इस कविता की जमीन वहीं लेकिन विवरण अलग है. यह कविता १९६२ में लिखी गई थी. रघुवीर सहाय की रामदास कविता जो ‘हंसो हंसो जल्दी हंसो’ संग्रह  में थी का रचना काल १९७०-७५ है. पेश है हबीब तनवीर की कविता…

रामनाथ का जीवन चरित्र

रामनाथ ने जीवन में कपड़े पहने कुल छः सौ गज़
पगड़ी पांच
जुते पन्द्रह
रामनाथ ने अपने जीवन में सौ मन चावल खाया
सब्जी दस मन
फ़ाके किये अनगिनत
शराब दो सौ बोतल
पूजा की दो हजार बार
रामनाथ ने अपने जीवन में धरती नापी कुल जुमला पैंसठ हजार मील

सोया पंद्रह साल
प्यार की रातें उसे मिलीं दो ढाई हजार
उसके जीवन में आईं बीबी के सिवा कुल पांच औरतें
एक के साथ पचास की उम्र में प्यार किया और प्यार किया नौ साल

सत्तर फ़ीट कटवाये बाल
स्त्रह फ़ीट नाख़ून
रुपया कमाया दस हजार या ग्यारह
कुछ रुपया मित्रों को दिया कुछ मंदिर को
और छोड़ा आठ रुपये और उन्नीस नये पैसे का कर्ज
बस यह गिनती रामनाथ का जीवन है
इसमें शामिल नहीं चिता की लकड़ी, तेल, कफ़न
तेरही का भोजन
रामनाथ बहुत हंसमुख था उसने पाया एक संतुष्ट सुखी जीवन
चोरी कभी न की
कभी कभार अलबत्ता कह देता बीबी से झूठ
गाली दी, दो तीन महीने में एक-आध
एक च्युंटी भी नहीं मारी
बच्चे छोड़े सात।
भूल चुके हैं गांव के सबलोग उसकी हर बात
रामनाथ!   (हबीब तनवीर-एक रंग व्यक्तित्व में संकलित)

मंगलवार, 12 जुलाई 2011

कविता

१.

चादर जो सर पे होती थी खीच ली किसी ने,
धुप आज कल उस रोशनदान से सीधे चेहरे पे आती है
कुछ तो नहीं है नया अब सुबह के होने में
फिर क्यों ये कुछ नए की आस जगाती है
फिर सुबह का आना,
नाउम्मीदी का आँखों के रास्ते मन में उतर आना,
जैसे शून्य का शून्य को गले लगाना (स्मृति)

२.
 नज़र चुराने लगे हैं अंधेरे भी
उजालों की क्या कहें
दोस्त कुछ थे, अब…
और दुश्मन ?
बनाये नहीं कभी
नींद भी कम्बख्त आती नहीं
आंख बंद करते ही दिख जाती है
तस्वीर…(अभिषेक)

रविवार, 24 अप्रैल 2011

कविता - विशाखा प्रकाश

हर दिन एक नयी तलाश ! प्यास अनबूझ प्यास !
ज़हन में दौर रही थी ये बात , और आंख लग गयी .
जब खुली तो अजीब सी रोशिनी दिखी मटमैली सी 
रोशिनी , उम्मीद और इछाओं का भेद लेने वाली 
रोशिनी थी वह.

मन चोर बन गया मेरा , भेदों से भर गया जब 
कोई भेद न पाए ज़हन में कौंध गया तब .
 न जाने कितने भाव ओढ़ लिए मैंने 
फटाफट, मज़ा आने लगा हर करवट में तब 
हर तरफ सन्नाटा था वहां और मैं 
वीरान मैदान सी खड़ी सुन रही 
थी उस सन्नाटे को , 
सन्नाटा राग सुना रहा था ! 
मैं श्रोता बनी खड़ी
थी .

मैदान में हरियाली छाने लगी थी,
सन्नाटे के सुर में सुर मिला लहरा रही थी, 
मन मोह लेती आह्लादित किये देती थी .
कि अचानक फिर प्यास जगी मन में,
भागती भीड़ में समां गयी, 
खुद को अकेला देख कुम्भला गयी.

अरसे बाद फिर रोशिनी आयी वही 
मट- मैली , जादू भरी रोशिनी. 
पर मन चोर न बना इस बार 
नए उमीदों के पंख लगा मंडराने लगा 
आकाश . 
विशाखा प्रकाश चित्रकार हैं और जब चित्र नहीं बनाती कविता लिखती हैं.

शुक्रवार, 15 अप्रैल 2011

तुमने कहा था- स्मृति

तुमने कहा था
करनी ही  होगी सत्य की पड़ताल.
उस सत्य की जो अनिर्मित है ,
उस सत्य की जो अनिश्चित है ,
उस सत्य की जिसमे संसार निहित है ,
या फिर उस सत्य की जिससे जग निर्मित है,
तुमने कहा था करनी ही होगी सत्य की पड़ताल.
मैंने भी माना करनी ही होगी सत्य की पड़ताल 

सत्य जो तुम्हारी लेखनी में है ,
सत्य जो तुम्हारी शक्ति में है ,  
सत्य जो उस अशांति में है जो इस शक्ति का स्रोत है ,
यह वही सत्य है जिसने आसक्ति और अनासक्ति के बीच की सीमाए धुंधली कर  दी है,
हां यह सत्य है की इस सत्य पर  मेरा संदेह है     
मगर संदेह हमेशा से असत्य  है फिर उसका क्या
मगर संदेह हमेशा से असंतोष  है फिर उसका क्या 
संदेह तो छनिक है , शाश्वत है तो बस मेरे और तुम्हारे बीच  का सत्य   
वह सत्य जिसमे किसी के जीवन खोने का भय है ,
वह सत्य जिसमे भरोसे के टूटने का भय है 
मगर भय तो छनिक है ,शाश्वत है तो मेरे तुम्हारे बीच का सत्य ,
तुम्हारी अशांति की निरंतरता में मेरी शांति को स्थिरता मिल जाने का सत्य 

शुक्रवार, 1 अप्रैल 2011

किसका ‘बिहार दिवस’ ?


सामान्य तौर पर अस्त व्यस्त दशा में जाने वाले विद्यार्थियों को मैने जसज संवर कर विद्यालय जाते हुए देखा तो कौतुहल से पूछ बैठा, क्या बात है आज? आज बिहार दिवस है. स्कूल में प्रोग्राम है. मैं वहीं से घर लौटा तैयार होकर स्कुल जाने के लिये. गांव के स्कूल में आज तक मुझे कुछ भी देखने का मौका नहीं मिला. घर पहूंचने से पहले ही कुछ विद्यार्थियों को लौटते देखा. पता चला कि माइक का इन्तेजाम ना हो पाने से प्रोग्राम नहीं होगा. दोपहर में छत से देखा, कतारबद्ध होकर छात्र नारा लगाते हुए चले जा रहे थे. अगले दिन अखबार में कई शहरों में निकली ऐसी और रैलियों की तस्वीरें थी. बिहार की स्थापना के निन्यावे साल पूरा होने पर मनने वाला सरकार प्रायोजित उत्सव शुरू हो चुका था. पर इन रैलियों में विद्यार्थियों के अलावा गांव के किसी आदमी की कोई दिलचस्पी नहीं थी, कोई भी इसकी चर्चा नहीं कर रहा था.
शाम को मैं बगहा आ गया. नौ बजे रात को ट्रेन बगहा पहुंची थी. रिक्शा एस.पी. आफ़िस से गुजरा तो मैने देखा कि दीप जले रहे हैं, इसी तरह बगल में पुलिस लाईन में, आगे बढने पर शस्त्रागार, एस.डी.एम. निवास, प्रखंड, कार्यालय पर भी दीप जल रहे थे. पापा ने बताया की सभी कार्यालयों में निन्यावे दीप जलाये जाने हैं. वैसे शहर अंधेरे में डूबा हुआ था. पुलिस लाइन में बकायदा एक कार्यक्रम हो रहा था लोक संगीत का. दूसरे दिन प्रतिक्रिया मिली कि निहायत ही बेसुरा कार्यक्रम था.
दूसरे दिन, यानी बिहार उत्सव के दूसरे दिन कवि सम्मेलन था रात्री में. बगहा में बहुत दिन बाद कवि सम्मेलन हो रहा था और संयोग से मैं उपस्थित था. जाना तो लाज़िम ही था. म्मेलन स्थपर पहूंच के निराशा हुइ. सम्मेलन का समय हो गया था पर श्रोताओं की संख्या काफ़ी कम थी. वैसे आम तौर पर कवि सम्मेलन में अधिक श्रोता की अपेक्षा नहीं की जाती. बगहा को मैंने हमेशा अपवाद के रूप में देखा है. वहां हमेशा सम्मेलनों में श्रोताओं को जगह के लिये मैनें जूझते देखा है. खैर, कार्यक्र्म विलंब से शुरु हुक्योंकि अतिथि कवि और आयोजक देर से पहूंचे थे. यहां यह बात गौर करने की है कि है कि कवि सम्मेलन की योजना आरक्षी अधीक्षक महोदय की थी जो स्वंय एक कवि हैं. इस अवसर पर उन्होंने बगहा पुलिस जिले के गणमान्य कवियों को सम्मनित भी किया. एस.पी साहब के उत्साह और उनकी काव्य प्रतिभा की लगभग सभी कवियों ने प्रशंसा की (अहोभाग्य और बलिहारि जाउं की तर्ज़ पर). मैंने सोचा की आजकल पुलिस अधिकारी इतनी अधिक मात्रा में साहित्यकार के तौर पर क्युं सामने आ रहें हैं? खैर, जैसे तैसे कवि सम्मेलन शुरु हुआ. बिहार दिवस से जुडी कविताओं की भरमार रही. एक-एक कर के कवि कविता पढने लगे और श्रोता स्थल छोड़ने लगे. मेरे जैसे कुछ दुर्धर्ष श्रोता अंत तक जमे रहे. बगहा के कवि सम्मेलनों में मैं इसे याद नहीं ही करना चाहुंगा. मैंने सोचा अगर बगहा में कवि सम्मेलन की बेहतरीन परंपरा मर चुकी है तो उसे इस रूप में जिलाना मुर्दे को कब्र से बाहर निकालना है. जो गंध तो फ़ैलायेगा ही. कवि गण यह अवसर पाकर प्रसन्न थे कि उन्हें मंच मिल रहा है. तीन चार को छोड़ कर अधिकांश ने निराश किया. उम्मीद के विपरीत एस.पी. साहब ने कुछ अच्छे शेर कहे. वयोवृद्ध कवि ने वसंत का गीत गाया लेकिन श्रोताओं को लगा कि बुढारी में जवानी के गीत गाना उचित नहीं. कुछ कवि जमे क्योंकि उनके पास मंच पर जमने वाली कवितायें थी, श्रोताओं के अनुकूल.
तीसरे दिन उसीं मंच पर शास्त्रीय नृत्य और संगीत का कार्यक्रम था. मैंने इस के ऊपर भोजपुरी फ़िल्म देखने को वरीयता दी. लौटते समय कार्यक्रम स्थपर गया तो पाया कि कुल पच्चीस लोगों के बीच एक गायक हार्मोनियम पर गा रहें और तबले पर एक वाद्क उनका साथ दे रहें है. खबारों से सूचना मिली की कुछ लोक नृत्य के भी कार्यक्रम थे. खैर बगहा मेंअखबारों के अलावा किसी के लिये बिहार दिवस चर्चा का बिंदु नहीं था. बिहार दिवस मनाने के लिये उपर से फ़ंड और आदेश भी पारित हुआ थ. लेकिन स्थानीय प्रशासन ने सारा खर्च निपटाने की खुद जिम्मेवारी ले ली थी और बिना लोगों को जोड़े कार्यक्रम संपन्न करा लिया.
बगहा में रेलवे गुमटी के पास एक लोक गायक बैठता है. मैनें उससे पूछा कि बिहार दिवस के इस आयोजन में आपको किसी ने नहीं याद किया. उसने शांत स्वर में कहा कि हम लोगों को कौन पूछता है. बिहार दिवस एक मौका हो सकता था इन कलाकारों को मंच देने का. क्योंकि ये लोग कुछ ऐसी कलाओं को जीवित रखे हुएं हैं जो इनके  खतम होने के साथ खतम हो जायेगा. इस अवसर पर प्रशासन ने यह गंवा दिया. सरकारी आदेश के यांत्रिक पालन का यहीं नतीज़ा होता है. नितीश कुमार को यह कोशिश करनी चाहिये कि आगामी बिहार दिवस बिहार की जनता मनाये. प्रशासन की भागीदारी जिसमें कम से कम हो. नहीं तो आयोजन सरकारी कवायद बन के रह जायेगी.
 अंत में, शायर खुर्शीद अनवर का यह शेर अर्ज़ है;
फ़सुर्दगी के वो लम्हात जो कि बीत गये
ना उनकी याद दिलाओ बिहार दिवस है.