हर दिन एक नयी तलाश ! प्यास अनबूझ प्यास !
ज़हन में दौर रही थी ये बात , और आंख लग गयी .
जब खुली तो अजीब सी रोशिनी दिखी मटमैली सी
रोशिनी , उम्मीद और इछाओं का भेद लेने वाली
रोशिनी थी वह.
मन चोर बन गया मेरा , भेदों से भर गया जब
कोई भेद न पाए ज़हन में कौंध गया तब .
न जाने कितने भाव ओढ़ लिए मैंने
फटाफट, मज़ा आने लगा हर करवट में तब
हर तरफ सन्नाटा था वहां और मैं
वीरान मैदान सी खड़ी सुन रही
थी उस सन्नाटे को ,
सन्नाटा राग सुना रहा था !
मैं श्रोता बनी खड़ी
थी .
मैदान में हरियाली छाने लगी थी,
सन्नाटे के सुर में सुर मिला लहरा रही थी,
मन मोह लेती आह्लादित किये देती थी .
कि अचानक फिर प्यास जगी मन में,
भागती भीड़ में समां गयी,
खुद को अकेला देख कुम्भला गयी.
अरसे बाद फिर रोशिनी आयी वही
मट- मैली , जादू भरी रोशिनी.
पर मन चोर न बना इस बार
नए उमीदों के पंख लगा मंडराने लगा
आकाश .
विशाखा प्रकाश चित्रकार हैं और जब चित्र नहीं बनाती कविता लिखती हैं.
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