रविवार, 30 अगस्त 2009

छात्र राजनीति के बहाने


भईआ लिंगदोह साहब का डंडा तो कुछ ज्यादा ही जोर से छात्र राजनीति को लगा है। कुछ संगठनों को तो ऐसा लगा है जो बहुत भभा रहा होगा। इस डंडे का असर छात्र राजनीति के दो जीवित विश्वविद्यालय ज.ने.वि. (J.N.U.) और दि.वि.(D.U.) पर कुछ ज्यादा ही है। क्योंकि अपन भी दिल्ली में रहते हैं और इनमें से एक विश्वविद्यालय के छात्र हैं तो इस का असर महसुस कर रहे हैं। ज.ने.वि. के बारे में बात करने से अच्छा है कि दि.वि. के बारे में बात की जाये क्योंकि इसकी छात्र राजनीति को करीब से देखा है। मनी, मसल औए फ़ेस के इर्द गिर्द घुमती राजनीति की धारा इस बार अलग दिशा में ही मुड गयी है। इससे अपना स्थान बनाने के लिये कई सालों से संघर्ष कर रहे वामपंथी छात्र संगठन उत्साहित हो गये हैं। दो मुख्य दलों के एकाधिकार में फ़ंसी डुसु शायद ही अपना औचित्य सिद्ध कर सके यदि उससे पुछा जाये कि फ़ेस्ट और रक्त्दान शिविर के आयोजन के अतिरिक्त उसके कुछ और कार्यक्रम भी हैं। मुझे तो याद ही नहीं कि कक्षा के नियमित संचालन, आंतरिक मूल्यांकन, रैगिंग, छात्रावास, बाहरी तत्त्वों के प्रवेश इत्यादि मुद्दों को लेकर कभी किसी छात्र संगठन ने कुछ कहा हो। मुद्दे और भी गिनाये जा सकते हैं पर जब ये प्राथमिक मुद्दे ही ध्यान में नहीं है तो गुढ मुद्दों की कौन फ़िक्र करे। प्रचार के दौरान के हो हल्ला,आपसी झडप,गुंडा गर्दी, छेडखानी के बढने से आम छात्र धीरे धीरे इस राजनीति से कटते गये हैं। पिछले साल के पहले तक दि.वि. पोस्टरो से नारों पटा रहता था । पिछले साल से लगी रोक के बाद इस साल विश्विद्यालय की सक्रियता से हो सकता है कि इस बार कि गहामा गहमी कम हो जाये। लेकिन उन छात्रों या छात्रनुमा लड्कों का नुकसान हो सकता है जिनके लिये ये कमाई का मौसम था। हास्टलर्स को अफ़सोस हो सकता है कि दारु की धार कुछ पतली हो सकती है। वोट के ठेकेदार दुखी हो सकते हैं कि जिससे वो मोल जोल कर सकते थे वो मैदान में ही नहीं है। वो नेता हाथ मल रहे होंगे जिन्होंने अपने उमीदवारों के पीछे पूरी लामबंदी कर ली थी। मातृ दल भी सोच में जरूर होंगे।
इसीलिये लिंगदोह साहब की सिफ़ारिशों की छात्र संगठनों द्वारा जम के आलोचना की जा रही है। इसे छात्र राजनीति को कुंठित करने का कदम बताया जा रहा है। मैं तो इसकी बारीकी नहीं जानता पर अपने अनुभव से अवश्य ही कह सकता हूं कि यह अंकुश जरूरी है। अगर छात्र राजनीति छात्र के तरिके से नहीं संचालित हो रही तो फ़िर उसे छात्र राजनीति क्यों कहा जाये। यह मानने में तो किसी को गुरेज नहीं होगा कि छात्र राजनीति अपनी रचनात्मकता खोती जा रही है। अच्छा यह होगा कि यह अतिशीघ्र अपनी रचनात्मक जिम्मेदारी सम्भाल नहीं तो सत्ता और मुख्यधारा इसके प्रभाव से अवगत है और इसे कुंद तो करना ही चाहती है।