शनिवार, 23 जनवरी 2010

भारंगम एक संक्षिप्त रिपोर्ट-2

भारंगम एक संक्षिप्त रिपोर्ट
भारंगम का दूसरा सत्र शुरु हुआ एकल प्रस्तुति ‘मैं राही मासूम’ से. ‘भास्कर सेवाल्कर’ निर्देशित इस प्रस्तुति का आलेख ‘सूत्रधार’ द्वारा आयोजित एक कार्यशाला में तैयार किया गया था. ‘विनय वर्मा’ ने अपने अभिनय से राही के जीवन, विचार, साहित्य और सपने को उजागर कर दिया. राष्ट्र के प्रति प्रतिबद्धता और धर्मनिर्पेक्षता के प्रति उनके कट्टर रुझान ने उनके व्यक्तित्व को मजबुती दे दी थी. उनकी यह चिंता कि हिन्दुस्तान का ‘दाखिल खारिज’ किस समुदाय, धर्म, जाति या पार्टी के पास है जो उसे अपना मानने का दावा करता है। खाली रंगमंच पर एक टाइपराइटर, एक बिस्तर के सहारे बडी आसानी से राही के संसार को रचा गया. शायरी के इस्तेमाल से संवाद में रोचकता आ गयी थी. दर्शकों के द्वारा भी यह प्रस्तुति पसन्द की गयी.
‘ट्रोजन विमेन’ रा. ना. वि. के सद्यः उत्तीर्ण डिजाईन और निर्देशन स्नातक ‘टी.एन.कुमारदास’ की प्रस्तुति थी. इस बार के भारंगम में ऐसे पांच स्नातकों की प्रस्तुति का प्रदर्शन किया गया उनके कार्य को विस्तृत दर्शक समुदाय उपलब्ध कराने के लिये. इस कडी में यह पहली प्रस्तुति थी. प्रसिद्ध दार्शनिक सार्त्र का यह नाटक युद्ध और उसके बाद नारियों के उत्पीडन पर आधारित है. ट्राय के पतन के बाद बची स्त्रियों अकेली रह जाती है क्योंकि सारे पुरुष मारे जा चुके हैं और बचे हुओं को दास बनाने के लिये ले जाया जा चुका है. मुख्यधारा का स्त्रियों के प्रति उपेक्षा भाव और उनके दमन को निर्देशक ने अपना आधार बनाया था. इस प्रस्तुति मे बहुमुख के मंच वाले हिस्से के विपरित वाले हिस्से में रंगस्थल बनाया गया था. खुन से भरे जल में पैर रखते हुए प्रवेश और प्रस्थान से क्रुरता और हिंसा व्यंजित हो रही थी. पुरुष भी स्त्री पात्रों की भुमिका में थे. ‘तौकिर’ ने अपने अभिनय से सबको प्रभावित किया. लाऊड मेकअप और संगीत योजना से तालमेल के अभाव के बीच इस प्रस्तुति का स्तर साधारण ही रहा.
हबीब साहब की मृत्यु के बाद उनके समुह की सक्रियता कम नहीं हुइ है. नया थियेटर लगातार देश के विभिन्न हिस्सों मे प्रस्तुति दे रहा है. और उसकी चमक कम नहीं हुई है. हबीब साहब का जादु चल रहा है. इस भारंगम में उनके द्वारा निर्देशित और रुपांतरित नाटक ‘कामदेव का सपना वसंत ऋतु का सपना’ का मंचन हुआ. इसके दोनो शोज में दर्शकों की भीड उमड पडी. शेक्सपीअर के कामेडी ‘मिडसमर नाईट्स ड्रीम’ से कुछ हिस्सों को ले कर हबीब साहब ने यह प्रस्तुति तैयार की थी। छत्तीसगढी बोली, गीत संगीत और नृत्य से उनकी प्रस्तुतियां मनोरंजक हो जाती है. और यह पूरा एक टीमवर्क होता है. इस प्रस्तुति ने दर्शकों क भरपूर मनोरंजन किया. यह प्रस्तुति विभिन्न शैलियों के मिक्सचर से तैयार किया गया है. इसमें एक साथ संस्कृत, ग्रीक, यथार्थवादी, लोक, पारसी और आधुनिक रंगमंच की विशेषताएं हैं. इस नाटक को मैं अभिजात्य रंगमंच के उपर व्यंग्य के रूप में देखता हूं.
‘शकुंतला’ पाकिस्तान के नापा(NATIONAL AKEDEMY OF PERFORMING ARTS) रंगमंडल की प्रस्तुति थी. ‘जैन अहमद’ जो नापा में प्राध्यापक हैं उन्होने यह प्रस्तुति तैयार की थी. इसकी खासियत थी कि इसमें नृत्य सरंचना के द्वारा ही रंगमंच का पूरा वितान खडा किया गया था. सभी पात्र दुष्यंत और शकुंतला की भुमिका में थे. इससे उनका अंतर्द्वंद्व उभर रहा था. यह एक अच्छा प्रयोग था. एक प्रकार का यह मनो शारीरिक रंगमंच था . नाटक की भाषा भी बडी आकर्षक थी. अभ्यास और तालमेल के अभाव से यह प्रस्तुति उतनी प्रभावी नहीं हो पाई. यद्यपि दर्शकों ने पाकिस्तानी कलाकारों का जी भर के उत्साहवर्धन किया.
इसी दिन देखी गयी दूसरी प्रस्तुति ‘बेहद नफ़रत के दिनों में’ अनुभव बेहद निराशाजनक रहा और प्रस्तुति बीच में ही छोडना पडा. ‘मुशर्रफ़ आलम जौकी’ की कहानी पर आधारित यह मल्टीमिडिया प्रस्तुति थी. जिसमे एक पाकिस्तानी लडकी के हिन्दुस्तानी लडके से इंटरनेट प्रेम और विवाह की कहानी थी, एक बेहद संवेदनशील मुद्दे की बाजारु प्रस्तुति थी यह. कुछ दर्शक भी ऐसे हैं जिन्हे ऐसी प्रस्तुति पसन्द है.
‘रजत कपुर’ निर्देशित प्रस्तुति ‘हेमलेट द क्लाउन प्रिंस’ बेहद उम्दा प्रस्तुति थी. मैंने इस प्रस्तुति को इस भारंगम की बेहतर तीन प्रस्तुतियों में रखा है. नाटक की कहानी यह थी कि जोकरों का एक समुह शेक्सपीअर के ट्रेजडी हेमलेट करने का निर्णय लेता है. इस पक्रिया में वे नाटक की भिन्न भिन्न निषकर्षों पर पहूंचते हैं. कभी गलत व्याख्या करते हैं कभी नया अर्थ तलाश लेते हैं और गडबडी तो उनके साथ होती ही रहती है. नाटक के प्रदर्शन के लिये वो अंग्रेजी और गिबरिश मिली हुई भाषा का प्रयोग करते हैं. वे अलग अलग भागों का संपादन करते है.कुछ महत्त्वपूर्ण दृश्यों को नाटक से निकाल देते हैं उनका क्रम बिगाड देते है. फ़िर भी उनका प्रयास दर्शको को मोहित कर लेता है क्योंकि जो भी वो करते हैं उसमें वे कहानी के अंदर केवल उस अर्थ संदर्भ को खोजने का प्रयास करते हैं जो हमारे समय संदर्भ के अंदर मौजुद हैं. लगभग सादे स्टेज पर कुछ पर्दों और ज्यादातर अपने अभिनय के सहारे अभिनेता मे उच्च कोटि के रंगानुभव की सृष्टि की. आशु अभिनय(improvisation) से वो दर्शको को नाटक में खींच के लाते थे तो नाटक को तोडते भी थे. अतुल कुमार ने नायाब अभिनय किया. अभिनय के चारों अंगो का सन्निवेश उनके अभिनय में था. लाईट संयोजन भी नाटक में उल्लेखनीय चीज थी.
उभरते हुए रंगकर्मी ‘मानव कौल’ निर्देशित और लिखित नाटक ‘ऐसा कहतें हैं’ एक ऐसी प्रस्तुति रही जिसमें अभी संभावनायें हैं और जिसका आलेख अभी स्थिर नहीं माना जाना चाहिये. एक रेलवे प्लेटफ़ार्म पर विभिन्न तरिकों से एक पुरुष शादी का प्रस्ताव रखता है. स्त्री उससे एक सुखांत प्रेम कहानी सुनाने को कहती है तभी वह उसका प्रस्ताव स्वीकार करेगी. पुरुष तीन कहानियां सुनाता है. सर्कस से भागे दो कलाकारो. की, जिंदगी से भागे आत्महत्या की कोशिश में लगे और उसकी मददगार की और एक झुठे दुकान दार की. इसी प्लेटफ़ार्म पर एक कबुतर का परिवार है जिसमें एक कौवा है जो अपनी पहचान खोजने को आतुर है. कबुतर की कहानी में ही शाश्वत प्रश्नों को उठाया गया है. इसमें एक चाय नाम का पात्र भी है जो तीनों कहानी में मौजुद है. नाटक के अंत को दर्शकों के लिये खुला रखा गया था इतने स्तरों के कारण नाटक का समग्र प्रभाव अपेक्षित नहीं रहा. प्रस्तुति को और संपादित करने की आवश्यक्ता है. रेलगाडी की आवाज और प्रकाश प्रभाव एवं गीत इस प्रस्तुत्ति की खासियत थी.
‘ब्रोकेन इमेजेस’ ‘अलीक पदमसी’ द्वारा निर्देशित प्रस्तुति थी. ‘गिरिश कर्नाड’ अपने इस आलेख का निर्देशन स्वंय भी करते हैं और उसमें ‘अरुंधती नाग’ अभिनय करती हैं. इसमें ‘शबाना आजमी’ थी. उनका आकर्षण दर्शकों को खीच लाया था. उन्होनें भी दर्शकों को निराश नहीं किया. नाटक एक हिन्दी लेखिका के अंग्रेजी में लिखे उपन्यास से मिली प्रसिद्धी, जो मूलतः उसकी मृत बेहन द्वारा लिखित है जो पक्षाघात से ग्रस्त थी, की व्यर्थता को उजागर करता है. इलेक्ट्रानिक इमेज और प्रकाश द्वारा लेखिका के अंतर्द्वंद्व को उभारा गया था.
‘रंग अभंग’ रानावि की छात्र प्रस्तुति थी उसी कडी में जिसका जिक्र उपर किया ग्या है. ‘आसिफ़ अली’ के इस आलेख में महाराष्ट्र के रंगमंच में व्याप्त जातिगत भेदभाव और तमाशा के प्रति अभिजात्य रंगमंच के उपहास पूर्ण दृष्टि को उभारा गया था. तमाशा के प्रसिद्ध अभिनेता को अभिजात्य रंगमंच पर उसके निम्नवर्गीय होने के कारण प्राम्पटर की भुमिका दी जाती है. उच्चवर्ण के अभिनेता इसे भी स्वीकार नहीं कर पाते. लागातार हो रही उपेक्षा से अभिनेता ‘राम नागरकर’ विक्षिप्त हो जाता है. रंगे पर्दों और तमाशा शैली के गायन से प्रस्तुति डिजाइन की गयी थी. यह एक सराहनीय प्रस्तुति थी जिसने रंगमंच पर दलितों के उपेक्षा को अपना विषय बनाया था.
‘उत्तररामचरितम’ ‘के.एम. पणिक्कर’ निर्देशित प्रस्तुति थी. यह प्रस्तुति अपनी उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पायी. अनुवाद की भाषा का चयन भी बढिया नहीं था. प्रस्तुति किसी भी स्तर पर दर्शकों को नहीं जोड पायी. दर्शक लगातार प्रस्तुति के बीच से उठ के जाते रहे.
इसी दिन दूसरी प्रस्तुति ‘मनोज जोशी’ निर्देशित ‘चाणक्य’ थी. मनोज जोशी सिनेमा का एक परिचित नाम है. नाटक का आकर्षण इससे भी जुडा था. रंगमंच पर वह बहुत समय से सक्रिय हैं. चाणक्य के किरदार में उनको देखकर लगा कि वो चरित्र में पूरी तरह उतर गयें है. राक्षस के रूप में अशोक भाटिया का अभिनय भी अच्छा था. अभिनय के लिहाज से यह एक कसी प्रस्तुति थे. नाटक के कथ्य को आधुनिक संदर्भों में रखा गया था. एक राजनायिक के रूप में चाणक्य की राष्ट्र के प्रति चिंता,राष्ट्र नामक अवधारणा को और समावेशी बनाने और परिवार से उपर उठकर राजा के समस्त राष्ट्र को अपना परिवार मानने की बात कही गयी थी. भाषा नाटक की अत्यधिक तत्सम प्रधान थी पर एक्शन में उसके रुपांतरण से दर्शकों को विशेष परेशानी नहीं हुई. सेट और प्रकाश व्यवस्था ने रंग प्रभाव को विशिष्ट बना दिया. कमानी के बीच मंच पर एक चौसर जैसा सेट था और उसी में थोडा हेर फ़ेर कर के उसे शयन कक्ष, जंगल और विभिन्न स्थलों में बदल दिया जाता था. पीछे गगनिका पर चंद्रमा और सुर्य की उपस्थिति परिवेश को गहराई देती थी. दर्शकों ने इस नाटक के अंत में दिल खोल कर ताली बजाया. इस नाटक को देखने श्री लालकृष्ण आडवाणी भी पहूंचे थे. ‘मिहिर भुता’ के इस आलेख को गुजरात सरकार का पुरस्कार भी प्राप्त है. बकौल मनोज जोशी यह प्रस्तुति तीन साल के रीसर्च का परिणाम थी. प्रस्तुति से यह स्पष्ट था.
स्नातक प्रस्तुति की सबसे बेहतर प्रस्तुति थी गगनदीप निर्देशित ‘कुलदीप कुणाल’ लिखित नाटक ‘द लैंड् वीवर’. किसानोंके लगातार हो रही सरकारी और सामाजिक उपेक्षा, आत्महत्या, विस्थापन, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के षडयंत्रों और साम्राज्यवादी देशों के नीतियों को नाटक का विषय बनाया गया था. नाटक के बीच मे कथ्य को समसामयिक विषयों से रीलेट किया जा रहा था. जैसे ‘लक्मे फ़ैशन वीक 2007’ का थीम ‘काटन’ होना और इसी समय इसकी खेती करने वाले किसानों का आत्महत्या करना, आलु का दाम दो रुपये किलो और चिप्स का दाम चार सौ रुपये किलो इत्यादि. यह भी मल्टीमीडिया प्रस्तुति थी. इस प्रस्तुति से यह धारणा पुख्ता हुई कि रगमंच की प्रतिबद्धता कायम है और नयी रंग प्रतिभा भी उभर रही है.
मेरी देखी गयी अन्तिम प्रस्तुति ‘रतन थियम’ की मणिपुरी में ‘व्हेन वी डेड अवेकेन’ थी. ‘इब्सन’ के नाटक का रुपांतरण स्वंय थियम ने किया था. नाटक कथ्य के लिहाज से नहीं स्पेक्टेकल के लिहाज से अप्रतिम थी. थियम को सुंदर दृश्यों की रचना में मास्टरी हासिल है. प्रकाश और प्रापर्टी के सहारे वो रंगमंच पर एक जादुइ संसार रचते हैं जिसके सहारे दर्शक उनके ना्टक तक खिंचा आता है. अभिन्य की उनकी अलग भाषा भी उनके प्रदर्शन का अभिन्न और महत्त्वपूर्ण अंग है. समग्रतः इस प्रस्तुति से यात्रा कि समाप्ति यादगार बन गयी.
भारंगम की यह एक रिपोर्टात्मक यात्रा थी. इसके निषकर्षों के चर्चा अगले पोस्ट में.

बुधवार, 13 जनवरी 2010

भारंगम २०१० की संक्षिप्त रिपोर्ट

भारंगम 2010 प्रारम्भ हो गया है बहुभाषीय और बहुआयामी नाटकों के साथ। शुरुआत हुई बंशी कौल के निर्देशन मे प्रस्तुति 'नाट्य नाद' से । इस प्रस्तुति में रंग संगीत का इतिहास और महत्त्व का चित्रण हुआ है. नाट्य नाद इस बार के भारंगम का थीम है. भारतीय रगमंच के संगीत के विविध स्वरुप का अवगाहन रंग प्रेमी कर सकते हैं.

मेरी भारंगम 10 की यात्रा शुरु हुइ इप्टा दिल्ली की प्रस्तुति ‘बे-लिबास’ ( निर्देशक-अज़ीज़ कुरैशी) से। विभिन्न कहानियों के माध्यम से लगातार हो रहे स्त्री के यौन शोषण को मर्मिकता से उभारा गया. शैली कहानी के रंगमंच जैसी थी. लगभग सादे मंच पर सोफ़ों और टेबल के सहारे दृश्य रचा गया. कहानियों में स्थितियां बदली, पात्र और उनके नाम वहीं रखे गये यह आभाषित करने के लिये कि हर परिस्थिति में नारी ही उत्पीडित होती है. नाटक को दो भागों में दो सुत्रधारों द्वारा परिचालित किया गया. अभिनेत्री लक्ष्मी रावत ने अपने चरित्र को शिद्दत से जिया. इप्टा का बैनर था इसलिये थोडा प्रचारात्मक तो था ही सघनता भी एकरुप नहीं थी.

इसी रात दूसरी प्रस्तुति देखी एम. के. रैना निर्देशित ‘चंदा मां दूर के’. अभिनेत्री नीता मोहिन्द्रा के एकल अभिनय से सजा यह नाटक बिलकुल निस्तेज था. अभिमंच के बडे मंच पर अभिनेत्री बिलकुल असहाय हो गयी थी. प्रस्तुति उबाउ इस कदर थी कि नाटक बीच में ही छोड कर चला आया जो आमतौर पर नही करता हुं. वैसे नाटक का कथ्य जर्मन नाट्क ए 'लेटर टु अनबार्न चाईल्ड' से लिया गया था. पर निर्देशकीय दृष्टि ही ना हो और अभिनेता बे असर हो तो कथ्य क्या कर सकता है.

दूसरे दिन की प्रस्तुति थी 'अंक' की प्रस्तुति ‘जिन लाहौर नई वेख्या’. समकालीन भारतीय रंगमंच पर यह सर्वाधिक मंचित होनेवाला आलेख है. दिनेश ठाकुर निर्देशित इस प्रस्तुति में आलेख में कुछ बदलाव किया गया था. नासीर काजमी के जगह नासीर फ़ज्ली कर दिया गया था. और नाटक में से नासीर काजमी के गीतों को हटाकर आधुनिक शायर निदा फ़ाजली के गजलों और दोहों को जोडा गया था. जिनका प्रयोग दृश्य अंतराल को भरने में किया जा रहा था. नाटक के प्रारम्भ और अंत में वीडियो फुटेज को जोडा गया था और नाटक के अंत में माँई के किरदार कर रही प्रीता माथुर ठाकुर ने एक संक्षिप्त भाषण दिया. वर्तमानता का अत्यधिक बोझ प्रस्तुति सम्भाल नहीं पायी इसलिये नाटक में तनाव की एकरूपता बरकरार नहीं रह सकी. कुछ दृश्य अच्छे बन गये तो कुछ शिथिल पड गये। वैसे दर्शको के बीच यह प्रस्तुति अत्यधिक प्रशंसित हुई.

तीसरे दिन प्रख्यात निर्देशक कन्हाईलाल निर्देशित बांग्ला नाटक 'अचिन गायानेर गाथा' ( देवाशीष मजुमदार लिखित ) देखी . यह बढ़िया प्रस्तुति थी. सौतेली माँ के अत्याचारों से तंग आकर घायल लड़की एक दिन पंछियों के साथ कही चली जाती है . बाप लौटने के बाद जब अपनी बेटी को नहीं पाता है तो अपनी पत्नी को काली मंदिर ले जाता है जहां वह देवी से बेटी को लौटाने की प्रार्थना करता है. पत्नी वहा पर एक माँ के संवेदना को अनुभूत कराती है और उसका नया जन्म होता है. इस आलेख को अद्भुत अभिनय के माध्यम से प्रस्तुत किया गया. कन्हाईलाल भारतीय रंगमंच पर नयी अभिनय शैली के अविष्कारक के रूप में भी जाने जाते है. इस अभिनय में देह भाषा के सहारे आलेख की दृश्यात्मकता को रचा जाता है. यह नाटक देखा जाना एक अद्भुत रंग अनुभव था.

इसी दिन दूसरी प्रस्तुति देखी 'मोटली' की 'नसिरिद्दीन शाह' निर्देशित प्रस्तुति 'केंन म्युटिनी द कोर्ट मार्शल'. हरमेन ब्रुक के उपन्यास पर आधारित यह रंग प्रस्तुति अभिनेताओ के अभिनय के वजह से यादगार बन गयी. एक लेखक अपने आफिसर को हटाने के लिए एक सेलर का सहारा लेता है आर सफल होता है. कोर्ट मार्शल में सेलर तो बच जाता है लेकिन उसको बचाने वाला नाटक के अंत में लेकक की धज्जिया उतार देता है. युद्ध और कोर्ट मार्शल की नाटकीयता और निरर्थकता को इस प्रस्तुति के जरिये उभारा गया. मंच सज्जा साधारण थी कोर्ट मार्शल के लिए जरुरी कुर्सियों को छोड़कर कुछ ना था खाली स्पेस में अभिनेताओ ने दमदार अभिनय किया नाटक का तनाव इतना जबरदस्त था की दर्शक अपनी कुर्सी से चिपके रह गए.

चौथे दिन की प्रस्तुति थी 'माहिम जंक्शन' (निर्देशक सोहिला कपूर ). कहने के लिए यह प्रस्तुति सत्तर के दशक के हिंदी सिनेमा को ट्रिब्यूट देने के लिए थी पर इसमें ऐसा था कुछ नहीं. दर्शक और अभिनेताओं के लिए भी यह नाटक एक बुरा अनुभव था .जैसा की उसके एक अभिनेता ने बताया . अत: इस पर चर्चा ना करना ही मेरे लिए बेहतर होगा.

पांचवे दिन अब तक की सबसे बेहतरीन प्रस्तुति देखी . 'सुनील शानबाग' निर्देशित 'सेक्स मोरेलिटी एंड शेंसर्शिप '. सेक्स और नैतिकता की सेंशर कैसे अपनी व्याख्या करता है. कैसे बेहतरीन प्रस्तुतियों को इनकी आड़ में निशाना बनाया जाता है. यह सब इस नाटक के माध्यम से दिखाया गया. और यह प्रश्न उठाया गया की जब दर्शक को समस्या नहीं है तो सेन्षर को क्या हक़ है अपनी मनमानी करने का. इस के प्रदर्शन के लिए पृष्ठभूमि के रूप में विजय तेंदुलकर के नाटक सखाराम बाऐन्डर का उपयोग किया गया. यह नाटक के भीतर एक नाटक था. मंच को दो भागो में बांटा गया था पीछे सखाराम होता आगे तमाशा , एक पंडाल था जो स्क्रीन में तब्दील हो जाता था जिस पर इतिहास के सन्दर्भ और वृतचित्र दिखाए गए और इन सबको मिला कर नाटक तैयार होता था. सूत्रधार और सखाराम के रूप में नागेश भोंसले का अभिनय लाजवाबा था. यह नाटक एक विस्तृत चर्चा की मांग करता है जो आगे करने की कोशिश करूंगा अभी इतना ही.

अभी तक के भारंगम के अनुभव से एक धारणा तो अवश्य साफ़ हो गयी है की तमाम प्रयोगों का केंद्र जब तक अभिनेता को नहीं बनाया जाएगा प्रयोग असफल होंगे. निस्संदेह रंगमंच की सफलता अभिनेता में ही निहित है. भारंगम की इस साल सभी सफल प्रस्तुतिया खाली स्पेस में अभिनेता ने रची है.