मंगलवार, 11 अक्तूबर 2011

सलाम करता चलुं…


जगजीत सिंह के दीवानों के नाम
जगजीत सिंह का मैं कभी फ़ैन नहीं रहा. सच में. मैं हमेशा उन्हें मेंहदी हसन और गुलाम अली से कमतर गज़ल गायक समझता रहा, यद्यपि गज़ल से मेरा साक्षात्कार पंकज उधास के गज़लों से हुआ था. मेरे मामा पंकज की हर नई कैसेट खरीद लाते और घर में यहीं बजता..ऐ गमे ज़िंदगी कुछ तो दे मश्वरा…या आइये बारिशों का मौसम हैं…लेकिन इन गज़लों की याद उन दिनों की हैं जब मैं गीत, गज़ल का फ़र्क बहुत नहीं जानता था. कर्णप्रियता और जल्दी याद हो जाने वाले गाने अच्छे लगते थे. जब मैंने ‘चुपके चुपके’ सुना तब जाना कि ये गज़ल है और इसके गायक गुलाम अली हैं..बहुत बाद में पता चला कि वे पाकिस्तान के हैं. जगजीत सिंह को पहली बार कब सुना ये ठीक ठीक याद नहीं लेकिन पहला गाना याद है कि कौन सुना था. ये  गीत था ‘होठो से छु लो तुम मेरा गीत अमर कर दो’. जिस गीत को सुनने के बाद मैं जगजीत सिंह की गज़लों की तलाश में जुटा वो था ‘वो कागज़ की कश्ती वो बारीश का पानी’…अब तक मैं यह जान चुका था कि गज़ल क्या है और जगजीत सिंह कौन है? और मेंहदी हसन के सामने जगजीत और गुलाम अली दोनो पानी भरते हैं. पंकज उधास की बिसात ही क्या है! जगजीत ने मेरे अकेलेपन को साझा करने वाले बहुत से गीत मुझे दिये हैं लेकिन फिर भी मुझे अपना दीवाना बना नहीं पाये…पता नहीं क्यों. जबकि मैं ऐसे कई लोगो को जानता हूं जो गज़ल गायकी का मतलब ही जगजीत सिंह समझते हैं.
वैसे जगजीत सिंह के बहुत एहसान है मुझ पर. कैसे? इसका जवाब देता हुं…मैं ठीक ठाक गुनगुना लेता हूं..या कहिये कि गा लेता हूं. एक जमाने में अच्छी आवाज थी. जगजीत सिंह के गीत जल्दी ही ज़बान पर चढ़ जाते थे. मैं और मेरा छोटा भाइ गा गा के उसकी अच्छी प्रैक्टिस कर लेते थे. जैसे ही किसी ने गाने की कोई फ़रमाईश की. एक आध गाना उनकी पसंद का सुना देने के बाद मैं जगजीत सिंह पर आ जाता था.  झुकी झुकी सी नज़र बेकरार हैं की नहीं/ दबा दबा सा सही इनमें प्यार है कि नहीं’ गाना गाने के बाद इस गीत पर प्रशंसा की उम्मिद भी अधिक होति क्योंकि अंदर से लगता कि जगजीत सिंह की गज़ल गा रहें हैं. मेंहदी हसन साब तो गुनगुनाने के लिये भी पकड़ में नहीं आते थे, गुलाम अली के गाने लंबे थे और वो जनता इन्हें सुनना भी कहां चाहती थी! वो तन्मय भाव से ‘होठॊ को छू लो तुम मेरा गीत अमर कर दो सुनती थी.’
गज़ल का रिश्ता दर्द और तन्हाई से है. दर्द खाक होगा लेकिन तन्हाई तो हैं ही. दस साल हो गये घर  से दूर शहर के बयाबां में रहते हुए. जब पटना में रहते थे तो फोन नहीं था. बिजली भी चली जाती थी. कमरे के अंधेरे में बैठ कर मैं गीत गा गा कर बिजली के आने की प्रतिक्षा करता. ज़ाहिर है उन गीतों में जगजीत सिंह सबसे अधिक जगह बनाये रहते थे क्योंकि उनके गाने याद थे. अक्सर मैं अकेले में उन को सुना करता दिल्ली आने पर. जहां बिजली नहीं कटती थी और मैं अकेलेपन का आनंद लेने लेगा था. इसी बीच मेरा सामना निदा फ़ाज़ली से हो चुका था और मैंने उन गज़लों को सुना जो जगजीत की आवाज़ में थे. ये ग़ज़ल हौसला बढ़ाते थे. ‘अपनी मर्ज़ी से कहां अपने सफ़र के गम हैं/ रूख हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं’. हर तरफ़ हर जगह बेशुमार आदमी’ धूप में निकलो घटाओं में नहा कर देखो/ जिंदगी क्या है किताबों को हटा कर देखो.’ इस गीत को सुनने के बाद  मैंने किताब को हटाया तो नहीं लेकिन उसके बाहर देखना शुरु किया और मुझे सचमुच दुनिया को देखने में मज़ा आने लगा.
क्या हैं जगजीत सिंह जिन्हें मैंने हमेशा बड़ा गायक नहीं समझा लेकिन हमेशा वे मेरे काम आये. क्यों? ये मुझे तब पता चला जब मैं गिरफ़्ते इश्क हुआ. अब मुझे पता चला कि कितने सहजता से  अहसास को बेपर्द करके आपके सामने रख रहें हैं. ‘हाथ छूटे भी तो रिश्ते नहीं छूटा करते’, कोई ये कैसे बताये कि वो तन्हा क्यों है, ‘तेरी खुशबू में बसे खत मैं जलाता कैसे.’ इत्यादि इत्यादि जिसे गुनगुनानें में लगता कि मैं उड़ा जा रहा हूं. जटिल से जटिल बात कितनी सहजता से गीत में आता है.. ‘बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जायेगी/ लोग बेवज़ह उदासी का सबब पुछेंगे…..चाहे कुछ भी हो सवालात ना करना उनसे/ मेरे बारे में कॊइ बात ना करना उनसे’  एक सामाजिक यथार्थ को पकड़े हुए इस गीत को सुनने के बाद मन होता है कि खुद किसी के लिये गायें. (वैसे इसके खतरे हैं). ऐसे बहुत से गज़ल ज़ेहन में हैं जो हमेशा साथ रहते हैं..जैसे कि जंगल, पर्वत, सहरा और बस्ती सब इन्हीं से भरे हुएं हों. जहां से भी गुजरे एक आध बार भी ज़बान पे आ ही जायेंगे.
बात जगजीत सिंह कि नहीं है बात मेरी है. मेरे भीतर के जगजीत सिंह की है. मैं कभी कभी. सोचता हूं कि हम जिस दुख को ओढे रहते हैं वह दुख सच में कैसे आता है? यह जगजीत सिंह ने झेला अपने पुत्र की मृत्यु के बाद. और फिर मैंने उसे सच में अनुभव किया अपने एक अग्रज की जवान मौत पर. और सच में गाकर मन को हल्का किया…’चिट्ठी ना कोई संदेश, जाने वह कौन सा देश, जहां तुम चले गये’. वैसे मैं अपने मन को हल्का करने के लिये गाता हूं ये कमाल का उपचार है.
यह पैराग्राफ अब कुछ लोगों को याद करने के लिये है. आज ही शाम में मेरे एक भाई ने फोन किया कि जगजीत सिंह की मौत के बाद मुझे बहुत अकेलापन महसुस हो रहा है. इस अकेलेपन को वो अपने तरीके से हल्का कर रहे थे. मुझे उस भाई की याद हो आई जिन्होंने मुझे गज़ल सुनवा सुनवा के असमय ग़ज़ल प्रेमी बना दिया. सुनते हैं कि अक्सर लोग इश्क करने के बाद ग़ज़ल की ओर आते  हैं. मेरी मां के अनुसार ग़ज़ल सुनने वाला आदमी नीरस होता है और बिगड़ैल भी. खैर, मुझे खयाल आया कि भाइ साहब आज कैसा महसुस कर रहें होंगे. अफ़सोस उनकी प्रतिक्रिया जानने का मेरे पास कोई साधन नहीं है. लेकिन जरूर वो जगजीत सिंह को सुन रहें होंगे. मुझे अचानक अपने मित्र के एक बीते प्रेम की याद हो आई. मुझे उस कैसेट की याद हो आई. और सोचा कि क्या आज इस खबर को सुनकर वो ‘फ़ारगेट मी नाट’ कैसेट को याद करेगी? जो उसने दिया था. क्या मेरा मित्र आज एक क्षण के लिये भी उस कैसेट के बारे में सोचेगा. यह भी ध्यान आया कि वो लोग कैसे होंगे जिनका इश्क जगजीत की गज़लों में परवान चढ़ा होगा ? क्या उन्हें उस खत की याद आई होगी जिसे वो कभी गंगा में बहा आये थे? यकीनन लोगबाग जगजीत सिंह को अपने अपने तरीके से याद कर रहें होंगे और यह उनके भीतर का जगजीत सिंह ही होगा. यहां यह कहना बिल्कुल लाज़िम है कि जगजीत सिंह एक ग़ज़ल गायक ही नहीं रहे थे वे एक सामाजिक प्रक्रिया थे.
फिर भी मैं जगजीत सिंह का फ़ैन नहीं हूं. और आगे हो जाउंगा ऐसी उम्मीद भी नहीं है. लेकिन मैं उनको अपने पास रखता हूं बहुत सहेज के. क्योंकि उनसे दर्द और तन्हाई का रिश्ता है. और कोई इतने करीबी का फ़ैन हो सकता है क्या?