सोमवार, 29 नवंबर 2010

कसक

पिछले पोस्ट में दहलीज़ कविता छपी थी, एक मित्र ने उस कविता को आगे बढ़ाया है जिसे अब छाप रहा हूँ...
2.
पहले ये कसक
ये  दहलीज नाप नहीं सकती
फिर ये डर
सपने आँखों में ही ना खो जाए
पर
अब ना सपने है और ना  सशंय
उस कसक के खो जाने का डर है
डर है, आँखों का ये शून्य मन में ना उतर जाए
बहुत गहरा...बहुत गहरा...