सोमवार, 16 नवंबर 2009

कोरे रह गये कागज…



कोरे रह गये कागज…
यह इतवार हर इतवार की तरह था। आलस भरी सुबह से आगाज करते हुए। उठने के बाद पैर स्वतः अखबार की तलाश में बरामदे में आ गया। अखबार खोलते ही एक उदासी तारी हो गयी, बीच का पन्ना खोला ‘कागद कारे’ नहीं था। अब हर इतवार बिना कारे कागद को पढे गुजारना होगा। यानि अब वो उत्सुकता भी नहीं रहेगी कि  इस बार कागद कारे का विषय क्या होगा? जैसा कि मैं और काका हर शनिवार को संभावित विषय के बारे में चर्चा कर लेते थे। आज अपन को  पुरी शिद्दत से पता चला कि प्रभाष जोशी के ना रहने के क्या मायने हैं। इस बीच तहलका  का भी पाठक हो गया था जिसमें उनका नियमित कालम छपता था। इस कालम की विषय की विविधता का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है इसमें उन्होंने चुनाव, आस्कर, आईपीएल इत्यादि पर लिखा था।
मैं संभवतः जनसत्ता  के सबसे कम उम्र के पाठकों में से होऊंगा। इतनी कम दिन के पाठन के बाद ही उनके लेखन से मेरा जुडाव ऐसा हो गया था तो उन पाठकों को उनकी कमी कितनी खलेगी ये बताने कि जरुरत नहीं है।
मैं उन खुश नसीब लोगो में से हुं जिन्होंने प्रभाष जोशी को देखा सुना है। दिल्ली विश्वविद्यालय के गांधी भवन में हिन्द स्वराज पर हुए एक कार्यक्रम में  बोलने आये थे। उस दिन मुझे पता चला कि जैसा वो लिखते हैं वैसा बोलते भी हैं धारदार। उस कार्यक्रम के अंत के बाद मेरी तीव्र इच्छा उनसे मिलने की  हो गयी थी। उस झक सफ़ेद धोती कुर्ते में लिपटे शख्स के वयक्तित्व में कुछ ऐसा ही जादु था। मैं उन के पास पहूंचा तो, मगर कुछ बात ना कर सका। हां वो अपना जुता खोज रहे थे तो मैंने उन्हें जुता ला के दिया था। सच पूछिये यह बिलकुल अपुर्व अनुभव था। इसी बहाने उनके चरण छुने का मौका जो मिला था।   आजकल के बुद्धीजीवियों को यह लिजलिजी श्रद्धा का पर्याय लगता हो पर जोशी जी के लिये यह संस्कार से जुडा मसला था।
मैं जोशी जी से मिलना चाहता था उनके साक्षात्कार के लिये। मैं तैयारी भी कर रहा था। परंतु…
इन दिनों कागद कारे के कई पन्नों में वो जिस  तरह मृत्यु का जिक्र कर रहे थे उससे तो लगता है कि उन्हें अपनी मृत्यु का आभास हो गया था। तभी तो अनथक यात्रा कर रहे थे। शायद जल्दी जल्दी काम निबटा लेना चाहते थे। जब सभी इस बात का   इंतजार कर रहे थे कि जोशी जी सचिन के सत्रह हजार रन और क्रिकेट जीवन के बीस साल पर क्या लिखेंगे वो चल दिये। चुनावों में हुए पत्रकारिता के काले कारनामे के खिलाफ़ अपने मुहीम के पुरा होने का भी उन्होंने इंतज़ार नहीं किया।
अब शायद ही कोई ऐसा होगा जो राजनीति, खेल ,साहित्य, मीडिया, संगीत इत्यादि सबकी एक साथ  खबर लेगा और देगा?
क्या जनसत्ता उनके प्रतिमानों पर टिकी रहेगी?
क्या पत्रकारिता जगत में फ़ैले उनके अनुयायी पत्रकारिता जगत को क्षयग्रस्त होने से रोकने के लिये कुछ करेंगे?
 बहुत सारे प्रश्न हैं जो उनके जाने के बाद अनुत्तरित हैं।
दुनिया है चलते रहती है। हर मनुष्य इस संसार में आके अपना योगदान देके चला जाता है। कुछ गुमनाम रह जातें हैं तो कुछ अनुकरणीय हो जाते हैं। प्रभाष जोशी ऐसी ही शख्सीयत थे। ठीक है अपन तो बिना कागद कारे और शुन्यकाल के बिना जी लेंगे पर ये सच है कि  उनकी   याद बहुत आएगी 

1 टिप्पणी:

Unknown ने कहा…

prabhaash joshi ka jaana sachamuch ek yoddhA KAA JANA HAI