रविवार, 2 मई 2010

भोजपुरी सिनेमा पर एक नज़र





भोजपुरी सिनेमा अपने विकास के स्वर्णिम युग में है। भोजपुरी समाज से इतर भी इसने अपना दर्शक वर्ग निर्मित किया है। बिहार और उत्तरप्रदेश के अलावा देश के अन्य भागों में भी भोजपूरी फ़िल्में देखी जा रही है। भोजपुरी सिनेमा के निर्माण में वृद्धि से यु.पी बिहार के बहुत सारे सिनेमा घरों को जीवनदान मिल गया है, जो बंद होने के कगार पर आ गये थे। भोजपुरी सिनेमा ने उन सभी कलाकारों के कैरीयर भी प्रदान किया जो हिन्दी सिनेमा में अवसर की तलाश कर रहे थे और जिनका कैरीयर अपने ढलान पर था। भोजपुरी सिनेमा के सबसे सफ़ल अभिनेता रवि किशन ने भी हिन्दी सिनेमा में असफ़ल होने के बाद भोजपुरी का दामन थामा था जिसके बाद उन्होंने सफ़लता की उंचाइयां छुंई और हिन्दी सिनेमा में भी उनको काम मिलना शुरु हुआ। अच्छे अभिनेता के रूप में उनकी पहचान बनी, आज वे श्याम बेनेगल जैसे निर्देशक के साथ काम कर रहें हैं।

भोजपुरी सिनेमा उद्योग को पुनर्जीवन दिया मोहन जी प्रसाद निर्देशित फ़िल्म संईया हमार ने। रवि किशन अभिनित इस फ़िल्म ने अच्छा व्यवसाय किया। बहुत दिनों के बाद भोजपुरी फ़िल्म के निर्माण में संभावना इस फ़िल्म के सफ़ल होने के बाद दिखने लगी। इसके कुछ दिनों बाद मनोज तिवारी जो भोजपुरी के प्रसिद्ध लोक गायक भी हैं की चर्चित फ़िल्म आई ससुरा बडा पईसावाला। प्रदर्शित होने में बहुत कठिनाई झेलने के बाद जब यह फ़िल्म प्रदर्शित हुई तो इसने सफ़लता के झंडे गाड दिये। इस सिनेमा ने मृतप्राय भोजपुरी फ़िल्म उद्योग में प्राण फ़ूंक दिये और भोजपुरी सिनेमा के निर्माण में वृद्धि हुई। आज हम देख रहें हैं कि हर सप्ताह भोजपूरी की दो तीन फ़िल्में रीलीज होती हैं। व्यावसायिक सफ़लता को देखते हुए हिन्दी के साथ साथ अन्य भाषा के निर्माता भी भोजपुरी फ़िल्मों के निर्माण में प्रवृत हुएं हैं। कम लागत में अच्छे मुनाफ़े की उम्मीद में कार्पोरेट भी इस ओर आ रहें हैं। निर्माता के साथ साथ हिन्दी सिनेमा के अभिनेता भी गाहे बगाहे भोजपुरी फ़िल्मों मे नज़र आने लगें हैं। अमिताभ बच्चन, मिथुन चक्रवर्ती, अजय देवगन, जैकी श्राफ़, इत्यादि जैसे सफ़ल अभिनेताओं ने भोजपुरी सिनेमा में अभिनय किया है। नगमा, भाग्य श्री, साधिका जैसी अभिनेत्रियां तो भोजपुरी फ़िल्मों की नियमित अभिनेत्रियां हो गयी हैं। कहा जा सकता है कि भोजपुरी सिनेमा का बाजार गरम हो गया है। बिहार- यु.पी. में तो इसने हिन्दी सिनेमा के व्यवसाय को प्रभावित कर दिया है। भोजपुरी सिनेमा का यह सफ़ल दौर एक आशंका को भी जनम देता है, जिसकी चर्चा आगे होगी। गुणवत्ता के लिहाज से भोजपुरी सिनेमा एकदम निचले पायदान पर खडी नज़र आती है और हिन्दी सिनेमा के पराभव के दौर की छिछ्ली नकल।

भोजपुरी सिनेमा का स्रोत है हिन्दी सिनेमा। भोजपुरी सिनेमा की शुरुआत करने वाले लोग नाजीर हुसैन और सुजीत कुमार हिन्दी सिनेमा के स्थापित कलाकार थे। अपनी भाषा और मिट्टी के प्रति प्रेम ने उन्हें भोजपुरी सिनेमा बनाने के लिये प्रेरित किया। उस दौर की सिनेमा हिन्दी सिनेमा से सिर्फ़ प्रेरणा प्राप्त करती है उसका भौंडा नकल नहीं करती। सिनेमा की कहानी, परिवेश, कलाकार, संगीत इत्यादि हरेक पक्ष भोजपुरी का अपना है। भोजपुरी समाज की समस्याओं, लोक परम्परा, रीति- रीवाज, इत्यादि का चित्रण उस दौर के या उसके बाद बनने वाले सिनेमा में होता रहा। लेकिन नये दौर के सिनेमा में हम भाषा के अतिरिक्त और कुछ भोजपुरी का खोजने की कोशिश करें तो निराशा हाथ लगेगी। गौरतलब है कि अपनी जाति परम्परा से कटे होने के कारण ही हिन्दी सिनेमा को सिनेमा के कला जगत में वो स्थान नहीं मिल पाया है जो अब तक मिल जाना चाहिये था।

भोजपुरी सिनेमा भी इसी तरह की भेंड्चाल की शिकार हो रही है। फ़िल्मों की कहानी हिन्दी सिनेमा की कई फ़िल्मों की कहानी फ़ेंट कर तैयार कर लिये जातें हैं। सीधे सीधे रीमेक भी बन रहें हैं। कहानी की नकल करने में अकल का तनिक भी इस्तेमाल नहीं किया जाता इसलिये हर फ़िल्म की कहानी भी ले दे कर एक जैसी लगती है। हीरो, हीरोईन, विलेन सब का सांचा तैयार कर लिया गया हैं। जैसे- हीरो गरीब होगा, पढा लिखा होगा तो बेरोजगार होगा, नौकरी में होगा तो पुलिस होगा या पुलिस और अपराधी के कारण खुद अपराधी बन गया होगा। हीरो का काम होगा लोगों की मदद करना, हीरोइन से प्यार करना और विलेन को मारना। हीरोईन की हालत तो भोजपुरी फ़िल्मों में और भी खराब है। हीरोईन मार्डन होगी, छोटे कपडे पहनेगी, रोब झाडेगी, और हीरो से अंग्रेजी में डांट सुनने के बाद उससे प्यार करने लगेगी। मुझे नहीं लगता कि भोजपुरी समाज में ऐसी लडकियां पायी जाती हैं। हीरोईन अगर गांव की हुई तो उसे आदिवासियों जैसे कपडे पहना दिये जायेंगे। दरअसल हीरोईन को लेकर भोजपुरी सिनेमा के सोच में ही गडबडी है। उसे पुरी तरह यौन कुंठाओं के पुर्ती का माध्यम मान लिया गया है। वैसे अपवाद स्वरुप कुछ फ़िल्में है जो हीरोईन की इस स्टीरियो टाईप भूमिका के खोल से बाहर निकालती है।

विलेन अक्सर हीरोईन का बाप, भाई, नेता या बाहुबली होगा। अपराध या ऐसा कोई भी काम जिससे उसकी शैतानियत उभरे वह करेगा। हीरो से उसकी बार बार टक्कर होगी और अंत में वह हार जायेगा। हीरो का दोस्त और उसकी मां अन्य महत्त्वपूर्ण चरित्र है। दोस्त विदुषक की भुमिका में और मां फ़िल्म के मेलोड्रामा को उभारने में सहायक होती है। इसलिये दोस्त हंसता रहता है और मां रोते रहती है। पात्र में एक अनिवार्य पात्र आईटम डांसर का है, कहानी में उसके लिये अनिवार्य रूप से जगह है और इस के जरिये अश्लीलता परोसी जाती है।

इस तय ढांचे पर कहानी बना के पेश कर दी जाती है और इनमें गाना मिला दिया जाता है। फ़िल्म के कहानी से गानों का ताल्लुक हो यह कोइ जरुरी नहीं। अक्सर इसका उपयोग फ़िलर के रूप में किया जता है। निर्देशक मान के चलता है कि तय समय के बाद दर्शकों को गाना चाहिये और वह गाना डाल देता है। इसलिये हर भोजपुरे फ़िल्म में दस से उपर गाने रहते हैं। गानों में दो स्वप्न गीत, दो हीरोईन को छेडने का, दो प्रेम गीत, दो सैड सांग और दो आईटम गीत रहतें हैं। गानों का संगीत भी जड से कटता जा रहा है। आधुनिक पश्चिमी वाद्य और तकनीक को भोजपुरी संगीत के उपर तरजीह दिये जाने गानों का रस समाप्त होता जा रहा है। गानों के बोल भी सीधे सीधे हिन्दी से ले लिये जाते हैं। और द्विअर्थी गीतों की प्रधानता तो रहती ही हैं। एक जमाना था कि भोजपुरी फ़िल्मों के गाने लोगों को कंठ पर रहते थे अब तो अप उसे सभ्य समाज में गा भी नहीं सकते।

दर्शकों को आकर्षित करने के लिये बहुत सारे टोटके भी आजमाये जाते हैं। जैसे फ़िल्म का शीर्षक किसी गीत के आधार पर रख दिया जाता है और उस गीत का या शीर्षक का कहानी से कोई लेना देना नहीं रहता है। उदाहर्ण के तौर पर सफ़ल फ़िल्म पंडित जी बताई ना बियाह कब होई में इस शीर्षक का और इस गाने का फ़िल्म की कहानी से कोई लेना देना नहीं था। इसी तरह फ़िल्म के प्रचार के लिये फ़िल्म के पोस्टरों पर हिंसा के दृश्य रखक्र और हिरोईन के अर्धनग्न चित्र देकर दर्शकों को रीझाया जाता है।

कुशल अभिनेता और अभिनेत्री का भोजपुरी सिनेमा में प्रायः अभाव है या युं कहे कि भोजपुरी सिनेमा के निर्माताओं के लिये अभिनय उनकी प्राथमिकता सूची में हैं ही नहीं। कुछ आशा इस बात से है कि कुछ सहायक और चरित्र भूमिकाओं में उतरने वाले कलाकार अच्छा अभिनय कर लेते हैं।

हीरो अभिनय के नाम पर कुछ जोरदार संवाद बोलकर, डांस करके और मारधाड करके रह जाता है। हीरोईन के हिस्सों में तो कुछ सीन ही आते हैं जिसका अधिकांश भाग अंग प्रदर्शन करने और गीत गाने में बीत जाता है। पात्रों से बढिया अभिनय कराने की जिम्मेदारी निर्देशक की होती है पर निर्देशक का पूरा ध्यान मसाला फ़ेंटने पर रहता है। इसीलिये भोजपुरी सिनेमा में कोई भी निर्देशक आज अपने नाम से नहीं जाना जा रहा है। फ़िल्म जो निर्देशक का माध्यम है उसके लिये यह विडंबना ही है।

दर्शक क्यों भोजपुरी सिनेमा देखने जाता है इसके कुछ कारण हैं। हिन्दी सिनेमा धीरे धीरे आम जनता के पहूंच से दूर होता जा रही है। उसकी कहानी और परिवेश से दर्शक अपना तालमेल बिठाने में अपने आप को अक्षम मान रहा है। सिनेमा जो कभी उनके लिये सस्ते मनोरंजन का साधन था उसको वो अपने अनुकूल नहीं पा रहें हैं। यह दर्शक जो कभी हिन्दी सिनेमा के व्यवसाय का मुख्य श्रोत था आज हाशिये पर चला गया है। आज शायद ही किसी निर्माता निर्देशक के ध्यान में यह दर्शक है। अब हाशिये पर पहूंच गया यही दर्शक भोजपुरी सिनेमा का टार्गेट दर्शक है। अब हिन्दी सिनेमा में दिखने वाली चीज उसे अपनी भाषा में प्राप्त हो रही है तो वह भोजपुरी फ़िल्में देख रहा है। अपनी बोली और अपने कलाकारों को देख के दर्शक अधिक आनन्दित हो रहा है। अधिकांश फ़िल्में उन हिन्दी फ़िल्म के मसाले से तैयार हो रही हैं जो भोजपुरी बेल्ट में चल चुकी है।

इन फ़िल्मों को दर्शक मिलने का कारण लोक गायक भी हैं। भोजपुरी सिनेमा के आज सबसे सफ़ल अभिनेता मनोज तिवारी, निरहुआ और पवन सिंह की लोक गायक के रूप में अच्छी और सफ़ल पहचान रही है। इनके गाये गानों का बडा श्रोता वर्ग रहा है। जिनकी आवाज वो सुन रहे थे उनको पर्दे पर देखना उनको लुभा रहा है।

परिणामतः भोजपुरी में स्तरीय फ़िल्म का अभाव है कहने की बजाय यह कहना अधिक मुनासिब है कि भोजपुरी में स्तरीय फ़िल्म बन ही नहीं रही है। इसका दर्शक वर्ग बहुत ही सीमित है। अभी तक इस फ़िल्म को भोजपुरी के शिष्ट समाज के बीच हिकारत और उपहास से देखा जाता है। भोजपुरी की पुरानी फ़िल्मों को भोजपुरी समाज में जो स्वीकार्यता मिली थी वो आज इससे बहुत दूर हो गयी है।

अश्लीललता और हिंसा का अतिरेक भोजपुरी सिनेमा के विकास के लिये बहुत चिंतनीय बात है। वस्तुतः भोजपुरी सिनेमा की वर्तमान सफ़लता का आधार भी यही है भोजपुरी समाज के खुलेपन के नाम पर अनावश्यक छुट लेने से परिवार सिनेमा से धीरे धीरे दूर होता जा रहा है। हिंसा का भी चित्रण अकारण होता है, हीरो के नायकत्व को और विलेन के क्रुरता को उभारने के लिये इसका सहारा लिया जाता है।

भोजपुरी सिनेमा में भोजपुरी समाज की समस्याओं, लोक परम्परा, रीती रिवाज का चित्रण नहीं हो रहा है। भाषा को छोड्कर सब कुछ बाह्य प्रतिरोपित किया गया है। अगर इनका चित्रण होता भी है तो व्यावसायिक नज़रिये से। जैसे पर्व के नाम पर होली या छठ का चित्रण। छ्ठ भोजपुरी समुदाय का मुख्य पर्व है जिससे जनता अपने आप को जोडती है और होली के चित्रण से अश्लीलता दिखाने की छुट मिल जाती है। पलायन, दहेज, भ्रुण हत्या, बेरोजगारी, इत्यादि भोजपुरी समाज की मुख्य समस्याएं हैं जिनको लेके अच्छी फ़िल्मे बनायी जा सकती है पर इन सब पर किसका ध्यान है। ध्यान है सिर्फ़ अपराध पर, जिसमें अपराध और अपराधी को ग्लैमराइज्ड किया जाता है।

दरअसल भोजपुरी सिनेमा भोजपुरी समाज का व्यावसायिक दोहन कर रही है और बदले में विकृत मनोरंजन प्रस्तुत कर रही है। ये उद्योग भी मुम्बई में है। इसके बिहार और यु.पी. में होने से यहां को लोगो को काम मिलता और सरकार को फ़ायदा होता। इसके लिये तो सरकार को भी आधारभूत सरंचना उपलब्ध करा के फ़िल्म निर्माताओं को आकर्षित करना चाहिये।


अब जब हिन्दी सिनेमा और दक्षिण के बडे निर्माता भोजपुरी फ़िल्म में रूचि लेने लगे हैं, फ़िल्मों के निर्माण में भे काफ़ी वॄद्धि हुई है। प्रत्येक सप्ताह दो तीन सिनेमा प्रदर्शित हो रहा है। जिस रफ़्तार से सिनेमा प्रदर्शित हो रहा है उसी रफ़्तार से उनकी गुणवता भी गिर रही है। भोजपुरी सिनेमा को हिन्दी सिनेमा से सबक लेना चाहिये। फ़ार्मुलाबाजी में बुरे तरह उलझ चुके हिन्दी सिनेमा की हालत यह है कि साल भर में दस फ़िल्म भी हिट नहीं होते। वहीं सिनेमा चलता है जिसमें ताज़गी होती है नयापन होता है, सरोकार होता है। भोजपुरी सिनेमा को भी इसी ताज़गी और सरोकार की जरुरत है। यह ताज़गी उसे अपने दर्शक वर्ग के समाज से जुड कर ही मिल सकती है। भोजपुरी सिनेमा जिस दर्शको से कमाइ कर रहा है उसे उसके प्रति कुछ कर्तव्य भी निभाने होंगे। दर्शकों की रूचि के परिष्कार के लिये सार्थक फ़िल्में बनानी होंगी। ऐसा सिनेमा बनाना होगा जिससे इसकी चर्चा दूसरे भाषा के लोगों की बीच भी हो। इसकी एक राष्ट्रीय पहचान बने। तभी इसका दर्शक वर्ग बढेगा और सफ़लता का यह सुनहरा दौर टिकाऊ होगा। ध्यान रखिये कि दर्शक किसी का नही है, अपनी बोली, अपने समाज, अपने कलाकर से जुडाव उसे इन फ़िल्मों की तरफ़ खींच रही है। अगर सिनेमा के स्तर और विविधता की ओर ध्यान नहीं दिया जायेगा तो एक दिन यही दर्शक उसका साथ छोड देगा। और यह स्थिती किसी के लिये सुखकर नहीं होगी ।

2 टिप्‍पणियां:

BSD ने कहा…

bahut ache

Shrimant Jainendra ने कहा…

भोजपुरी सिनेमा का नाम तो बहुत हो गया है पर हमारे पास बहुत चुनिंदा फिल्म है जिसे हम गैर भोजपुरियों को दिखा सकते हैं | मुझे लगता है कि भोजपुरी की घिसीपिटी फिल्म भी इसलिए हिट हो जाती है क्यूंकि इनको शहर के पढ़े लिखे नहीं के बराबर देखते है और जो ग्रामीण देखते हैं उनको इसमें अपनापन नजर आता है | इसलिए अभी गुणवता महत्वपूर्ण मुद्दा नहीं है | पर सर्वग्राह्यता के लिये यह जरुरी है | प्रशंसनीय आलेख