सिल्क को उसके मां बाप ने पैदा नहीं किया…सिल्क को उसने पैदा किया जो उसे चाहते हैं
जब शराफ़त के कपड़े उतरते हैं तो सबसे मज़ा शरीफ़ों को ही आता है
तुम हमारी रातों का वो हिस्सा हो जिसे दिन में कोई देखना नहीं चाहता..
स्टार जब बुझ जाते हैं तब अंधेरे में गुम हो जाते हैं…
ऐसे कितने ही सुक्तिनुमा संवादों से अंटा पड़ा है द डर्टी पिक्चर जो एक ओर सीधे चोट करती है तो दुसरो ओर फ़िल्म की शैली को रेटारिक की ओर ले जाती है. खैर बात संवादों से शुरु है लेकिन संवादों की नहीं है. द डर्टी पिक्चर किसी नए सत्य से रूबरू नहीं कराती खासकर हम जैसे लोगों को जो क्रुर से क्रुर यथार्थ जानने का दावा करते हैं और शायद ही उससे विचलित होते हैं. द डर्टी पिक्चर हमें सिनेमा के पर्दे के पीछे की दुनिया को उजागर करता है जो चमक दमक और रंगीनियों से भरी हुई लेकिन जिस पर बनी है उस जमीन के नीचे बजबजाता नाला बह रहा है. यह वह दुनिया है जहां पुरूष नियंता की भूमिका में हैं. स्त्री को यह मिथ्याभाष हो सकता है कि वह स्टार है लेकिन जैसे ही यह स्टारपन पुरूषोचित अहम पर चोट करता है उसे ठिकाने लगाया जा सकता है. ‘फ़ाइट टू फ़िनिश’ की जंग हो सकती है और एसे हालात बन सकते हैं कि पहचान भी लुप्त हो जाये और अकेलेपन में घिरे होकर सड़कों पर चिल्लाना पड़े ‘कोई मुझसे बात करो’.
इस दुनिया का परिचय पिछले दिनों के अखबार में टटोला जा सकता है. एक कन्नड अभिनेत्री को कैसे कन्नड फ़िल्म उद्योग ने प्रतिबंधित कर दिया था. इस दुनिया का परिचय काफ़ी चटखारा लेने वाले अंदाज में शोभा डे ने अपने उपन्यास “स्टारी नाईट्स” में दिया था. काफ़ी साल पहले श्याम बेनेगल ने भूमिका बनाई थी जो एक प्रेम से अतृप्त स्त्री की प्रेम की तलाश को दिखाता था. इससे मिलती जुलती दुनिया मंधुर भंडारकर ने “फ़ैशन” में भी दिखाई थी. लेकिन वह एक स्त्री के इस दुनिया में दोबारा उठ खड़े होने की कहानी कह रहा था लेकिन द डर्टी पिक्चर उस स्त्री की कहानी कहता है जो विकल्पहीन होकर अपना अंत कर लेती है. उसे उसके ‘इमेज’ में ऐसे बांध दिया गया है जिससे वह बाहर निकलना चाहे भी तो नहीं निकल सकती वह वापसी के लिये भी इसी इमेज को भुनाना चाहती है लेकिन प्रयास निरर्थक और आत्मघाती हो जाता है. इस ‘इमेज’ के चलते वह उन भूमिकाओं के लायक भी नहीं जो इसी फ़िल्म में एक अन्य नायिका को मिलती है जो सुर्या की नायिका बनने के बाद उसकी मां भी बनती है. इसीलिये द डर्टी पिक्चर पर्दे पर दिखने वाले दृश्यों से अधिक उन दृश्यों में है जिसे हम दबा हुआ पाठ या उपपाठ या बिटविन द लाइन्स कहते हैं.
द डर्टी पिक्चर निश्चय ही सिल्क स्मिता के जीवन से प्रभावित है और कथा आधार वहीं से चुनती है लेकिन यह ठीक उसी प्रकार का चुनाव है जैसे किसी इतिहास खंड से कोई कथा चुनते वक्त लेखक अपने हिस्से का पाठ चुनता है वह उसकी स्वतंत्र रुप से व्याख्या कर सकता है क्योंकि यहां निर्देशक कह रहा है कि यह सिल्क स्मिता की जीवनी नही है, हमें मान लेना चाहिये. यह एक ऐसी लड़की की कहानी है जो फ़िल्मों मे काम करने के ख्वाब लेकर बड़े शहर में आती है निराश होकर वह हर वह काम करने को तियार है जो उसे काम दिलाये. उसे काम अपनी शर्तों पर नहीं मिलता और ना ही मिलना जारी रहता है. उसे उछाला जाता है पुरुष अहम को सहलाने के लिये और गिराया भी जाता है उस अहम को ठेस पहूंचाने के लिये. अलबत्ता वह मुगालता पाले हुए है कि वह सिल्क है सिल्क और जब दुसरी बार वह संवाद दोहराती है तो इस संवाद का खोखलापन साफ़ उभर आता है. सुपरस्टार सुर्या(नसिरुद्दीन शाह, जिन्होंने इस चरित्र के काईंयापन को बखुबी निभाया है) ही इस उद्योग की केन्द्रीय सत्ता है जो नियंता है. सारे पुरूष उसी के साये में पलते हैं वह किसी भी फालतु निर्माता को निर्देशक और किसी भी कहानी पर फ़िल्म बना सकता है. वह ट्रेंड सेटर भी है और ट्रेड ब्रेकर भी है. इसके खिलाफ़ चलने वालों को समझौता करना पड़ता है या निर्वासन झेलना पड़ता है. वैसे सिल्क भी एक घोड़े पर दांव आजमाती है लेकिन वह भी उसके लिये नहीं दौड़ पाता. फ़िल्म परत दर परत सिनेमा उद्योग में निर्माता से लेकर दर्शक तक व्याप्त पुरुष कुंठा को उघाड़ती है और उस दोहरेपन को भी जिसे सिनेमाघरों के अंधेरे में ही पहचाना जाता है. वह हर एक मर्द के बिस्तर का ख्वाब बन सकती है लेकिन पत्नी नहीं बन सकती. उसे ‘छूता’ कोई नहीं सभी ‘टच’ करते हैं. उस देह को जिस देह का उसके आत्मा से शायद ही कोई संबध है वह निर्विकार भाव से अपने इस ‘देह’ का इस्तेमाल करती है. अंततः इस देह का अस्त्र ही उसका साथ छोड़ जाता है. इस ‘देह’ में कुछ ऐसा नहीं रहता जो देखा नहीं गया हो. यह देह स्त्री की वह देह है जो भोगे जाने के लिये संतप्त है. जिस पर उसका अधिकार ही नहीं है यद्यपि कि उसे ऐसा लगता रहा है. फ़िल्म में भी सिल्क की देह भोगे जाने के एतिहासिक क्रम में ही है. उसके अंत के बाद बड़ी सफ़ाई से शकीला उसका स्थान ले लेती है. फ़िल्म के क्लाईमेक्स से कुछ पहले उसे सुर्यकांत के साथ देखा जा सकता है वैसे सुर्या मुख्या नायिका को उघाड़ने का सिलसिला शुरु करने वाला है और यह सिनेमा इतिहास का बदलाव है जिसे द डर्टी पिक्चर संदर्भ के रूप में दर्ज करता है.
द डर्टी पिक्चर को विद्या बालन की केन्द्रीय भूमिका के लिये याद रखा जायेगा. वैसे फ़िल्म से पहले तक उनके सेंसुअलिटी और सेक्सुअलिटी कि व्यापक चर्चा हुई. जैसा कि प्रचलन है हिन्दी सिनेमा में. इस दौर में भी अभिनेत्री के अभिनय की नहीं उसकी लुक की चर्चा होती है. भावाभिव्यक्ति से अधिक आकार को नापा जाता है. फ़िल्म रीलिज होने के बाद विद्या के अभिनय की चर्चा हो रही है. वैसे विद्या जिस फ़िल्म में अभिनय करती है उसकी चर्चा होती हैं. उनके फ़िल्मों की लिस्ट से बड़ी तो उनके पुरस्कारों की लिस्ट है. इस साल आई तीन महिला प्रधान फ़िल्मों में दो की नायिका वहीं है और आने वाली फ़िल्म ‘कहानी’ की भी केन्द्रीय चरित्र वहीं है. विद्या बालन पुरूष वर्चस्व वाले सिनेमा उद्योग में एक विकल्प की तरह उभर सकती है. प्रोमोशन के इस दौर में सिनेमा को चलाने की जिम्मेवारी स्टार्स को उठानी पड़ती है. इसलिये प्रचार प्रसार के केंद्र में स्टार ही रहता है. द डर्टी पिक्चर में सारा प्रमोशन विद्या बालन को ही केन्द्र में रख कर किया गया. टेलीविजन चैनलों में टूर प्रोग्राम में, अखबारों में विद्या ही केन्द्र में थी. फ़िल्म के पोस्टर में भी विद्या को ही उभारा गया था. इससे पहले आई फ़िल्म ‘नो वन किल्ड जेसिका’ में भी रानी मुखर्जी के साथ साथ प्रचार का जिम्मा उन्होंने संभाला था और आगामी ‘कहानी’ के प्रमोशन की जिम्मेवारी उन्हीं पर होगी. विद्या का ऐसा उभार और बाक्स आफ़िस पर सफ़लता उनके ब्रांड वैल्यु को मजबुत करेगा और जिसकी ब्रांड वैल्यु हो सिनेमा उद्योग उस पर दांव लगाता ही है. अतः विद्या अपने उन समकक्ष अभिनेत्रियों से थोड़ी ऊंचाई पर खड़ी हो सकती है जो केवल ‘शो पीस’ बन कर फ़िल्मों में आ रही हैं और पत्रिकाओं के पन्ने पर चल रही रैट रेस में दौड़ लगा रहीं हैं. लेकिन यहां सावधानी विद्या को भी बरतनी होगी चुनाव में क्योंकि हिन्दी सिनेमा का इतिहास रहा है कि अच्छी अभिनेत्रियां को उभरने के साथ ही ठिकाने लगा दिया जाता है. तब्बु का उदाहरण सामने है.
द डर्टी पिक्चर एक मध्यमार्गी सिनेमा है जिसमें उसकी अपनी खुबियां और खामियां है. फ़िल्म बनाते समय यह ध्यान रखा गया है कि इसे एक व्यापक दर्शक वर्ग मिले. लेकिन साथ ही यह मर्म को भी छूए इसका भी खयाल रखा गया है. मध्यांतर के पहले तक दिलचस्प हिस्सा मध्यांतर के कुछ देर बात तक हिचकोले खाता है और अंत में जाकर संभलता है. कुछ चरित्रों का जहां विकास नहीं हो पाता है वहीं दो अनावश्यक गानों में समय जाया करता है. मीडिया और सिनेमा उद्योग के गठजोड़ को नायला (अंजु महेन्द्रु जो शोभा डे से मिलती जुलती किरदार में हैं) के चरित्र के माध्यम से और उभारा जा सकता था लेकिन निर्देशक ने यहां मौका खो दिया है. इसी तरह मां के साथ सिल्क के संबंध को लेकर उसके द्वंद्व को भी निर्देशक ने जगह नहीं दी है और इसी कारण मां का वापस लौटना कन्विसिंग नहीं लगता है. फ़िल्म के पर्याप्त द्विअर्थी संवाद दर असल एक अर्थी है और ध्यान रहें हैं सिल्क की भाषा में जहां भी आता है वहां इसका संदर्भ यह है कि सिल्क ने यह भाषा लड़कों की संगत में ही सिखी है. द डर्टी पिक्चर दर असल अंधेरे में पुरुषों के नंगेपन को उघाड़ता है बशर्ते की पुरूष… नहीं यहां मर्द कहना उचित होगा बशर्ते कि मर्द उसे देखें आंख ना फ़ेरे…
4 टिप्पणियां:
एक सुलझी हुयी समझदार समीक्षा.
dhanywad sir
bebaak sameeksha ki hai amitesh ji.badhayi ho .
बहुत सटीक समीक्षा .कसावदार असरदार ..
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