आज तेरहवें दिन अन्ना हजारे अपना अनशन तोड़ेंगे और यह पूरा मुहिम एक मुकाम तक पहूंचेगा जो निश्चय ही इस अभियान की परीणति नहीं है. अन्ना ने खुद कहा है कि यह आधी जीत है. मैं इसे बड़ी लड़ाई का एक हिस्सा मानता हूं. वैसी लड़ाई जिसमें लोकतंत्र का मतलब यह ना रहे कि वोट देने के बाद मतदाता अपने छोटे मोटे काम के लिये जूझता रहे। एक ऐसी व्यवस्था हो जिसमें आखिरी आदमी भी अपनी नागरिकता को संपूर्णता में जी सके. इस लिये जो लोग इस पुरे आंदोलन को अ-राजनीतिक मानते रहें हैं वह इस भूलावे में ना रहे. क्योंकि यह वह जमाना है जिसमें शायद ही कुछ ऐसा हो जो राजनीति से बाहर हो. सत्ता और संसाधन पर कब्जा जमाने की होड़ में जनता इससे पहले कि किनारे हो जाये उसे अपनी अहमियत पता चल जानी चाहिये जो संभवतः इस आंदोलन की बड़ी सफलता होगी.
ये ठीक है कि अन्ना हजारे का यह आंदोलन एक उद्देश्य, प्रभावी भ्रष्टाचार उन्मुलन के विधेयक के लिये था लेकिन इसको मिलने वाला व्यापक समर्थन केवल इसलिये नहीं था. सरकारी नीतियों के आड़ में पीसते जनता को अपने आक्रोश की अभिव्यक्ति देने का यह माध्यम बन गया. इसीलिये निरंतर इसके साथ जनसमर्थन जुड़ता चला गया, बावजुद इसके कि इसकी आलोचना भी साथ साथ होती रही. वैसे आलोचक कम निंदक या विरोधी अधिक थे. लेकिन एरोगेंसी और अकड़ के तमाम आरोपो के बावजुद जैसा लचीलापन इस ‘टीम अन्ना’ ने दिखाया वह दुर्लभ है. इसके आलोचक भी स्वीकारेंगे कि अप्रैल में इस टीम ने जो लोकपाल पेश किया था उसे यह कितना बदल चुकी थी और लगातार मंच से कह रही थी कि आपत्ति दर्ज कराने पर हर संभव बदलाव/सुधार हो सकता है. इसी मुद्दे पर सरकार को भी कन्विंस करने कि कोशिश चलती रही.
एक बड़ा आरोप इस पर यह था कि इस टीम में सभी जाति, वर्ग, समुदाय का प्रतिनिधित्व नहीं है या यह आंदोलन एक खास वर्गीय चरित्र वाला है. पता नहीं आलोचको के पास कौन से मशीन है उपस्थित जन समुदाय का डी.एन.ए. जांच इतना आसानी से कर ले रहा है. फिर भी इस बार कम से कम टेलीविजन पर आने वाले चेहरों को देखिए तो लगेगा कि इस दल के ऊपरी स्तर में भी विविधता थी. खास बात यह कि इस आंदोलन का नेतृत्व ही एक पिछड़ी जाति के हाथ में था. लगातार बढ़ते समर्थन ने भी इस बात को पुख्ता कर दिया कि यह केवल मध्यवर्गीय आंदोलन नहीं है. जिस रात मैं रामलीला मैदान गया था, वहां पर जो जनता उपस्थित थी उनका अधिकांश निम्न वर्ग से था और दिल़चस्प बात यह कि कुछ मुसलमान युवक पानी बांट रहे थे और साथ कुछ हिंदु युवक कृष्णाष्टमी का प्रसाद.
कुछ लोगों की त्योरियां इस बात पर भी चढी कि इस आंदोलन में ‘भारत माता की जय’ या ‘वंदे मातरम’ का नारा एक खास धार्मिक चरित्र लिये है. प्रशांत भूषण ने अलबत्ता ये कहा कि किसी खास संगठन द्वारा लगाये जाने से नारा उनकी संपत्ति नहीं हो जाती. वैसे सबसे बडी बात यह कि क्या यह नारा लगता था तो सचमुच किसी धार्मिक समुदाय की चेतना से वशीभूत हो कर और वह चेतना अगले ही क्षण ‘इंकलाब जिन्दाबाद’ के नारे से सेकुलर हो जाती है. नारा सचमुच विद्वेष फैला रहा है या उसके प्रभाव की गलत व्याख्या हो रही है. मस्जिद में अजान गुंजने से यह बात साबित नहीं हो जाती कि यह ‘अजान’ अन्य धर्मों के विरुद्ध है. अतः इस पुर्वग्रह से निकल जाने की जरूरत है.
एक बड़ी आपत्ति यह रही कि यह आंदोलन संविधान के विरूद्ध है और चुंकि संविधान के विरुद्ध है इसलिये बहुजन समाज के भी विरुद्ध है. देर सबेर यह बात सुश्री मायावती को समझ में आ गई और पहले समर्थन के बाद उन्होंने अंततः समर्थन वापस ले लिया. मैं लाख माथा पच्ची के बाद भी यह समझ नहीं पाया की संविधान में प्रदत्त नागरिक अधिकारों को और प्रभावी बनाने के लिये चला यह आंदोलन संविधान विरोधी कैसे है ? क्या इसलिये कि इसका नेतृत्व कुछ अगड़ी जाति के हाथ में था. वैसे ये लोग अपनी इस ‘अस्मिता’ जो उन पर थोपी जा रही थी के प्रति कितना सचेत थे? तो क्या हर आंदोलन का विरोध इसलिये कर देना चाहिये कि उसका नेतृत्व किसी जाति विशेष के हाथ में है. वहीं नेतृत्व बदलते ही इसका चरित्र बदल जाता ?
आंदोलन के शुरूआत में ही सांसदो ने इस बात पर चिंता जताई कि यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हनन है और संसद सबसे सर्वोच्च संस्था है. वस्तुतः सदन में बैठे सांसद अब तक इस बात के आदि थे कि चुन लिये जाने के बाद वे अपनी मनमानी अगले पांच साल तक कर सकते हैं. और जनता को जो करना होगा वह चुनाव में करेगी. आश्चर्य है कि जिस लोहिया ने यह कहा था कि ‘जिंदा कौमें पांच साल तक इंतज़ार नहीं करती’ उसी लोहिया के ‘शिष्य’ इस जन उभार से अधिक व्यथित थे. बहस के आखिरी दिन उन्हें याद आ गया होगा कि लोकतंत्र में सर्वोच्च सत्ता जनता है और कोई भी संस्था उसके बाद . संविधान की प्रस्तावना भी ‘ हम भारत के लोग’ पंक्ति से शुरु होती है. सांसदों के बाद यह पाठ अगर नौकरशाही भी पढ़ ले तो लोकतंत्र का भला हो जाये. प्रभावी लोकपाल बिल के आने से ऐसी उम्मीद की जा सकती है. क्योंकि नौकरशाही से ही जनता का पाला अधिक पड़ता है . जो संभवतः सबसे अधिक भ्रष्ट है.
इस वर्ष विश्व में ऐसी बहुत सी परिघटनायें हो रहीं है जिसमें जनता सत्ता के विरोध में उठ खड़ी हुई है. कहीं वह सत्ता बदल चुकी है तो कहीं संघर्ष जारी है. भारत में यह प्रयोग इसलीये अनूठा है क्योंकि एक बार फिर यह अंहिसा के अस्त्रों से संपन्ना हुआ है. तेरह दिन तक चलने वाले इस आंदोलन में हिंसा की एक भी घटना नहीं मिली। जीत के जश्न को भी शालीनता पूर्वक मनाने का आग्रह मंच से किया गया .(ये अलग बात है कि कुछ लंपट भी थे लेकिन नेतृत्व ने पुलिस से उचित कार्रवाई करने को कहा). बिना नेतृत्व के विभिन्न शहरों में कायम रहने वाला अनुशासन प्रशंसनीय और उम्मीद भरा है.
सच में यह उम्मीद भरा समय है और इसका जश्न मनाने की बजाय सोचना चाहिये कि अब आगे किन मुद्दों पर आंदोलन को बढ़ाया जाय. बहुत से मोर्चो पर लोग पहले से सक्रिय हैं उनके संघर्ष से भी कंधा मिलाने की जरूरत है. गांधी जी भी सत्याग्रह के बाद रचनात्मक सत्याग्रह की बात कहते थे मुझे लगता है कि अब यह समय निश्चय ही रचनात्मक सत्याग्रह का है ताकि यह दौर स्थायी रह सके।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें