हमारे मोहल्ले में वैसे बहुत से कुत्ते थे लेकिन एक खास कुत्ता था जो रोज रात को हमारे घर आता था और पापा उसके लिये रोटी रखते थे. इसी तरह गांव में भी हर टोले में अलग अलग कुत्ते रहते थे और उन कुत्तो को एक दूसरे के इलाके में प्रवेश नागवार गुजरता था. हर घर से इन कुत्तो को खाने को कुछ मिल जाता था. किसी के आने का या किसी खतरे का पहला संकेत ये कुत्ते ही देते थे. इनके भौंकने की तीव्रता से ही स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता था. रात में कभी कभार ये अजीब आवाज में रोते थे इससे डर भी लगता था. बताया जाता है कि अदुनियावी शै जो मनुष्य नहीं देख पाते हैं कुत्ते देख लेते हैं और भय से रोते हैं. खैर, मुझे लगता है कि मनुष्य ने अपनी यात्रा के प्रांरभ में जिन पशुओं से दोस्ती की होगी उसमें कुत्ता जरूर पहला रहा होगा. महाभारत में युद्धिष्ठिर का साथ कोई भी उसके संबंधी नहीं निभा सके लेकिन कुता सशरीर स्वर्ग तक उनके साथ गया. आज कल भी पालतू जन्तु के रूप में कुत्ते सबसे ज्यादा पाले जाते हैं. गांव में तो गाय बकरी रखने वाले लोग कुत्तों को इसलिये रख लेते थे कि वह चोर और अन्य किसी प्रकार के खतरे से उन मवेशियों कि रक्षा कर सकता था या सूचना दे सकता था.
मैं कुत्तो को इतना याद क्यों कर रहा हूं? इसका कारण है चिल्लर पार्टी. चिल्लर पार्टी में फ़टका का एक मात्र साथी उसका कुत्ता भिड़ु है. भिड़ु को मंत्री भीड़े अपनी अहम का शिकार बनाना चाहता है. और फ़टका जो अनाथ बच्चा है उसके एक मात्र दोस्त को छीन लेना चाहता है. इसके लिये वह भिड़ु को आवारा घोषीत करता है. जबकि भिड़ु आवारा कुत्ता नहीं. वैसे आवारा कुत्ता होता क्या है? यह एक नितांत शहरी अवधारणा है. अलग बात है कि भिड़ु की नस्ल हाई फ़ाई नहीं है. लेकिन भिड़ु ने मंत्री के सचिव पर भौंक दिया है. सिकुड़ते जा रहे शक्ति और अहम को उपर उठाने के लिये मंत्री इस कुत्ते को माध्यम बना लेता है. लेकिन चिल्लर पार्टी फ़टका और भिड़ु के साथ खड़ी है क्योंकि उसने पढा है कि सही के साथ अवश्य खड़ा होना चाहिये, अपना किया हुआ वादा अवश्य निभाना चाहिये., दोस्त के साथ अंत तक दोस्ती रखनी चाहिये. दूसरे बड़े बच्चों की तरह यह बच्चे अपनी पढाई भूले नहीं है. फ़टका का यह वाक्य अंदर तक असर करता है. सच में, अगर अपनी पढाई को याद रखें उन तमाम नैतिक शिक्षाओं को जो स्कूल में सिखाया जाता है, तो क्या दुनिया इतनी अन्याय पूर्ण होगी?
फ़िल्म में एक संवाद है कि ‘यह दुनिया भिड़ु की भी है’. सच में, ये दुनिया केवल मनुष्यों की नहीं है. जानवरों और असंख्य जीवधारियों के साथ उस पर्यावरण की भी है जो हमेशा मानव के साथ रहा है और मानवों ने हमेशा इनका दोहन किया है. एक आधुनिक सुविधापूर्ण, विकसित समाज बनाने के नाम पर इस दुनिया से भिड़ु जैसे कई जानवरों को बाहर कर देने कि निरंतर साजिश चल रही है.
चिल्लर पार्टी इस दौर में आई एक उम्दा फ़िल्म है. जिसे भले ही बच्चों की फ़िल्म कह कर प्रचारित कर लिया जाये लेकिन यह फ़िल्म बच्चों से ज्यादा बड़ों की है. क्योंकि बच्चों को अपने साथी का नामकरण करने के लिये हिंदू नाम नहीं खोजना पड़ता, ये तो उस बच्चे के पापा को ही याद रहता है. क्योंकि बच्चे ही किसी चीज के साथ निस्पृह भाव से खड़े हो सकते हैं और यह जल्दी जान सकते हैं कि किसी को परेशान करना कितना नाजायज है.
चिल्लर पार्टी पर कोई भी बात बच्चों के अभिनय की तारीफ किये बगैर नहीं पूरी हो सकती. खास कर जांघिया, पनौती, एन्साइक्लोपीडीया, फटका ने तो कमाल किया है. निर्देशक अपनी सूझ बुझ से कुत्ते के चेहरे पर भी अभिनय के भाव लेने में सक्षम हुआ है.
एक सवाल फटका जैसे तमाम बच्चों की तरफ से यह फ़िल्म उठाती है कि अगर ये बच्चे श्रम ना करें तो खायें कहां से ? क्या सरकार और गैर सरकारी संगठन इस जिम्मेदारी को उठाने के लिये तैयार हैं ? राजेश जोशी की पंक्ति का याद आ जाना स्वाभाविक है ‘बच्चे काम पर जा रहें है’. लेकिन बच्चे काम पर ना जायें तो खायें क्या ? काम पर उनके शोषण से बचाने और उनका बचपन लौटाने के क्या विकल्प हैं हमारे पास. यह जटिल सवाल है इसका हल खोजा जाना चाहिये.
4 टिप्पणियां:
आलेख में इतनी त्रुटियाँ हैं वर्तनी की कि लगता है खाते समय कंकड आ रहा है दांतों तले..
लेख पढ़ने चला लेकिन अविनाश जी की टिप्पणी देख रुक गया
खाते समय कंकड़ आ जाये तो खाना नहीं छोड़ते कंकड़ हटा देते हैं. वैसे त्रूतियों पे ध्यान दिलाने के लिये आभार. त्रुटियां दूर कर दी गईं है...आप पढ़ सकते है...पढ़ के टिप्पणी करेंगे तो अच्छा लगेगा. आप जैसे पाठकों की जरूरत है...
इस पिक्चर के बारे में पढ़कर अच्छा लगा। कंकड़ कहीं दिखे नहीं! :)
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