ये दर्शक के संबंध में कुछ विचार है खास कर भोजपुरी सिनेमा के संदर्भ में. इस आलेख में सुधार की गुंजाईश है. प्रथम ड्राफ़्ट के रूप में यहा प्रस्तुत है. आपकी टिप्पणि अनिवार्य है.
‘दर्शक’ नाट्यशास्त्र में एक अवधारणा की तरह उपस्थित है. काव्यशास्त्र में ‘सहृदय’ पर व्यापक चर्चा हुई है. दर्शक या सहृदय या जिसे सामाजिक भी कहते हैं कला का ग्रहिता होता है. नाट्यशास्त्र में सहृदय कौन है या कितने प्रकार के हैं इस पर गहन विमर्श हुआ है. खैर, मेरा उद्देश्य उन चर्चाओं पर अपन मंतव्य रखने का नहीं है. मेरा बस यहीं कहना है कि कलाओं में दर्शक एक मुख्य घटक है. प्रत्येक कला अंततः ग्रहिता तक संप्रेषित होना चाहती है. भले ही वह स्वांतः सुखाय ही क्यों ना हो. ग्रहिता भी अपनी योगयता के अनुसार कला के मर्म को ग्रहण करता है.
सिनेमा एक आधुनिक कला माध्यम है. एक नज़रिये से देखा जाये तो यह चित्रकला और नाट्यकला की परवर्ती कला है. प्रारंभ में यह चित्र ही था और गतिशील होकर जब कथानकों में ढलने लगा तो इसका आधार नाटक बना. सिनेमा के शुरुआती इतिहास को खंगालिये तो इसके मुख्य अभिनेता कहानी और शिल्प, रंगमंच के ही अनुगामी थे. रंगमंच और सिनेमा अन्य कला माध्यमों से इसलिये थोड़ा भिन्न हो जाते हैं क्योंकि इसमें दर्शक की उपस्थिति अन्य माध्यमों से अधिक अनिवार्य है. इसलिये दर्शकों पे भी इनकी निर्भरता अधिक है. अमुक सिनेमा और अमुक नाटक की सफ़लता को मापने का एक आधार दर्शक भी होता है. कलाकृति के रुप में भी इसको दर्शक(सहृदय) ही से मान्यता लेनी पड़ती है.
सिनेमा और रंगमंच के इतिहास को देखें तो इसने शुरु से दर्शक को ध्यान में रखा है. अलग अलग दर्शक वर्ग के लिये अलग अलग प्रकार के नाटक और फ़िल्में बनती रही है. उदाहरण के लिये पारसी थियेटर का अपना एक विशाल दर्शक वर्ग था. इस नाटक से असंतुष्ट लोगों ने अपना रंगमंच बनाया तो उसका भी एक अलग दर्शक वर्ग निर्मित हुआ. सिनेमा में साठ के दशक के अंत में मुख्य धारा के सिनेमा से उबे निर्देशकों ने एक अलग रास्ता अपनाया और उनको भी दर्शक वर्ग मिला जो इन फ़िल्मों से अलग कुछ चाहते थे. सिनेमा में दर्शको का अध्ययन करें तो पायेंगे कि हर प्रकार के सिनेमा, अभिनेता, और अभिनेत्री का अलग अलग दर्शक वर्ग है. इसलिये सिनेमा और अभिनेताओं की अलग अलग कोटिया भीं हैं. मसलन ए ग्रेड, बी ग्रेड, पापुलर सिनेमा, समांतर सिनेमा आदि.
हिन्दी सिनेमा का एक बड़ा दर्शक वर्ग निम्न मध्य वर्ग से आता है. इसमें मेहनत कश, किसान, छात्र, और ग्रामीण जनता इत्यादि शामिल है. नब्बे के दशक तक हिन्दी सिनेमा ने इनका खूब मनोरंजन किया. उदारीकरण के आने के बाद जैसे ही एन. आर. आइ. और मल्टीप्लेक्स सिनेमा का आगमन हुआ. हिन्दी सिनेमा इन दर्शकों से दूर होने लगा. तड़क भड़क और अंग्रेजी के छौंक वाले संवाद से घबराये ये दर्शक इस सिनेमा से कटने लगे. सिंगल थियेटर के लगातार बंद होने और बढ़ते टिकट मूल्यों ने इनके पलायन को और तीव्र किया. सस्ते सीडी प्लेयर के आगमनों ने सिनेमा देखना आसान बना दिया लेकिन मेरा खुद का अनुभव है कि इस वर्ग ने इस माध्यम पर भी पुराने सिनेमा को देखा. आज भी इनका प्रिय अभिनेता अमिताभ, धर्मेन्द्र, मिथुन, गोविंदा, इत्यादि है. हिंसा और प्रेम प्रधान पलायन वादी फ़िल्में इन्हें भाती रहीं. नब्बे के बाद के दशक में एक साथ पूरे भारत में चलने वली फ़िल्में कम ही रहीं है. बिहार और उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों को उदाहरण के तौर पर लें(क्योंकि मैं वहां से हूं) तो पिछले कुछ सालों की दो हिट हिन्दी फ़िल्म दबंग और विवाह है. यहां के सिनेमा घरों में आज भी पुरानी हिन्दी फ़िल्मे, नयी की अपेक्षा अधिक चलती हैं.
इक्कसवीं सदी के शुरुआती दशक में भोजपुरी सिनेमा का पुनरुत्थान होता है. पहली भोजपुरी फ़िल्म १९६२ में ही बन गयी थी. इसके निर्माण के पिछे भोजपुरी अस्मिता की एक मुख्य कारक थी. उसके बाद का भोजपुरी सिनेमा का इतिहास तीन चरणों का है. पहले दो चरणों का दर्शक वर्ग एक व्यापक भोजपुरी समुदाय था. जिसमें लगभग सभी वर्ग के लोग शामिल थे. ‘ससुरा बड़ा पईसावाला’ से तीसरे चरण की शुरुआत होती है. यह वही समय है जब भोजपुरी क्षेत्र का एक बड़ा दर्शक वर्ग हिन्दी सिनेमा से दूर हो गया है. और यह दर्शक वर्ग फ़ैल भी गया है. अभिजित घोष ने अपनी किताब ‘सिनेमा भोजपुरी’ में इस दर्शक की चर्चा की है. जो पैसा कमाने केलिये अपने क्षेत्र से बाहर निकल के दुसरे शहरों में बस गये हैं. यह पेशागत समुदाय अधिकतर निम्न वर्ग का अंग है. भोजपुरी सिनेमा ने दो काम किया एक तो उसने अपने घर से बाहर निकल के रह रहे लोगो को अपने घर से कृत्रिम रूप से जोड़ा. भोजपुरी फ़िल देख के वे अतीत मोह में चले जाते हैं जो परदेश में उनका मुख्य संबल है. भोजपुरी फ़िल्म ने दूसरा काम किया कि इसने बहुत से सिनेमा घरों को जिंदा कर दिया.
भोजपुरी फ़िल्म का यह जो दर्शक वर्ग है वह हिन्दी का ही दर्शक वर्ग है जो अस्सी के दशक के कथानक को अपनी भाषा में फ़िल्माता हुआ देख रहा है. इन फ़िल्मों के कंटेट का विष्लेषण करें तो पायेंगे कि एक सी ही कहानी प्रत्येक फ़िल्म में रहती हैं जो दो चार हिन्दी और अब कुछ दक्षिण के फ़िल्मों का भी, मिक्सचर होता है. अश्लीलता, हिंसा और संगीत इन फ़िल्मों के चलाने के मुख्य तत्व हैं. मैनें हाल ही में एक फ़िल्म देखी ‘दिलजले’. यकीन मानिये कि कहानी नाम की कोई चीज इसमें नही थी और इस फ़िल्म ने क्रिकेट विश्वकप के दौरान भी खुब कमाई की जबकि हिन्दी की बहुत सी फ़िल्में इस दौरान प्रदर्शित नहीं हुई. मैंने यह फ़िल्म रात के शो में देखी थी उस समय भी काफ़ी लोग थे और बीच बीच में तालियां और सिटी भी बजा रहे थे. लगभग डेढ़ महिने बाद मैं पटना गया तो भी यह फ़िल्म वीणा सिनेमा में लगी थी जो सिंगल थियेटर है.
अगर आप इन दर्शकों का प्रोफ़ाइल चेक करें तो ये दर्शक हैं, छात्र वो भी जो छोटे शहरों में है, मजदुर, यात्री, देहात से शहरों मे काम कर के लौट जाने वाले लोग, बस ड्राइवर, छोटे दुकानदार इत्यादि भोजपुरी सिनेमा के प्रमुख दर्शक वर्ग है. यह मुखयतः निम्नर्गीय तबका ही है. पहले भोजपुरी सिनेमा देखने वालों में परिवार की संख्या भी रहती थी. मैंने ट्रैक्टर से लोगों को भोजपुरी सिनेमा देखने के लिये जाते हुए देखा है. एक ही ट्रैक्टर से कई परिवार शहर में पहूंचा. एक ने खाना बनाया तो दूसरे ने फ़िल्म देखा फ़िर दुसरा बाहर आया तो पहले ने देखा. लेकिन उतरोत्तर बढती अश्लीलता और द्विअर्थी गानों ने फ़िल्मों से परिवार की उपस्थिति को कम कर दिया है. मैंने एक दर्शक से पुछा तो उसने साफ़ मना कर दिया कि इन फ़िल्मों को वह परिवार के साथ नहीं देख सकता है.
ये जो दर्शक है वो फ़िल्म में क्युं देखते हैं. यहां मैं फ़िर एक अवधारणा की चर्चा करुंगा. काव्यशास्त्र का एक सिद्धांत है साधारणीकरण. इसके तहत नाटक देखता हुआ सामाजिक ‘स्व’ से दूर हो जाता है. इस समय पर अभिनेता की भावना ही उसकी अपनी भावना में तब्दील हुई जाती है. भोजपुरी फ़िल्मों में अभी का जो नायक है वह अधिकांशतः निम्नवर्ग का प्रतिनिधि चरित्र होता है. वह जब अपने से ऊंचे तबके की लड़की से प्रेम करता है या एक शक्तिशाली सवर्ण विलेन से बदला लेता है या अकेला चार गुंडो को मारता है तब दर्शक वहां खुद को ही देखता है. ये वो दर्शक है जिसने कभी किसी लड़की से प्रेम नहीं किया खास कर अपने से उच्च वर्ग की, कभी किसी से कड़े स्वर में बात नहीं कर पाया. बल्कि अपने अधिकांश जीवन में वह सवारी की, दफ़्तर में बाबु की स्टेशन पे टिकट अधिकारी की, कचहरी में जज की झिडकी सुनने का आदि हो गया है. उसके खुद के जीवन में इतनी परेशानियां है कि पर्दे कि परेशानियों को नहीं देखना चाहता उससे पलायन चाहता है. फ़िल्म के अंत में जब हीरोईन हीरो को मिलती है और विलेन परास्त होता है तब वह स्वंय को ही विजयी पाता है. इसके अतिरिक्त वह अपनी यौन कुंठा को दुर करने के लिये भी हाल में जाता है. आप देखिये कि अधिकांश फ़िल्में दर्शकों की इस भावना का दोहन करती है. मनोविश्लेषक सुधीर कक्कड़ लिखते हैं मैं सिनेमा दर्शकों को फ़िल्मों के पाठ का उपभोक्ता ही नहीं, बल्कि उसका रचयिता भी मनता हूं…चूंकि फ़िल्मकार को टिकट खिड़की पर नोटों की बरसात का लगातार ध्यान रखना पड़ता है, इसलिये वह सुनिश्चित्करता है कि वह ऐसा दिवास्वप्न चुन कर फ़िल्म के रूप में विकसित करे जो किसी विशिष्ट प्रकृति का प्रतिनिधि न हो. वह दर्शकों के ऐसे सरोकारों को सहज अनुभूति के स्तर पर संबोधित किये बिना नहीं रह सकत अजो साझे किस्म के हों…पोर्नोग्राफ़ी की तरह फ़िल्मकार को ऐसी कृति रचनी पड़ती है जो अपने अनूठेपन के कारण मंत्र-मुग्ध और उत्तेजित करे, और साथ ही जो इतनी सामान्य भी कि सभी की रूचि को आकर्षित कर सके.’ यह बात अपनी किताब ‘अंतरंगता के स्वप्न’ में हिन्दी सिनेमा के बारे में कही है जो भोजपुरी सिनेमा पर भी लागु होती है.
भोजपुरी क्षेत्र में फ़िल्मों में व्याप्त अश्लीलता पर चर्चा मुखर हो रही है. यहां जो चर्चा करने वाला समुदाय है वह मध्य वर्ग का है. जो ऐसी फ़िल्में चाहता है जो वह देख सके, जो उसके प्रतिमानों पर खरा उतरे. जाहिर है अभी की फ़िल्में उनके स्टेटस सिंबल को नहीं भाती. भोजपुरी क्षेत्र में बहुत से लोगों को आप भोजपुरी फ़िल्म के नाम पर ही मुंह बिचकाते देख सकते हैं. बात यह है कि अगर ऐसी फ़िल्में बनती है जो इस मध्यवर्ग को चाहिये तो क्या वह सिनेमा घर में जा के फ़िल्म देखेगा. भोजपुरी क्षेत्र में या उससे बाहर भी जहां सिनेमा घर हैं और जिस हालत में है उसमें तो यह वर्ग नहीं ही जायेगा. मध्यवर्ग जब अपने लिये घर में इतनी सुविधा जुटा रहा है तो ऐसी असुविधा जनक जगह पे कैसे जायेगा? आप इन क्षेत्रों के सिनेमा घरों का सर्वे कीजिये, अच्छी हिन्दी फ़िल्मों या कुछ ठीक भोजपुरी फ़िल्मों को देखने के लिये यह दर्शक वर्ग सिनेमा घर में कई सालों से नहीं आया. यह बहुत पहले से इनसे दूर हो चुका है. वह अपने होम थियेटर पे, लैपटाप पे अपनी रूचि की फ़िल्म का लुत्फ़ ले रहा है.
तो इस हालत में फ़िल्म जो कि एक मंहंगा व्यवसाय है और जिसमें हर कोई लाभ चाहता है उसमें यह मुश्किल ही है कि निर्माता अनिश्चितता की ओर कोई प्रयोग करें. ऐसी फ़िल्म बना दे लेकिन दर्शक ना देखने आये तो !‘कब अईबु अंगनवा हमार’ जो ठीक ठाक फ़िल्म थी उसने अच्छा व्यवसाय नहीं किया था. फ़िर निर्माता इस दिशा में प्रयोग के इच्छुक दिख भी नहीं रहें हैं.
फ़िर रास्ता क्या है? क्या इन दर्शकों को भी इन फ़िल्मों के लिये छोड़ दिया जाये और विश्वस्तरीय फ़िल्म बने जिसे कुछ लोग समारोह में देख के वाह वाह कर दे ! फ़िल्म कविता की तरह निजी विधा नहीं है यह एक सार्वजनिक कला है जिसका ज्यादा से ज्याद दर्शक तक पहूंचना अपेक्षित है. मेरे हिसाब से कुछ ऐसा रास्ता निकालना चाहिये जो धीरे धीरे इन दर्शकों को प्रशिक्षित भी करें. चर्चित निर्देशक अनिल अजिताभ ने अपनी फ़िल्मों (हम बाहुबली और रणभूमि) में वर्तमान भोजपुरी सिनेमा के फ़ार्म में ही रास्ता तलाशना शुरु किया है. कुछ ऐसे ही निर्देशको और अभिनेताओं को आगे आना होगा जो ऐसे प्रयोग को समर्थन दें. नितिन चन्द्रा के ‘देसवा’ से भी कुछ उम्मीद जग रही है कि वह कुछ राह निकालेगा. दूसरी जो जरूरत है वह यह कि इन सिनेमाघरों की हालत पर ध्यान दिया जाये. सरकार अपने कर संबंधी नियमों में कुछ करे और इन थियेटर के मालिक भी सिनेमाघर के रख-रखाव को बेहतर करें. तभी कुछ रास्ता निकलेगा. भोजपुरी सिनेमा के बढ़ते व्यवसाय को फ़ैलाने और सरंक्षित रखने की दिशा में ऐसे प्रयास अधिक मात्रा में होने चाहिये.
6 टिप्पणियां:
Vikramaditya Sahai
congratulations for such a lucid and comprehensive article. The following are immediate reactions, so kindly forgive my lack of clear articulation. My first issue is with the difficulty your article brings to the arguments against the rom...antic simplification of the proletarian, the lower middle classes et al, while we, and i include myself in this "we", have been asking for the recognition of their multiplicity and heterogeneity. You too have reiterated the escapism they seek and infact clubbed classes, groups and occupations into a harmonious "audience". Our attempts would need to be seriously re-thought of in the light of their consumption of the "shameful sexuality" (ashleelta) {i choose not to raise my problems with this word here} and violence, basically, base instincts of a base class... while the elite would like to watch "finer" cinema but can't produce/consume the same for basiness, sorry, business sake. This too sits uncomfortably with the growing consumption of these base films by the middle classes in the metropolis.... The larger question is ofcourse, how does one locate the agency of the audience you found? I sincerely hope that you'd provide some answers to all these provocative complications you raise...
एक. मैंने जिस दर्शक की बात की है वह निम्न वर्ग का है और हम निम्न मध्य वर्ग से आते हैं. हमने अपने लिये सौन्दर्य के अलग मानक गढ़े हैं. लेकिन यह जो निम्न वर्ग है शायद इसके लिये सौन्दर्य अलग है. एक फ़टेहाल चौराहे का बच्चा जिस समय जुझ रहा होता है ...उस समय किसी चित्रकार या फ़ोटोग्राफ़र का विजन हमारे लिये कला होती है. लेकिन मनोरंजन सबको चाहिये. थियेटर की शुरुआत इसलिये हुई ताकी सभी वर्णों के लोग इससे मनोरंजन कर सके. साफ़ है कि मनोरंजन की भुख सबको है. लेकिन उनका मनोरंजन कैसे हो...जब सिनेमा नहीं था तब नाटक के रूप में या कई ऐसी कला थी जो उनका मनोरेअंजन करती थी. जिसे हम अश्लीलता कहते हैं उस समय उसकी थोड़ी सी मात्रा खुलेपन के तौर पर स्वीकार की जाती थी. मुझे इस अश्लीलता से कोई समस्या नहीं है. दरअसल जिसे हम अश्लीलता कहतेथैं वह एक खास वर्गीय दृष्टिकोण भी है. अश्लीलता हम जैसे लोगो कि लिये ही टैबु है. लेकिन शादी विवाह की हिंदु पद्धतियां का उत्तर भारत में ऐसा खुलापन है जिसमें हम चाहे तो आसानी सेअश्लीलता की कैटेगरी में रख सकते हैं.
भोजपुरी फ़िल्म का जो अभी दर्शक है वह निश्चित ही पलायन के लिये सिनेमा देख रहा है. इसे मैंने उन दर्शकों के बीच बैठ के महसुस किया है. अब ये भि है कि इन दर्शकों को लगातार एक खास प्रकार का सिनेमा देखने के लिये बाध्य किया जा रहा है. मुझे आश्चर्य ह...ोता है कि जिस दर्शक के बोध को हम खारिज़ कर देते हैं एक दौर में उसने किस्मत, बंदिनी, प्यासा, आवरा, मदर इंडिया जैसी फ़िल्मों को कैसे सराहा होगा. तो एक बात यह भी है कि धीरे धीरे जो सौन्दर्य बोध है उसमें गिरावट आई है और इसके पीछे एक खास व्यावसायिक तर्क भी है. हिन्दी सिनेमा का कोई भी निर्देशक, अभिनेता और अभिनेत्री के इंटरव्यु में मैंने नहीं पढा कि उन्हें कोई भारतीय फ़िल्म अच्छी लगी हो, हिन्दी फ़िल्म तो और नहीं. लेकिन वो जी इन्हीं फ़िल्मों से रहें हैं.
http://mohallalive.com/2011/01/01/nitin-chandra-react-on-scenario-of-bhojpuri-cinema/
अमितेश भाई , रउवा अपना अनुभव के लिख देले बानी आ बहुत नीमन से लिखले बानी । असल मे अईसन कुल्हि फिलिम बनावे वाला के दावा ई रहेला की लोग भोजपुरी फिलमन के उपर लिख त देला बाकी उ हकीकत ना लिखेला खाली उपर झापर लिख देला अपना मन के सोच लिख देला , बिना फिलिम देखले लिख देला , बाकी रउवा देखला के बाद लिखले बानी एह से शायद रउवा उपर उ इल्जाम ना लागी ! खैर हम भोजपुरी सिनेमा अक्सर देखत रहेनी पिछला बेरी जब गांवे गईल रहनी त तीन गो फिलिम देखनी , छोट पर्दा ( गांव मे जवन पर्दा लगा के देखावल जाला उ ) आ सिनेमा हाल मे भी । हकीकत ई बा की ई कुल्हि फिलिम ठीक ओइसने नेतवन लेखा बाडी स जवनन के ओट त चाही बाकी ओट देबे वाला खातिर कुछु ना करिहन स आ चहिहन स की जिनगी भर ओट देबे वाला गरीब रहो , कुचाईल , पिसाईल रहो , कबो आगे जनि बढो , कबो नीमन जनि करो । बस बुझि जाई की ई कुल्हि फिलिम वाला झुठो नाव के फैंटासी देखा के एगो दबाईल कुचाईल दर्शक वर्ग के तैयार कईले बाडन स । ई फिलिम वाला कबो एह खातिर तैयार नईखन स की नीमन चीझु परोसाउ । काहे से की ई नीमन त कई ना सके लन स । रहल बात दर्शक के त हम पिछिला हाली जब गांवे गईल रहनी आ देसवा देखे के बात चलत रहल त रेक्सा चलावे वाला त बिना कुछ पुछले कहलस की देखल जाई बाकी ओकर मेहरारु आ लईकी साफ साफ पुछलस की " का देसओ ओइसने फिलिम ह ? हमनी के केईसे देखब जा जब फुहर पातर फिलिम होई त " आ ई सुनला के बाद हमरा बुझाईल की आजु के समय मे भोजपुरी के दर्शक उहे बाडे जे बेरोजगार बा जेकरा तनकी देर के माजा लेबे के बा , जेकरा फुहर पातर नीमन बाउर से कवनो मतलब नईखे , जे लाज सरम सब घोर के पी गईल बा ! आ अईसन लोग हरमेसा रही बस इहे बा की नीमन नीमन फिलिम आवे लगिहन स त एह लोगन के दोकान जल्दिये बन हो जाई ! जरुरत बा कम बजट के नीमन फिलिम आ सस्ता दर पे देखावे के सुविधा दिहल आ हम उमेद करत बानी की नितिन भाई के फिलिम देसवा काफी हद तक एहचीझु के शुरु करी भा कई देले बिआ ! धन्यवाद एह बेहतरीन लेख खातिर !
अमितेश तुम्ह्ने एक सार्थक और इस समय की बेहद जरुरी मसले को उठाया है जिसकी ओर अभी हमारे भोजपुरी सिने-समीक्षकों का ध्यान नहीं जा रहा है| ऐसे में हमारी जिम्मेदारी बहुत बढ़ जाती है जिनके जीवन शैली का एक छोर ग्राम्य-जीवन ,संस्कृति,लोक कलाओं से जुड़ाव और दूसरी ओर अभिजात्य शहरी समाज से इसका दूसरा छोर जुड़ा है| अभिजीत घोष ने उस दिन थोडा इस ओर इशारा किया था की भोजपुरी सिनेमा आखिर देखता कौन है और इसका दर्शक वर्ग सही मायनों में है कौन| इतना ही नहीं तुम्हारे लेख में वह बात भी शिद्दत से उभरी है जहां कास्ट निर्णायक स्थिति में है |
लगातार इस अभियान को बनाये रखो और लिखते रहो | यह एक काम्प्लेक्स सिचुएशन बन गयी है कि भोजपुरी सिनेमा जब अपने कारणों से चौतरफा मार झेल रहा है तब दर्शकों का भी एक वर्गीय चरित्र सामने आ गया है | बहुत ही शोध-परक लेख है वेल क्राफ्टेड ..शाबाश
एक बेहतरीन आलेख.. आपकी बातों से पूर्णतः सहमत हूँ.. एकबार में तो क्रांतिकारी परिवर्तन संभव नहीं है.. थोडा थोडा सबको बदलना होगा.. फ़िल्में बनाने वालों को भी, देखने वालों को भी और दिखाने वालों को भी.....
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