‘गंगा आये कहां से’ ‘काबुलीवाला’ के इस गीत के साथ गुलजार का पदार्पण फ़िल्मी गीतों के क्षेत्र में हुआ था। ‘बंदिनी’ के गीत ‘मोरा गोरा अंग लईले’ से गुलज़ार फ़िल्म जगत में प्रसिद्धी पा गये। लगभग पांच दशकों से वे लगातार दर्शकों को अपनी लेखनी से मंत्रमुग्ध किये हुए हैं। इस सफ़लता और लोकप्रियता को पांच दशकों तक कायम रखना निश्चय ही उनकी असाधारण प्रतिभा का परिचय़ देता है। इस बीच में उनकी प्रतिस्पर्धा भी कमजोर लोगो से नहीं रही। जनता और प्रबुद्ध दोनों वर्गों मे उनके गीत लोकप्रिय हुए। उनका गीत देश की सीमाओं को लांघ कर विदेश पहुंचा और उसने आस्कर पुरस्कार को भी मोहित कर लिया और ग्रैमी को भी |
गुलज़ार बहुआयामी प्रतिभा के धनी हैं। फ़िल्मों मे निर्देशन, संवाद और गीत लेखन के साथ अदबी जगत में भी सक्रिय हैं। गुलज़ार का फ़िल्मकार रूप मुझे हमेशा आकर्षित करता रहा है। लोकप्रिय सिनेमा की सरंचना में रहते हुए उन्होंने सार्थक फ़िल्में बनाई हैं। उनके द्वारा निर्देशित फ़िल्मों की सिनेमा के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण जगह है। मेरे अपने, कोशिश, मौसम, आंधी, खुशबु, परिचय, इजाजत, माचिस इत्यादि उनके द्वारा निर्देशित फ़िल्में एक व्यवस्थित और विस्तृत अध्ययन की मांग करती हैं। मेरा ध्यान इस वक्त सिर्फ़ उनके गीतों और वो भी फ़िल्मों में लिखे गीतों पर केंद्रित है।
गुलज़ार के गीतों की तह में जाने से पहले कुछ सूचनात्मक जानकारियां बांट ली जाये। गुलज़ार ने अब तक लगभग सौ फ़िल्मों के लिये गीत लिखें हैं और बाइस फ़िल्में निर्देशित की हैं। कुछ फ़िल्मों के लिये संवाद भी लिखे हैं जिसमें आनंद, नमकहराम, माचिस ,साथियां इत्यादि हैं।
गुलज़ार अब तक सात राष्ट्रीय पुरस्कार जीत चुके हैं। सर्वश्रेष्ठ निर्देशन - मौसम, सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म - माचिस, सर्वश्रेष्ठ गीत - मेरा कुछ सामान (इजाजत), यारा सीली सीली (लेकिन), सर्वश्रेष्ठ पटकथा - कोशिश, सर्वश्रेष्ठ वृतचित्र - पं भीमसेन जोशी और उस्ताद अमजद अली खान। गीतों के लिये गुलज़ार को नौ फ़िल्मफ़ेअर अवार्ड मिला। निर्देशन के लिए एक (मौसम), कहानी के लिये एक (माचिस), फ़िल्म के लिये एक (आंधी ,समीक्षक) और संवाद के लिये चार (आनंद, नमकहराम, मचिस और साथिया।) फ़िल्मफ़ेअर अवार्ड मिला है।
उनके कहानी संग्रह धुआं के लिये 2003 में उन्हें साहित्य अकादमी अवार्ड मिला और 2004 में भारत सरकार ने उन्हें पद्म भुषण से समानित किया।
गुलज़ार के गीतों में प्रवेश के लिये किस रास्ते का प्रयोग किया जाये इस पर विचार के बाद सबसे आसान लगा कि उनके गीत यात्रा का दशक के अनुसार अध्ययन कर लिया जाये इससे बहुत सारे तथ्य एक साथ उजागर हो जायेंगे।
गुलज़ार ने फ़िल्मों में गीत लेखन की शुरुआत 1961 मे फ़िल्म ‘काबुलीवाला’ से की, गीत था ‘गंगा आये कहां से’। इस दशक यानि 60-70 में गुलज़ार ने बंदिनी(63), पुर्णिमा(65), दो दुनी चार(68), और खामोशी(69) में गीत लिखा। मोरा गोरा अंग लई ले (बंदिनी), तुम्हें जिंदगी के उजाले मुबारक (पुर्णिमा), वो शाम कुछ अजीब थी और हमने देखी है इन आंखों की महकती खुशबु (खामोशी) इत्यादि गीत बेहद लोकप्रिय हुए। इन गानों से ही गुलज़ार के रेंज़ का पता चलता है। ‘पी’ के रंग में रंग जाने की इच्छा से लेकर रिश्तों की खुबसुरती का बेनामीपन और जिंदगी के उजालों को प्रिय के लिये छोड कर स्वयं को अंधेरें का अभ्यस्त बताने की उदासी गीतों की इस विविधता ने निश्चय ही सिनेमा जगत को एक समर्थ गीतकार के उदय की सूचना दे दी होगी।
70-80 के दशक में गुलज़ार ने सीमा, गुड्डी, मेरे अपने (71), परिचय (72), मौसम, खुशबु, आंधी (75), घर, खट्टा-मीठा, किनारा, घरौंदा, किताब (77), गोलमाल (79),इत्यादि फ़िल्मों के लिये गीत लिखा। इस दशक में फ़िल्मों की संख्या अधिक हैं और गीतों की भी। गौरतलब है कि यहीं वो दशक है जिसमें गुलज़ार ने निर्देशन की कमान संभाली और मेरे अपने, परिचय, मौसम, खुशबु, आंधी व किताब का निर्देशन किया। फ़िल्मों की सरंचना में गीतों को घुला देने और उनके खुबसुरत फ़िल्मांकन के उदाहरण के तौर पर इन फ़िल्मों को देखा जा सकता है। हालचाल ठीक ठाक है (मेरे अपने), तेरे बिना जिंदगी से कोई शिकवा (आंधी), दिल ढूंढता है फ़िर वहीं (मौसम) गीतों को हटाकर इन फ़िल्मों को देखा जा सकता है क्या? आखिरकार गुलज़ार विमल राय और हृषिकेश मुखर्जी के सहायक रह चुके थे। इस दशक में गुलज़ार को मौसम के लिये राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। दो दीवाने शहर में (घरौंदा 77), और आनेवाल पल जाने वाला है( गोलमाल 79) को सर्वश्रेष्ठ गीत का फ़िल्मफ़ेअर अवार्ड मिला।
अपने कैरीयर के तीसरे दशक (80-90) में खुबसुरत, थोडी सी बेवफ़ाई (80), बसेरा (81), मासुम, सदमा (83), इजाजत, लिबास(88) इत्यादि फ़िल्मों में गुलज़ार ने गीत लिखे। पिया बावरी ( खूबसूरत), आंखों में हमने आपके सपने सजाये हैं (थोडी सी बेवफ़ाई), ऐ जिंदगी गले लगा ले (सदमा), रोज रोज आंखो तले (जीवा), खाली हाथ शाम, मेरा कुछ सामान (इजाजत) सीली हवा छु गयी (लिबास) इत्यादि इस दशक के बेहद लोकप्रिय गाने थे। हजार राहें, (थोडी सी बेवफ़ाई), तुझसे नाराज नहीं (मासुम) और मेरा कुछ सामान को फ़िल्मफ़ेअर अवार्ड मिला था। उल्लेखनीय है कि इस दशक को हिन्दी सिनेमा के पतन का दौर माना जाता है। अभी तक हिन्दी सिनेमा इतने खराब दौर से नहीं गुजरा था। व्यावसायिकता और स्तरीयता दोनों मोर्चों पर यह विफ़ल हो रहा था। हिन्दी सिनेमा गीत संगीत का सुनहला दौर देख चुका था और इस दशक में सबसे बुरी हालत गीत संगीत की ही थी। लेकिन इस खराब दौर में भी गुलज़ार ने अंगुर, इजाजत, और लिबास जैसी फ़िल्म बनायी। उनके गीत इस दौर के संगीत पक्ष के गिरावट से अछूते रहे। तुझसे नाराज नहीं जिंदगी और मेरा कुछ सामान जैसे गीतों से नयी उंचाइयों को छुआ।
1990-2000 के बीच में गुलज़ार की लेकिन (91), माया मेमसाहब, रुदाली(93), माचिस(96), आस्था(97), दिल से, सत्या(98), जहां तुम ले चलो, हु तु तु(99), इत्यादि फ़िल्में आई। बीसवीं सदी का यह अन्तिम दशक हिन्दी सिनेमा के लिये वैसा दशक है जब हिन्दी सिनेमा में बहुत कुछ परिवर्तित हो रहा था। मार धाड और बुरे संगीत से दर्शक लगभग उब गये थे और फ़्रेश की तलाश में थे। फ़िल्मों का फ़्लाप होना जारी था लेकिन वो फ़िल्मे हिट हो रहीं थीं जिनमें कुछ नयापन था। मैनें प्यार किया, हम आपके हैं कौन, दिलवाले दुलहनिया ले जायेंगे, सत्या, कुछ कुछ होता है, इत्यादि जैसी अत्यधिक सफ़ल फ़िल्में इस दौर में बनी। खास बात कि इन फ़िल्मों की सफ़लता में गीत संगीत का बहुत योगदान था। अभिनेता, निर्माता, निर्देशक, संगीतकार, गीतकार की एक पूरी नयी जमात सामने आ गयी थी और गुलज़ार की जगह बकायदे बुजुर्ग की हो गयी थी। मजबुत पेड़ अपनी जगह हमेशा बरकरार रहते हैं और हमेशा नये पत्ते, फ़ुल औए फ़ल देते रहतें हैं। गुलज़ार ने अपने को नये जमाने के हिसाब में ढाला, बिना स्तर गिराये हुए, बिना समझौता किये। हां उन्होंने फ़िल्मों की संख्या जरुर कम कर दी। इस दशक में उन्होंने एक ओर ‘यारा सीली सीली’ (लेकिन 91) लिखा दुसरी ओर ‘गोली मार भेजे में’ मनोविज्ञान और दर्शन को यह गीत बखूबी व्यक्त करता है। ‘छोड आये हम वो गलियां’ (माचिस 96) से उनका दार्शनिक अंदाज बरकरार रहा तो ‘चुपड़ी चुपड़ी चाची’ (चाची 420) से बाल सुलभ अंदाज भी। रुदाली, और दिल से का सभी गीत लोकप्रिय हुआ। यारा सीली सीली (लेकिन, 91) और चल छैयां छैयां (दिल से, 98) को फ़िल्मफ़ेअर अवार्ड मिला।
वर्तमान दशक (2000-10) में भी गुलज़ार की आंच कम नहीं हुई है और उसी लौ में जल रहे है जो 61 में जली थी। फ़िजां, अक्स (2000), फ़िलहाल, अशोका (02), साथिया, चुपके से (03) पिंजर, मकबुल (04) रु-ब-रु, बंटी और बबली (05), झुम बराबर झुम, नो स्मोकिंग, दस कहानियां (07), युवराज(08), बिल्लु, स्लमडाग मिलेनर, कमीने(09) की लंबी लिस्ट ये बता रही है कि इस दशक में वो अधिक सक्रिय हो गये हैं। इस दौर में उनकी चमक फ़िल्मफ़ेअर (साथिया और बंटी और बबली) से आगे जाकर ऑस्कर (जय हो,स्लम्डाग मिलेनर,09) तक पहुंच गयी है। आ धूप मलूँ (फ़िजा), बंदा ये बिंदास है (अक्स), साथियां (साथियां), मार उडारी (पिंजर), रु-ब-रु (मकबुल), फ़ूंक दे (नो स्मोकिंग), बोल ना हल्के हल्के (झुम बराबर झुम), बीड़ी जलाईले (ओमकारा), तु ही तो मेरी दोस्त है (युवराज), धन ते नान (कमिने) इत्यादि गीत चार्ट बस्टर मे लगातार उपर की पायदानों मे बजे हैं। ‘कजरारे कजरारे’ ने लोकप्रियता के सारे मानदंड तोड़ दियें है। वैसे इसी दशक में गुलज़ार ने किस आफ़ लव, टिकट टू हालीवुड (झुम बराबर झुम), मरजानी मरजानी (बिल्लु) जैसे गीत भी लिखें है जो उनकी सूची से मेल नहीं खाते। यह शायद प्रयोग की उत्सुकता या फ़िल्म की मांग है परंतु ऐसे गीतों से वे बच सकते हैं। जारी...
यह आलेख वाक के आठवें अंक में प्रकाशित हो चुका है.
1 टिप्पणी:
gulzar saab par kitna bhi likha jaaye kam hai...un par ek lekh maine bhi likha tha...samy mile to padhen
http://rozanacharshow.blogspot.com/2010/10/blog-post.html
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