आ गया नया साल. एक दिन या युं कहें कि एक सेकेंड के फ़र्क से दिन, वर्ष, महीना बदल गया है. लेकिन इस एक सेकेंड का फ़र्क क्या जीवन में भी कुछ तब्दिली लाता है? मुझे तो लगता है कि साल का बदलना सिर्फ़ कैलेंडर और आंकड़ों का बदलना है. जीवन में बदलाव का अपना ही रफ़्तार होता है उसकी अवधि एक सेकेंड भी हो सकती है या उससे ज्यादा भी.
बहरहाल इस दार्शनिक बहस में ना उलझते हुए वो बात करते हैं जो मैं इस मौके पर करना चाहता हूं. मैं जिनके लिये खास तौर पर ये लिख रहा हूं उनकी दिलचस्पी कभी ऐसी बहसों में नहीं रही. वैसे ऐसी क्या, उनकी दिलचस्पी, यहां मैं बार-बार उनकी क्यों कह रहा हूं,(वैसे दो बार ही कहा है) हां तो हमारी दिलचस्पी किसी भी प्रकार की बहस में नहीं थी. हम बहस एक ही जगह करते थे क्रिकेट के खेल में, ज्यादातर रन आउट के फ़ैसले के समय, उसे भी बहस नहीं झगड़ा कहना चाहिये. इस झगड़े का अन्त विकेट उखाड़ कर खेल समाप्ति की घोषणा तक होता था, जो दूसरे दिन फ़िर खेल शुरु होने तक कायम रहता. अब तक ये समझा जा सकता है कि हम अपनी मंडली की बात कर रहें हैं. हमें से कोई भी लिखने जैसा बकवास काम नहीं करता है, इसलिये ये कार्य मुझे ही अंजाम देना है. वैसे जब मैं याद कर रहा हूं तो स्मृतियां धक्का मुक्की मचा रही हैं और एक दूसरे को ठेल कर आगे आने के लिये बेताब हो रही हैं.
हमें से बहुत एक दूसरे को तब से जानते थे जब से हम पैंट की बटन ठीक से बन्द नहीं कर पाते थे. हां हम क्रिकेट खेल लेते थे कामिक्स पढ़ लेते थे…धीरे धीरे हमारा सर्किल बढा…और इसके तीन आधार थे..क्रिकेट, कामिक्स और कोचिंग. ये कहने में मुझे कोई ऐतराज़ नहीं कि हम सभी एक दूसरे से एक साथ खुले और एक साथ बन्द थे. जो चीज बांटनी चाहिये उसे छुपा के रखते थे जैसे शिक्षा और जो चीज छुपानी चाहिये उसे बांटते थे. जैसे किसी बालिका के साथ किसी बालक का व्यक्तिगत अनुभव. वैसे हमारे उस संसार में बालिकाओं की आवश्यक्ता नहीं थी. फ़िर भी अधिकांश जोड़ियों की कल्पना कर ली गयी थी, बिना द्वितीय पक्ष की इजाजत के. वैसे सबके दिल में एक खास कोना सुरक्षित था जो लाज़िम था क्योंकि आज कसकने के लिये भी तो कुछ चाहिये. हम आमतौर पर हिम्मती थे, पर इतने हिम्मती भी नहीं थे कि किसी लड़्की से बात कर सकते थे. इस भीरूपन को हमने खास तौर से ढक रखा था यह कह कर कि हम लड़कियों से बात नहीं करते.
कोचिंग जहां हम सम्मिलित रूप से मट्रिकुलेशन के ‘आयरन गेट’ को तोड़ने के लिये प्रशिक्षित होते थे, हमारे मनोरंजन के लिये बेहतरिन जगह थी. जहां हम पढाई के साथ मास्टरों पर भी नज़र रखते थे. हमारे मास्टर सामूहिक शिक्षा और सामूहिक पिटाई दोनों में विश्वास रखते थे. पीटने का एक भी बहाना वो चुकते नहीं थे..वैसे उस मार में एक मज़ा भी था. कोचिंग में दो लड़कों का झगड़ा कराना फ़िर थोड़े से मारपीट के बाद सुलझाना कुछ ऐसे ही था कि बहुत दिन हो गये किसी ने झगड़ा नहीं किया. कुछ कराओ यार. फ़िर दो विशेषज्ञ इस काम को सम्पन्न कराते. इस विशेष मुकाबले के लिये विशेष जगह थी जिसे ‘झगड़ौआ चौक’ का नाम दिया गया था जहां ‘महाभारत’ का अयोजन होता, जिसे किसी वरिष्ठ नागरिक को आता देख कर तुरन्त खतम करा दिया जाता.
हमें मैट्रिक में अधिक से अधिक नंबर लाना था, ऐसी प्रतिद्वंद्विता हमारे मास्टर जी ने हमारे लिये विकसित की थी. वे सबकी रिपोर्ट सबको एकांत में बताते जैसे-मास्टर जी उवाच-“ हो गये, गये तुम राकेसवा एतना पढ़ रहा है कि हद से ज्यादा देखना तुम से अधिक नम्बर लायेगा”. हम उनकी बात को सुनते और जोर लगा के पढते और एक दुसरे को पछाड़ेना का यह कम्पीटीशन परीक्षा हाल में जाते जाते सहयोगी उद्यम बन जाता…किसी का कोई प्रश्न छुटने ना पाता. हरेक का विषय फ़िक्स था. ऐसी प्रतिस्पर्धा मैट्रिक परिक्षा तक कायम रही. वैसे कुछ गद्दार भी थे जो ये समझते थे कि वो अपना विशेष ग्यान नहीं बांटेंगे. खैर..यहां एक बात कहना जरुरी है कि हम सब का लक्ष्य एक खास बालिका को पछाड़ना था जो मास्टर जी की चहेती थी हम उसे ‘ब्रिलियेंट’ कहते थे और उसने हमें अंततः पराजित किया.
मैट्रिक परिक्षा के बाद हमने उस दुनिया में प्रवेश किया जहां कैरियर अहम था. सबका अपना अपना रास्ता था. हम सब इस पर आज तक चलते जा रहें हैं. अब हम छुट्टियों में मिलते…कामिक्स,क्रिकेट और कोचिंग पीछे छूट गया था. अब हमारे पास था दोपहर में ताश का खेल और शाम में रास्ता और मैदान. इन स्थलों पर हमें से कॊइ अपनी परेशानी नहीं शेयर करता जबकि सबके पास थी, कोई अपनी गर्लफ़्रेंड के किस्से नहीं सुनाता क्योंकि किसी के पास नहीं थी. यहां चुटकुला था, उस शहर का अनुभव और किस्से जो समाज की अन्दरुनी गतिविधियों के थे. आज भी हम एक दूसरे से उतना नहीं बात करते , संचार क्रांति ने भी हमें प्रभावित नहीं किया ऐसी बात नहीं, सबके पास बात करने के लिये बहुत से शिकायती लोग हैं. हमें से किसी को याद नहीं कि किसका जन्मदिन कब है. कोइ किसी के कुछ भी बड़ा करने से अप्रभावित है. कोइ किसी को इस बात के लिये नहीं कोसता कि तुमने अपनी जिंदगी में कुछ नहीं किया. किसी को उपदेश देने पे आप पीट सकते हैं और डींग हांकने पे आपकी खिल्ली ततक्ष्ण उड़ायी जा सकती है. बगहा में होने पर स्थायी तौर पर वहीं रह रहे दोस्तों से मिलना आपकी अनिवार्य ड्युटी है. साथ में एक भोजपुरी सिनेमा देखना अनिवार्य है क्योंकि हंसने का पुरा मसाला एक साथ मौजुद है. अब हम चाय पीते हैं, मोटर साईकिल पर घुमत हैं और उन लड़्कियों को याद करते हैं जो हमारे साथ पढा करती थीं.
आज बगहा से दूर दिल्ली में बैठा ये सब इसलिये याद कर रहा हूं क्योंकि बहुत अकेला लग रहा है. चाहता था कि इस वर्ष हम सब मिले और हर साल की तरह नये कपड़े पहन के घर से निकल कए सिनेमा हाल में मिलते और कचहरी के मैदान पर लम्बी गोष्ठी चलती. पर ये हो ना सका….ये सब पढ़ के अवश्य ही मेरा मज़ाक उड़ेगा जिसमें मैं भी शामिल रहूंगा. हम दोस्त हैं इसलिये हैं कि हम अपने आप पर हंसना जानते हैं और बेहद अनौपचारिक है. वैसे लिख रहा हूं तो मेरे भीतर का कोई कह रहा है कि क्या बकवास कर रहा है बे ?
2 टिप्पणियां:
'झगडौवा चौक'.....बढ़िया !
bahut si yaad taza hui.
एक टिप्पणी भेजें