रंगमंच पर स्त्री छवि
महिला रंगकर्मियों की रंगमंच पर एक सार्थक उपस्थिति रही है। खास कर स्वातंत्र्योत्तर आधुनिक रंगमंच पर, वरन अपने आरंभिक युग में पुरुष ही महिलाओं की भूमिका निभाते रहे। फ़िर समाज में हाशिये पे रहने वाली जाति बेडिन की महिलओं ने और बदनाम ईलाके की महिलाओं ने में रंगमंच पर पदार्पण किया, धीरे धीरे भद्र महिलाएं भी इस क्षेत्र में आ गयी।
अभी हाल ही में दिल्ली में महिला केन्द्रित दक्षिण एशिययाइ नाट्य समारोह का आयोजन किया गया। इस नाट्योत्सव की थीम थी स्त्री और नाम था लीला। महि्ला केन्द्रित नाट्यआलेख, महिला निर्देशक और महिला अभिनेत्रियों के काम का प्रदर्शन किया गया। भारत के अलावा, बांग्लादेश, पकिस्तान, मालदीव, अफ़गानिस्तान, नेपाल, श्रीलंका इत्यादि दक्षिण एशियाई देशों ने शिरकत की। उदघाटन अमाल अल्लाना द्वारा निर्देशित नाटक नटी विनोदनी से हुआ। यह प्रस्तुति पिछले कुछ वर्षों मे कफ़ी चर्चा बटोर चुकी है। यह अभिनेत्री बिनोदिनी के आत्मकथा अमरकथा पर आधारित है, यह एक महिला के सार्वजनिक जीवन में उतरने और स्वतंत्रता और पहचान को प्राप्त करने का साहसिक प्रयास है। जन्म से वेश्या बिनोदिनी, कोलकात्ता के रंगमंच पर अभिनय करने वाली पहली महिला थी, जिसने सफ़लता की उंचाइयां भी पायी। मंच पर जीवन के समानांतर उसके जीवन के अनुभव कैसे उसके अभिनय में सहायक बने, समाज के उच्च वर्णों द्वारा कैसे उसका शोषण किया गया, यह नाटक इसी की कहानी कहता है। नाटक में वृद्ध बिनोदिनी को सब कुछ याद करते हुए दिखाया गया है, यह स्मृतियां एकाग्र रूप में ना आकर के टुकडो टुकडों में आती है। बिनोदिनी के विभिन्न अवस्थाओं को अलग अलग पात्रों ने जीया है। इससे उसके अंतर्द्वंद्वं को उभारने में सहायता मिली है। मंच सज्जा में सफ़ेद विंग्स और प्लेटफ़ार्म का इस्तेमाल किया गया है। यह विंग्स चलायमान थे और इन पर प्रोजेक्टर के सहारे, महल, स्टेज, घर और बाग का इच्छित दृश्यबंध बना लिया जाता था। निसार अल्लाना की इस मंच सज्जा के साथ साथ नाट्क की वेश-भुषा भी काफ़ी आकर्षक थी। सभी अभिनेत्रियों ने अपनी भूमिकाएं अच्छी तरह से निभाई थी।
सकुबाई, नादिरा जहीर बब्बर द्वारा निर्देशित एकजुट की प्रस्तुति थी। इस एकल अभिनय में सरिता जोशी ने कमाल कर दिया था। पूरे डेढ घंटे दर्शक उनके अभिनय को मंत्रमुग्ध हो देखते रहे। इस नाटक में मुम्बई की चाल में रहने वाली सकुबाइ फ़्लैट और अपार्टमेंट में रहने वाले समुदाय, जिनके यहां वह काम करती है, के जीवन के अंतर्विरोधों को उजागर करती है। यह विपन्न स्त्री की निगाह है जिसका अपना घर बारिश में भीग रहा है और वह दूसरे का घर ठीक कर रही है। वह अमीर बच्चे के पीछे पीछे दु्ध लेकर भागती है और उसके बच्चे एक ब्रेड के लिये टूट पडते हैं। उसे सबसे आश्चर्य होता है कि आजकल पढे लिखे और अनपढ भी घर घर घुमते है। उसका अपना जीवन कई कडवी स्मृतियों से भरा है पर वह जीवन का रस लेना जान गयी है। एक उच्च मध्यवरगीय घर के अंदरूनी हिस्से की तरह दृश्यबंध को यथार्थवादी रूप दिया गया था। उसी के भीतर गति करते हुए सकुबाई के रूप में सरिता जोशी ने दो स्तरों के बीच की खाई को उजागर किया था। यह प्रस्तुति निस्संदेह सरिता जोशी के लिये याद रह जायेगी।
पाकिस्तान की सीमा किरमानी चरचित निर्देशिका है, अरिस्तोफ़ेनिस के नाट्क लिस्स्ट्राटा का रुपांतरण जंग अब नहीं होगी के नाम से ले कर आयी थी। इस नाटक में दो कबीले खुबैनी और फ़ुलमांछी की औरतें जो जंग से आजीज आ चुकी है, निर्णय लेती है कि वे अपने पति से दूर रहेंगी और कबिले के खजाने पर कब्जा कर लेती है। इस घटना से सभी मर्द नाराज होते हैं पर सभी औरतें एकत्र होकर उनका सामना करती हैं और उन्हे घुटने टेकने पर मजबूर करती हैं। दोनों कबीलों मे समझौता होता है कि अब जंग नहीं होगी। औरते अपने दानिश मंदी से जंग को हमेशा के लिये टाल देती हैं। एक सादे रंगमंच पर देह गतियों और गीत संगीत के जरि्ये यह प्रस्तुति अपना आकार लेती है। प्रकाश और ध्वनि प्रभाव भी इस नाटक के प्रभाव को उभारते है खासकर प्रकाश परिकल्प्ना काफ़ी कल्पनाशील है। प्रस्तुति के दौरान नाटक धीरे धीरे समसामयिक हो जाता है दोनों कबिले भारत और पाकिस्तान का रूप ले लेतें हैं। इनका अतीत एक है, आजादी की लडाई उन्होंने साथ लडी है, पर अब एक दूसरे से लड रहें हैं। औरतों को इस जंग में सबसे अधिक नुकसान उठाना पड रहा है इसलिये औरते कदम बढाती हैं और जंग को रोकने की पहल करती हैं।
सावित्री देवी भारतीय रंगमंच पर समकालीन श्रेष्ठ अभिनेत्रियों में से एक है। कन्हाईलाल की प्रस्तुति द्रोपदी में उनकी अभिनय क्षमता का रूप देखने को मिलता है। सैनिक दमन और अत्याचार के विरोध में सक्रिय द्रोपदी के पति को उसी के एक साथी के कारण सैनिक मार देते हैं। संघर्ष का बीडा उठाये द्रोपदी पकडी जाती है और उसका बलात्कार होता है। मंच पर दर्शकों और सैनिको के समने वे निर्वस्त्र होती है तो प्रतीत होता है कि हम खुद नंगे हो गयें हैं। कन्हाईलाल के प्रदर्शन की खासीयत इसमें मौजुद हैं। सादे रंगमंच और अभिनेता की देह गाति के द्वारा ही दृश्यबंध का निर्माण शैली बद्ध अभिनय और प्रकाश का उपयोग। यह नाटक पूरे पूर्वोत्तर में चल रहे सैनिक दमन के विरोध की प्रेरणा प्रदान करता है। सैनिकों के बधन में फ़ंसी सावित्री की कसमसाहट और चेहरे का तनाव सब कुछ उल्लेखनीय है। सावित्री अभिनय के दौरान अपनी एक एक मांशपेशियों से काम लेती हैं। सारा दमन और प्रतिरोध हम एक साथ उनके चेहरे पर देखते हैं।
अपने द्वारा देखी गयी इन प्रस्तुतियों की कुछ बातें उजागर कर दूं;
इन सारी प्रस्तुतियों में हाशिये की स्त्री और उनकी आंखों से समाज के चरित्र का चित्रण किया गया है।
औरतें अब चूप रहने वाली नहीं हैं वो मर्दों के बिना रहना जान गयी हैं, वक्त आने पर वह ने्तृत्व भी कर सकती है,और मर्दों से मुकाबला भी।
लगातार दमित होने के अभिशाप से उबरने के लिये अब नारियों को ही आगे आना होगा और अपने दमन का सक्रिय प्रतिरोध करना होगा।
और सबसे महत्त्वपूर्ण की जिस सभ्यता को मर्दों ने लहुलुहान कर दिया है उसकों बचाने और सुधारने की जिम्मेदारी महिलाओं को ही उठानी होगी।
यही इस लीला का सार है।
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