‘जिया
हे बिहार के लाला’ गीत को गैंग्स आफ़ वास्सेपुर के सिग्नेचर गीत की तरह प्रचारित किया जा रहा है.
यह गीत आकर्षित करता है लेकिन यह माहौल को अभिव्यक्त करने वाला और मूड बनाने वाला गीत
है. शायद इसीलिये इंटरनेट पर इस गीत को पहले पेश किया गया. ताकि मूड बन जाये और वास्सेपुर
को हम थोड़ा जान लें. इसके बाद चटनी गीत हंटर आया, इसमें एक चुहल है और बहुत गौर से
सुनेंगे तो एक दूसरा अर्थ भी निकलेगा लेकिन वहीं निकाल पायेंगे जो ‘बकैती’ में सक्षम
है. गैंग्स आफ़ वास्सेपुर का सबसे चौंका
देने वाला और छू लेने वाला गाना ‘हमनी के छोड़
के दुआरवा ए बाबा’ गीत है. मैंने इस गीत को सुना और हतप्रभ रह गया. ऐसी आवाज, ऐसा
शब्द अब तो हम अपने अंचल में भी नहीं सुन पाते. भोजपुरी को छवि को विकृत कर देने वाले
और उसके चटकारेपन को मुख्य भाव बना कर पेश करने वाले गीतों के बीच ऐसा भी गाना भोजपुरी
में हो सकता है यह शायद बहुत भोजपुरियों ने भी नहीं सोचा होगा. मेरे लिये, यह इस अलबम
का सबसे खास गाना है. जिसे मैं अब तक अनगिनत बार सुन चुका हूं और इसके साथ फ़िल्म के
अन्य गानों को भी कई कई बार सुन चुका हूं. शब्द इस गीत की जान है ही जिस मौलिकता में
इसे लिपिबद्ध किया गया है वह भी सराहनीय है. इस गीत में केवल हारमोनियम है जिसके साथ
हम एक किशोर गायक की आवाज सुन पा रहें हैं, जो तन्मयता के साथ शब्द को मर्म देता है,
मसलन ‘…सुनसान भईली डगरिया ए बाबा/ कि आ रे
बाबा निमिया हो गईली पतझार/ कवन बनवा माई गईली हो…’ इस आवाज ने शब्दों में बड़ी
सहजता से तलाश, दु:ख और बेचैनी को भर दिया है. मुझे याद नहीं आता कि मैंने भोजपुरी
में आखिरी बार कब ऐसा मार्मिक गीत सुना था.
गायक की आवाज का जो ठहराव है वह तो लगभग भोजपुरी संगीत से गायब हो चुका है,
वहां गति ही मुख्य है. यह गीत ऐसा है जो बहुत कुछ लिखने के लिये उकसा रहा है लेकिन
अगले गानों पर चलते हैं.
‘सूना
कर के घरवा’ एक बिरहा गीत है जिसमें पलायन करने
को बाध्य पुरुषों के विरहणियों का दर्द है. जो बहुत हद तक भोजपुरी समाज का यथार्थ रहा
है. गांवो के चौपालों और कीर्तन मंडलियों पर इस प्रकार के गुंजने वाले गीतों की छवि
इस गीत में मौजुद है. भोजपुरी में ‘पुरबी’ गीतों की एक परंपरा ही है. और कोईलरी में
जाने वाले मजदुर भी इन गीतों के प्रसंग आते हैं जो घर छोड कर चले गये हैं लेकिन उनकी
कोई खबर घर तक नहीं पहूंचती. इस गीत को भी स्वाभाविकता में मुद्रित किया गया है. एक
अन्य दुर्लभ गीत है नटुआ नाच का ‘पहिले प्राण
था’. इस गीत को अन्य ध्वनियों के साथ मिश्रित किया गया है, इससे कुछ शब्द समझ में
नहीं आते. नटुआ नाच की लुप्त होती जा रही गायन शैली को इसमें पकड़ा गया है. इस गीत में
गायक के आवाज का चढ़ाव सुनने लायक है जो अन्य ध्वनियों के साथ मिलकर एक वातावरण रचता
है. ‘वुमानिया’ गीत भी रोचक है जो एक समूह गीत हैं. इसमें भी डिजिटल ध्वनियों को आवाज
के साथ मिश्रित कर के प्रभाव पैदा किया गया है. यह विवाह शादी के समय गाया जाने वाला
गारी गीत की तरह लगता है जो पूर्वांचल में गाया जाता है. गीत के बीच में आया जाने वाला
ओ ओ ओ हो ओ का जो आलाप है वह गाने को खास
बनाता है. ‘भुस की डेरी में राई के दाना’
में शब्दों का संयोजन प्रभावी है जो अन्योक्ति की तरह है और तलाश के असफ़ल हो जाने की नियति को मनोरंजक ढंग व्यक्त
करता है. इसमें गायकों की आवाज भी काफ़ी भिन्न है. ‘मनमौजी’ एक प्रेमगीत है जो अभिसार को उत्सुक नायिका के भाव और उत्साह को
व्यक्त करता है. खुले बाजुबंद और फ़टे काज में संभल के चलने वाले इस गाने को गायिका
ने बेलौस होकर गाया है. पीयुष मिश्र के गाये और लिखे ‘इक बगल
में चांद होगा’ आशा का गीत है जिसमें मौत को ठेंगा दिखाने, उठ खड़े होने, रोटी और
लोरी के ऊपर नींद को तरजीह देने की बात की गई है. अपनी आवाज से पीयुष मिश्रा शब्दों
में मर्म को बुनते हैं जो सुकून देता है.
स्नेहा खानवलकर ने
संगीतकार के अपने अब तक के सफ़र में काफ़ी आश्वस्त किया है. मौलिकता के साथ खूबी यह है
कि वह संगीत को स्टुडियो के कृत्रिम सरंचना से बाहर निकाल कर खुले में ले आईं हैं.
एम.टी.वी. पर आ रहे कार्यक्रम ‘साऊंड ट्रिपिन’
में संगीत की खोज की उनकी यात्रा, रचनाशीलता और रचनाशीलता की बेचैनी की यात्रा है.
वास्सेपुर के संगीत में भी इसी मौलिक आवाज की खोज की बैचेनी और उसको दर्ज करने का प्रयास
साफ दिखता है. उन्होंने संगीत के स्वर में आवाज और शब्द को गुम नहीं होने दिया है.
लोकगीतों के साथ बरती गई उनकी संजीदगी से कम से कम बिहार और भोजपुरी के संगीतकारों
को प्रेरणा लेनी चाहिये जिन्होंने तालाब को गंधा दिया है. अनायास ही स्नेहा ने भोजपुरी
संगीत की ताकत को उभार दिया है. गीतों मे जहां वे आधुनिक ध्वनियों को मिश्रित करती
है वहां भी उन्होंने मौलिकता को कायम रखा है. असली को दर्ज करने का यह प्रयास सराहनीय
है . स्नेहा ने दरसल कुछ ऐसी आवाजों का और संगीत का दस्तावेजीकरण कर दिया है जो भविष्य
में संभवतः ना रहे.
फ़िल्म संगीत को फ़िल्म
की सरंचना में घुलना होता है. वैसे यह अनिवार्य नहीं है क्योंकि हमेशा गीतों को एक
अतिरिक्त आकर्षण तत्व की तरह इस्तेमाल किया जाने का इतिहास भी है.(हिन्दी और भोजपुरी
सिनेमा में) लेकिन अनुराग कश्यप की फ़िल्मों में ऐसा नहीं है. गुलाल और देव डी का संगीत
याद कीजिये जहां संगीत के बिन आप फ़िल्मों की कल्पना नहीं कर सकते, वह अंतर्वस्तु में
घुले हुए हैं. वासेपुर में भी भोजपुरी अंचल के संगीत को जिस तरह स्नेहा खानवलिकर ने
तीन साल के शोध और मेहनत से पूरी अलबम में गुंथा है वह आगे की कहानी कह देता है कि
फ़िल्म के वातवरण में यह गीत किस तरह रहेंगे. अब इंतजार फ़िल्म का है जिसमें हम इन गीतों
की बुनावट को देखेंगे.
वैसे यह जगह नहीं है
लेकिन फ़िर भी स्नेहा खानवलिकर जैसी युवा संगीतकार असली धुन असली आवाज और असली संगीत
की खोज कर लेती हैं जो फ़िल्म की कहानी के संदर्भित अंचल से संबंधित होता है लेकिन भोजपुरी
फ़िल्मों के संगीतकार ऐसा क्युं नहीं करते? कुछ अपवादो को छोड़ दें तो भोजपुरी फ़िल्मों
का संगीत अब कृत्रिम ध्वनियों से बजबजा गया है. वैसे हिन्दी में भी यह परंपरा संदर्भीकरण की परंपरा कम ही रही है. स्नेहा हिन्दी
में भी अपवाद की तरह हैं.
3 टिप्पणियां:
पर मेरे दिल के करीब इक बगल में चाँद होगा एक बगल में रोटियाँ...खासकर पीयूष की आवाज़ में..बहुत अच्छी गीत-संगीत समीक्षा अमितेश लगे रहो। बहुत अच्छा विश्लेषण।
आपने अच्छी समीक्षा लिखी है, परन्तु मेरा विचार है कि गीतों पर मुम्बइया मसाला हावी है। यह वह गीत नहीं है, जिसकी आशा थी। भिखारी ठाकुर ने अपने गीतों में पलायन कने वाले मजदूरों के जिस दर्द को अभिव्यक्त किया था, उसका शतांश भी दीख पड़ता तो क्या बात थी...। भोजपुरी गीत लिखने वाले अपनी अपनी महान विरासत से अनभिज्ञ जान पड़ते हैं।
आप ठीक कहते हैं, वैसे दो गीत बिलकुल भोजपुरी के हैं, बाकी गीतों का गीतकार भोजपुरी इलाके से ताल्लुक नहीं रखता...
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