बुधवार, 14 दिसंबर 2011

अंधेरे की हकीकत- द डर्टी पिक्चर


सिल्क को उसके मां बाप ने पैदा नहीं कियासिल्क को उसने पैदा किया जो उसे चाहते हैं
जब शराफ़त के कपड़े उतरते हैं तो सबसे मज़ा शरीफ़ों को ही आता है
तुम हमारी रातों का वो हिस्सा हो जिसे दिन में कोई देखना नहीं चाहता..
स्टार जब बुझ जाते हैं तब अंधेरे में गुम हो जाते हैं                 
ऐसे कितने ही सुक्तिनुमा संवादों से अंटा पड़ा है द डर्टी पिक्चर जो एक ओर सीधे चोट करती है तो दुसरो ओर फ़िल्म की शैली को रेटारिक की ओर ले जाती है. खैर बात संवादों से शुरु है लेकिन संवादों की नहीं है. डर्टी पिक्चर किसी नए सत्य से रूबरू नहीं कराती खासकर हम जैसे लोगों को जो क्रुर से क्रुर यथार्थ जानने का दावा करते हैं और शायद ही उससे विचलित होते हैं. डर्टी पिक्चर हमें सिनेमा के पर्दे के पीछे की दुनिया को उजागर करता है जो चमक दमक और रंगीनियों से भरी हुई लेकिन जिस पर बनी है स जमीन के नीचे बजबजाता नाला बह रहा है. यह वह दुनिया है जहां पुरूष नियंता की भूमिका में हैं. स्त्री को यह मिथ्याभाष हो सकता है कि वह स्टार है लेकिन जैसे ही यह स्टारपन पुरूषोचित अहम पर चोट करता है उसे ठिकाने लगाया जा सकता है. फ़ाइट टू फ़िनिश की जंग हो सकती है और एसे हालात बन सकते हैं कि पहचान भी लुप्त हो जाये और अकेलेपन में घिरे होकर सड़कों पर चिल्लाना पड़े कोई मुझसे बात करो.
इस दुनिया का परिचय पिछले दिनों के अखबार में टटोला जा सकता है. एक कन्नड अभिनेत्री को कैसे कन्नड फ़िल्म उद्योग ने प्रतिबंधित कर दिया था.  इस दुनिया का परिचय काफ़ी चटखारा लेने वाले अंदाज में शोभा डे ने अपने उपन्यास स्टारी नाईट्समें दिया था. काफ़ी साल पहले श्याम बेनेगल ने  भूमिका बनाई थी जो एक प्रेम से अतृप्त स्त्री की प्रेम की तलाश को दिखाता था. इससे मिलती जुलती दुनिया मंधुर भंडारकर ने फ़ैशन”  में भी दिखाई थी. लेकिन वह एक स्त्री के इस दुनिया में दोबारा उठ खड़े होने की कहानी कह रहा था लेकिन डर्टी पिक्चर उस स्त्री की कहानी कहता है जो विकल्पहीन होकर अपना अंत कर लेती है. उसे उसकेइमेजमें ऐसे बांध दिया गया है जिससे वह बाहर निकलना चाहे भी तो नहीं निकल सकती वह वापसी के लिये भी इसी इमेज को भुनाना चाहती है लेकिन प्रयास निरर्थक और आत्मघाती हो जाता है. इसइमेजके चलते वह उन भूमिकाओं के लायक भी नहीं जो इसी फ़िल्म में एक अन्य नायिका को मिलती है जो सुर्या की नायिका बनने के बाद  उसकी मां भी बनती है. इसीलिये द डर्टी पिक्चर पर्दे पर दिखने वाले दृश्यों से अधिक उन दृश्यों में है जिसे हम दबा हुआ पाठ या उपपाठ या  बिविन द लाइन्स कहते हैं.
द डर्टी पिक्चर निश्चय ही सिल्क स्मिता के जीवन से प्रभावित है और कथा आधार वहीं से चुनती है लेकिन यह ठीक उसी प्रकार का चुनाव है जैसे किसी इतिहास खंड से कोई कथा चुनते वक्त लेखक अपने हिस्से का पाठ चुनता है वह उसकी स्वतंत्र रुप से व्याख्या कर सकता है क्योंकि यहां निर्देशक कह रहा है कि यह सिल्क स्मिता की जीवनी नही है, हमें मान लेना चाहिये. यह एक सी लड़की की कहानी है जो फ़िल्मों मे काम करने के ख्वाब लेकर बड़े शहर में आती है निराश होकर वह हर वह काम करने को तियार है जो उसे काम दिलाये.  उसे काम नी शर्तों पर नहीं मिलता और ना ही मिलना जारी रहता है. उसे उछाला जाता है पुरुष अहम को सहलाने के लिये और गिराया भी जाता है उस अहम को ठेस पहूंचाने के लिये.  अलबत्ता वह मुगालता पाले हुए है कि वह सिल्क है सिल्क और जब दुसरी बार वह संवाद दोहराती है तो इस संवाद का खोखलापन साफ़ उभर आता है. सुपरस्टार सुर्या(नसिरुद्दीन शाह, जिन्होंने इस चरित्र के काईंयापन को बखुबी निभाया है) ही इस उद्योग की केन्द्रीय सत्ता है जो नियंता है. सारे पुरूष उसी के साये में पलते हैं वह किसी भी फालतु निर्माता को निर्देशक और किसी भी कहानी पर फ़िल्म बना सकता है. वह ट्रेंड सेटर भी है और ट्रेड ब्रेकर भी है. इसके खिलाफ़ चलने वालों को समझौता करना पड़ता है या निर्वासन झेलना पड़ता है. वैसे सिल्क भी एक घोड़े पर दांव आजमाती है लेकिन वह भी उसके लिये नहीं दौड़ पाता. फ़िल्म परत दर परत सिनेमा उद्योग में निर्माता से लेकर दर्शक तक व्याप्त पुरुष कुंठा को उघाड़ती है और उस दोहरेपन को भी जिसे सिनेमाघरों के अंधेरे में ही पहचाना जाता है.  वह हर एक मर्द के बिस्तर का ख्वाब बन सकती है लेकिन पत्नी नहीं बन सकती. उसे ‘छूता’ कोई नहीं सभी ‘टच’ करते हैं. उस देह को जिस देह का उसके आत्मा से शायद ही कोई संबध है वह निर्विकार भाव से अपने इस ‘देह’ का इस्तेमाल करती है. अंततः इस देह का अस्त्र ही उसका साथ छोड़ जाता है. इस ‘देह’ में कुछ ऐसा नहीं रहता जो देखा नहीं गया हो. यह देह स्त्री की वह देह है जो भोगे जाने के लिये संतप्त है. जिस पर उसका अधिकार ही नहीं है यद्यपि कि उसे ऐसा लगता रहा है. फ़िल्म में भी सिल्क की देह भोगे जाने के एतिहासिक क्रम में ही है. उसके अंत के बाद बड़ी सफ़ाई से शकीला उसका स्थान ले लेती है. फ़िल्म के क्लाईमेक्स से कुछ पहले उसे सुर्यकांत के साथ देखा जा सकता है वैसे सुर्या मुख्या नायिका को उघाड़ने का सिलसिला शुरु करने वाला है और यह सिनेमा इतिहास का बदलाव है जिसे द डर्टी पिक्चर संदर्भ के रूप में दर्ज करता है.
द डर्टी पिक्चर को विद्या बालन की केन्द्रीय भूमिका के लिये याद रखा जायेगा. वैसे फ़िल्म से पहले तक उनके सेंसुअलिटी और सेक्सुअलिटी कि व्यापक चर्चा हुई. जैसा कि प्रचलन है हिन्दी सिनेमा में. इस दौर में भी अभिनेत्री के अभिनय की नहीं उसकी लुक की चर्चा होती है. भावाभिव्यक्ति से अधिक आकार को नापा जाता है. फ़िल्म रीलिज होने के बाद विद्या के अभिनय की चर्चा हो रही है. वैसे विद्या जिस फ़िल्म में अभिनय करती है उसकी चर्चा होती हैं. उनके फ़िल्मों की लिस्ट से बड़ी तो उनके पुरस्कारों की लिस्ट है. इस साल आई तीन महिला प्रधान फ़िल्मों में दो की नायिका वहीं है और आने वाली फ़िल्म ‘कहानी’ की भी केन्द्रीय चरित्र वहीं है. विद्या बालन पुरूष वर्चस्व वाले सिनेमा उद्योग में एक विकल्प की तरह उभर सकती है. प्रोमोशन के इस दौर  में सिनेमा को चलाने की जिम्मेवारी स्टार्स को उठानी पड़ती है. इसलिये प्रचार प्रसार के केंद्र में स्टार ही रहता है. द डर्टी पिक्चर में सारा प्रमोशन विद्या बालन को ही केन्द्र में रख कर किया गया. टेलीविजन चैनलों में टूर प्रोग्राम में, अखबारों में विद्या ही केन्द्र में थी. फ़िल्म के पोस्टर में भी  विद्या को ही उभारा गया था. इससे पहले आई फ़िल्म ‘नो वन किल्ड जेसिका’ में भी रानी मुखर्जी के साथ साथ प्रचार का जिम्मा उन्होंने संभाला था और आगामी ‘कहानी’ के प्रमोशन की जिम्मेवारी उन्हीं पर होगी. विद्या का ऐसा उभार और बाक्स आफ़िस पर सफ़लता उनके ब्रांड वैल्यु को मजबुत करेगा और जिसकी ब्रांड वैल्यु हो सिनेमा उद्योग उस पर दांव लगाता ही है. अतः विद्या अपने उन समकक्ष अभिनेत्रियों से थोड़ी ऊंचाई पर खड़ी हो सकती है जो केवल ‘शो पीस’ बन कर फ़िल्मों में आ रही हैं और पत्रिकाओं के पन्ने पर चल रही रैट रेस में दौड़ लगा रहीं हैं. लेकिन यहां सावधानी विद्या को भी बरतनी होगी चुनाव में क्योंकि हिन्दी सिनेमा का इतिहास रहा है कि अच्छी अभिनेत्रियां को उभरने के साथ ही ठिकाने लगा दिया जाता है. तब्बु का उदाहरण सामने है.
द डर्टी पिक्चर एक मध्यमार्गी सिनेमा है जिसमें उसकी अपनी खुबियां और खामियां है. फ़िल्म बनाते समय यह ध्यान रखा गया है कि इसे एक व्यापक दर्शक वर्ग मिले. लेकिन साथ ही यह मर्म को भी छूए इसका भी खयाल रखा गया है. मध्यांतर के पहले तक  दिलचस्प हिस्सा मध्यांतर के कुछ देर बात तक हिचकोले खाता है और अंत में जाकर संभलता है. कुछ चरित्रों का जहां विकास नहीं हो पाता है वहीं  दो अनावश्यक  गानों में समय जाया करता है. मीडिया और सिनेमा उद्योग के गठजोड़ को नायला (अंजु महेन्द्रु जो शोभा डे से मिलती जुलती किरदार में हैं) के चरित्र के माध्यम से और उभारा जा सकता था लेकिन निर्देशक ने यहां मौका खो दिया है. इसी तरह मां के साथ सिल्क के संबंध को लेकर उसके द्वंद्व को भी निर्देशक ने जगह नहीं दी है और इसी कारण मां का वापस लौटना कन्विसिंग नहीं लगता है. फ़िल्म के पर्याप्त द्विअर्थी संवाद दर असल एक अर्थी है और ध्यान रहें हैं सिल्क की भाषा में जहां भी आता है वहां इसका संदर्भ यह है कि सिल्क ने यह भाषा लड़कों की संगत में ही सिखी है. द डर्टी पिक्चर दर असल अंधेरे में पुरुषों के नंगेपन को उघाड़ता है बशर्ते की पुरूष… नहीं यहां मर्द कहना उचित होगा बशर्ते कि मर्द उसे देखें आंख ना फ़ेरे…    

सोमवार, 12 दिसंबर 2011

देव कहां हो- दिलीप कुमार


मैं देव आनंद से बस एक साल बड़ा था. हम तीनों ने लगभग एक ही समय चालीस के मध्य में अपने कैरियर का आगाज़ किया था. मुझे अभी भी देव की और मेरी मधुर यादें है जब हम लोकल ट्रेन में काम की तलाश में स्टुडियो का चक्कर लगाते थे. थोड़े समय में ही हमने घनिष्ठ संबध स्थापित कर लिया और देव पारिवारिक मित्र हो गये खासकर मेरे छोटे भाई नासिर खान के.
१९४० के उत्तरार्ध में हम फ़िल्मों में अपना पैर जमाने लायक हो गये. राज और मैंने “शहीद”, “अंदाज” और “बरसात” से स्टारडम पा लिया. देव “ज़िद्दी” और “बाज़ी” से परवान चढ़ा. हमारे बीच शुरुआत से ही उदार पेशेवर संबंध था और परस्पर एक अनकही नैतिकता भी. चुंकि सब कुछ अल्फ़ाज़ में नही कहा जा सकता, हम एक दूसरे की इज्जत बड़ी खामोशी से करते थे.  हमारी अक्सर मुलाकात होती जिसमें हम एक दूसरे के काम की चर्चा और विश्लेषण करते. कुछ मज़ाकिया पल भी बिताते जब राज मेरी और देव की हुबहू नकल उतारते थे. वे क्या खुबसुरत लम्हें थे जबकि हम प्रतिस्पर्धी थे प्रतिद्वंद्वी नहीं. देव की खुबी यह थी कि वह सह अभिनेताओं और टेकनिशियनों के साथ बहुत सहयोगी होता था. उसके पास एक कातिल अंदाज और मुस्कान थी जो आज तक किसी दूसरे अभिनेता को नहीं है. जब भी उसे सही स्क्रिप्ट और कल्पनाशील निर्देशक मिला उसने कमाल का हुनर दिखाया  जैसे कि “काला पानी”, “असली नकली” और “गाईड”.  रूमानी दृश्य करने में वह हम सभी में  बेहतर था.
मैं खुशनसीब हूं कि मैंने देव के साथ पर्दे पर समय बिताया जेमिनी की “इंसानियत” में १९५५ में. जिसे एस.एस. वासन ने निर्देशित किया था, यह एक कास्ट्युम ड्रामा था. देव इतना उदार थे कि मेरे साथ काम करने के लिये उसने अपने प्रोडक्शन की तारीखें रद्द कर दीं. मैंने खुद देखा है कि कैसे वह जुनियर आर्टिस्ट की मदद करने के लिये टेक के बाद टेक देता था ताकि वह बेहतर कर सकें. उसने किसी को कभी भी उपेक्षित नहीं किया.
हमने तय किया था कि हम एक दुसरे के पारिवारिक उत्सवों में उपस्थित होंगे. १९५० के मध्य में हुई उसकी बहन की शादी और १९८५ में हुई उसकी पुत्री देविना की शादी में मैं उपस्थित था. १९६६ में शायरा बानो के साथ हो रहे मेरे विवाह समारोह में देव अपनी पत्नी मोना के साथ मौजुद था और हमारे पाली हिल के निवास पर कुछ अन्य मौकों पर भी. हम परिवार के सदस्य की तरह मिलते थे और संबंध के बीच कभी अपने पेशे को नहीं आने दिया.
शायद सबसे महत्वपूर्ण मुलाकात वह थी जब मैं राज और देव  तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू से मिले थे. उनके निधन से पहले . हमनें बहुत सी मुद्दों पर चर्चा की.
जैसे मैं उसे देव कहता था वह मुझे लाले कहता. अचानक लंदन में हुए उसके दुखद निधन के बारे में सुनकर बहुत हैरान और शोकाकुल हूं.  मेरा ८९ वां जन्मदिन बेहद दुखद होगा क्योंकि मैंने प्रिय देव को खो दिया  है जो निश्चित आता और कहता कि ‘लाले तु हज़ार साल जियेगा’/ देव कहां चले गौए मुझे छोड़कर’.


द हिंदु में रविवार के मैगज़ीन में छपे “देव  कहां हो”  का अनुवाद…

मंगलवार, 11 अक्तूबर 2011

सलाम करता चलुं…


जगजीत सिंह के दीवानों के नाम
जगजीत सिंह का मैं कभी फ़ैन नहीं रहा. सच में. मैं हमेशा उन्हें मेंहदी हसन और गुलाम अली से कमतर गज़ल गायक समझता रहा, यद्यपि गज़ल से मेरा साक्षात्कार पंकज उधास के गज़लों से हुआ था. मेरे मामा पंकज की हर नई कैसेट खरीद लाते और घर में यहीं बजता..ऐ गमे ज़िंदगी कुछ तो दे मश्वरा…या आइये बारिशों का मौसम हैं…लेकिन इन गज़लों की याद उन दिनों की हैं जब मैं गीत, गज़ल का फ़र्क बहुत नहीं जानता था. कर्णप्रियता और जल्दी याद हो जाने वाले गाने अच्छे लगते थे. जब मैंने ‘चुपके चुपके’ सुना तब जाना कि ये गज़ल है और इसके गायक गुलाम अली हैं..बहुत बाद में पता चला कि वे पाकिस्तान के हैं. जगजीत सिंह को पहली बार कब सुना ये ठीक ठीक याद नहीं लेकिन पहला गाना याद है कि कौन सुना था. ये  गीत था ‘होठो से छु लो तुम मेरा गीत अमर कर दो’. जिस गीत को सुनने के बाद मैं जगजीत सिंह की गज़लों की तलाश में जुटा वो था ‘वो कागज़ की कश्ती वो बारीश का पानी’…अब तक मैं यह जान चुका था कि गज़ल क्या है और जगजीत सिंह कौन है? और मेंहदी हसन के सामने जगजीत और गुलाम अली दोनो पानी भरते हैं. पंकज उधास की बिसात ही क्या है! जगजीत ने मेरे अकेलेपन को साझा करने वाले बहुत से गीत मुझे दिये हैं लेकिन फिर भी मुझे अपना दीवाना बना नहीं पाये…पता नहीं क्यों. जबकि मैं ऐसे कई लोगो को जानता हूं जो गज़ल गायकी का मतलब ही जगजीत सिंह समझते हैं.
वैसे जगजीत सिंह के बहुत एहसान है मुझ पर. कैसे? इसका जवाब देता हुं…मैं ठीक ठाक गुनगुना लेता हूं..या कहिये कि गा लेता हूं. एक जमाने में अच्छी आवाज थी. जगजीत सिंह के गीत जल्दी ही ज़बान पर चढ़ जाते थे. मैं और मेरा छोटा भाइ गा गा के उसकी अच्छी प्रैक्टिस कर लेते थे. जैसे ही किसी ने गाने की कोई फ़रमाईश की. एक आध गाना उनकी पसंद का सुना देने के बाद मैं जगजीत सिंह पर आ जाता था.  झुकी झुकी सी नज़र बेकरार हैं की नहीं/ दबा दबा सा सही इनमें प्यार है कि नहीं’ गाना गाने के बाद इस गीत पर प्रशंसा की उम्मिद भी अधिक होति क्योंकि अंदर से लगता कि जगजीत सिंह की गज़ल गा रहें हैं. मेंहदी हसन साब तो गुनगुनाने के लिये भी पकड़ में नहीं आते थे, गुलाम अली के गाने लंबे थे और वो जनता इन्हें सुनना भी कहां चाहती थी! वो तन्मय भाव से ‘होठॊ को छू लो तुम मेरा गीत अमर कर दो सुनती थी.’
गज़ल का रिश्ता दर्द और तन्हाई से है. दर्द खाक होगा लेकिन तन्हाई तो हैं ही. दस साल हो गये घर  से दूर शहर के बयाबां में रहते हुए. जब पटना में रहते थे तो फोन नहीं था. बिजली भी चली जाती थी. कमरे के अंधेरे में बैठ कर मैं गीत गा गा कर बिजली के आने की प्रतिक्षा करता. ज़ाहिर है उन गीतों में जगजीत सिंह सबसे अधिक जगह बनाये रहते थे क्योंकि उनके गाने याद थे. अक्सर मैं अकेले में उन को सुना करता दिल्ली आने पर. जहां बिजली नहीं कटती थी और मैं अकेलेपन का आनंद लेने लेगा था. इसी बीच मेरा सामना निदा फ़ाज़ली से हो चुका था और मैंने उन गज़लों को सुना जो जगजीत की आवाज़ में थे. ये ग़ज़ल हौसला बढ़ाते थे. ‘अपनी मर्ज़ी से कहां अपने सफ़र के गम हैं/ रूख हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं’. हर तरफ़ हर जगह बेशुमार आदमी’ धूप में निकलो घटाओं में नहा कर देखो/ जिंदगी क्या है किताबों को हटा कर देखो.’ इस गीत को सुनने के बाद  मैंने किताब को हटाया तो नहीं लेकिन उसके बाहर देखना शुरु किया और मुझे सचमुच दुनिया को देखने में मज़ा आने लगा.
क्या हैं जगजीत सिंह जिन्हें मैंने हमेशा बड़ा गायक नहीं समझा लेकिन हमेशा वे मेरे काम आये. क्यों? ये मुझे तब पता चला जब मैं गिरफ़्ते इश्क हुआ. अब मुझे पता चला कि कितने सहजता से  अहसास को बेपर्द करके आपके सामने रख रहें हैं. ‘हाथ छूटे भी तो रिश्ते नहीं छूटा करते’, कोई ये कैसे बताये कि वो तन्हा क्यों है, ‘तेरी खुशबू में बसे खत मैं जलाता कैसे.’ इत्यादि इत्यादि जिसे गुनगुनानें में लगता कि मैं उड़ा जा रहा हूं. जटिल से जटिल बात कितनी सहजता से गीत में आता है.. ‘बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जायेगी/ लोग बेवज़ह उदासी का सबब पुछेंगे…..चाहे कुछ भी हो सवालात ना करना उनसे/ मेरे बारे में कॊइ बात ना करना उनसे’  एक सामाजिक यथार्थ को पकड़े हुए इस गीत को सुनने के बाद मन होता है कि खुद किसी के लिये गायें. (वैसे इसके खतरे हैं). ऐसे बहुत से गज़ल ज़ेहन में हैं जो हमेशा साथ रहते हैं..जैसे कि जंगल, पर्वत, सहरा और बस्ती सब इन्हीं से भरे हुएं हों. जहां से भी गुजरे एक आध बार भी ज़बान पे आ ही जायेंगे.
बात जगजीत सिंह कि नहीं है बात मेरी है. मेरे भीतर के जगजीत सिंह की है. मैं कभी कभी. सोचता हूं कि हम जिस दुख को ओढे रहते हैं वह दुख सच में कैसे आता है? यह जगजीत सिंह ने झेला अपने पुत्र की मृत्यु के बाद. और फिर मैंने उसे सच में अनुभव किया अपने एक अग्रज की जवान मौत पर. और सच में गाकर मन को हल्का किया…’चिट्ठी ना कोई संदेश, जाने वह कौन सा देश, जहां तुम चले गये’. वैसे मैं अपने मन को हल्का करने के लिये गाता हूं ये कमाल का उपचार है.
यह पैराग्राफ अब कुछ लोगों को याद करने के लिये है. आज ही शाम में मेरे एक भाई ने फोन किया कि जगजीत सिंह की मौत के बाद मुझे बहुत अकेलापन महसुस हो रहा है. इस अकेलेपन को वो अपने तरीके से हल्का कर रहे थे. मुझे उस भाई की याद हो आई जिन्होंने मुझे गज़ल सुनवा सुनवा के असमय ग़ज़ल प्रेमी बना दिया. सुनते हैं कि अक्सर लोग इश्क करने के बाद ग़ज़ल की ओर आते  हैं. मेरी मां के अनुसार ग़ज़ल सुनने वाला आदमी नीरस होता है और बिगड़ैल भी. खैर, मुझे खयाल आया कि भाइ साहब आज कैसा महसुस कर रहें होंगे. अफ़सोस उनकी प्रतिक्रिया जानने का मेरे पास कोई साधन नहीं है. लेकिन जरूर वो जगजीत सिंह को सुन रहें होंगे. मुझे अचानक अपने मित्र के एक बीते प्रेम की याद हो आई. मुझे उस कैसेट की याद हो आई. और सोचा कि क्या आज इस खबर को सुनकर वो ‘फ़ारगेट मी नाट’ कैसेट को याद करेगी? जो उसने दिया था. क्या मेरा मित्र आज एक क्षण के लिये भी उस कैसेट के बारे में सोचेगा. यह भी ध्यान आया कि वो लोग कैसे होंगे जिनका इश्क जगजीत की गज़लों में परवान चढ़ा होगा ? क्या उन्हें उस खत की याद आई होगी जिसे वो कभी गंगा में बहा आये थे? यकीनन लोगबाग जगजीत सिंह को अपने अपने तरीके से याद कर रहें होंगे और यह उनके भीतर का जगजीत सिंह ही होगा. यहां यह कहना बिल्कुल लाज़िम है कि जगजीत सिंह एक ग़ज़ल गायक ही नहीं रहे थे वे एक सामाजिक प्रक्रिया थे.
फिर भी मैं जगजीत सिंह का फ़ैन नहीं हूं. और आगे हो जाउंगा ऐसी उम्मीद भी नहीं है. लेकिन मैं उनको अपने पास रखता हूं बहुत सहेज के. क्योंकि उनसे दर्द और तन्हाई का रिश्ता है. और कोई इतने करीबी का फ़ैन हो सकता है क्या?