बुधवार, 25 मई 2011

मैं देसवा के साथ क्यों नहीं हूं...


 
यह देसवा की समीक्षा नहीं है, और वरिष्ठ फ़िल्म समीक्षक अजय ब्रह्मात्मज की प्रेरणा से लिखी गयी है, इसीलिये उन्हीं को समर्पित. इसमें आवेग और भावना की ध्वनि मिले तो इसके लिये क्षमाप्रार्थी हूं.  

ये मेरे लिये साल के कुछ उन दिनों में था जिसमें मैं अपने नजदीक होना चाहता हूं, ये एक अजीब प्रवृति है मेरे लिये. उस दिन मेरा जन्मदिन था…गर्मी से लोगो को निज़ात देने के लिये आंधी और बारिश ने मौसम को खुशनुमा बना दिया था. दिन पूरी तरह अकेले बिता देने के बाद शाम को हम चार लोग देसवा देखने निकले. हमारे जरूरी कामों की लिस्ट में ये काम कई दिनों से शामिल था. देसवा के बारे में जानने का मौका लगा था अजय ब्रह्मात्मज जी के फ़ेसबुक पेज पे नितिन चन्द्रा का कमेंट पढ़ के.  बाद में देसवा का पेज बन गया. इस फ़िल्म का मंतव्य यह था कि यह भोजपुरी सिनेमा में आये सस्तेपन के बीच एक ऐसा प्रयास है जो यह सिद्ध करेगा कि भोजपुरी में भी स्तरीय सिनेमा बन सकता है. हम आश्वस्त हुए और इस पेज से जुड़े. हमने भी कुछ दिनों पहले से ही भोजपुरी फ़िल्म के बारे में लिखना शुरु किया था. इस सिनेमा के उभार का आकलन करता हुआ मेरा एक लेख भोजपुरी वेबसाईट अंजोरिया में छपा, बाद में सामयिक मीमांसा में भी छपा. साथी मुन्ना कुमार पांडे ने भी अपने ब्लाग और जस्ट ईंडिया मैगजीन में भोजपुरी के क्लासिक फ़िल्मों और गीतों के बारे में लिखा. देसवा ने हमें उत्साहित किया था और कम से कम इसको मेरा समर्थन उस दिन तक जारी रहा. लेकिन देसवा देखने के बाद मुझे निराशा हुई कि जिस फ़िल्म से उतनी उम्मीद कर रहें हैं वह बस एक फ़ार्मुलाबाजी के अतिरिक्त और कुछ नहीं है वैसे तकनीक और अभिनय अच्छा है. देसवा देख के लौटने के बाद मैंने इसके पेज पे एक टिप्पणी की…
बहुत निकले मेरे अरमान फ़िर भी कम निकले...देसवा देख के लौटा हूं जहां से भोजपुरी फ़िल्मों को देखता हूं वहां से देखता हूं तो ठीक लगती है, जहां से फ़िल्मों को देखता हूं वहां से निराश करती है...
इस टिप्पणी के बाद नितिन जी ने फ़ेसबुक पे मुझसे बात की और मेरी निराशा का कारण जानना चाहा मैंने उनको बताया। उसके बाद उन्होंने मेरी पसंद की भोजपुरी की फ़िल्मों की जानकारी ली और इतना जानने के बाद मेरे फ़िल्म ग्यान को कोसने लगे. खैर…एक लम्बी बातचित के बाद उन्होंने मुझे अनफ़्रेंड कर दिया…(ये पूरी बातचीत देसवा की रीलिज के बाद सार्वजनिक की जा सकती है). इसके साथ ही मेरी टिप्पणी को देसवा के पेज से हटा दिया गया. अजय ब्रह्मात्मज के पेज, मुन्ना पांडे के पेज और मोहल्ला लाइव पे की गई मेरी टिप्पणियों पे भी काफ़ी बवाल काटा गया और व्यक्तिगत टिप्पणियां की गईं. इस आपबीति को यहीं छोडिये..
देसवा जिस बात को ले के चलती है वह यह कि भोजपुरी को कुछ लोगो ने बाजारू, अश्लील, बना दिया है. भोजपुरी के ये बलात्कारी भोजपुरी समाज का शोषण और दोहन कर रहें है और अपना स्वार्थ साध रहें है. भोजपुरी का एक बड़ा समाज है जो इन फ़िल्मों को नहीं देखता. साथ ही भोजपुरी का एक अभिजात्य भी है जो भोजपुरी की इस अवधारणा से जुड़ने मे अपना अपमान समझता है. भोजपुरी जो लगभग एक अश्लील संस्कृति का पर्याय बनती जा रही है, देसवा भोजपुरी की इस अवधारणा का विरोध करती है और व्यपाक समाज को फ़िल्म के जरिये ये संदेश देना चाहती है कि भोजपुरी केवल वर्तमान भोजपुरी सिनेमा नहीं है. देसवा एक साफ़ सुथरी विश्व स्तरीय सिनेमा बना के एक व्यापक दर्शक वर्ग और बाजार तैयार करना चाती है. देसवा के फ़ेसबुक पेज पे इसके बारे में लिखा है…
Deswa , Its just the beginning... We are coming up with World Class Films based in Bihar. Bihar has everything we want. We have several beautiful rivers flowing, hills, forests, farms, and above all people who help. Today the theatre actors from Bihar are best in the country. If you want to make films based in rural India, it can only be based in Bihar.


बिहार से पलायन , बिहार के लोगो पे अन्य प्रदेशो मे हमला , बिहार की राजनीति का अपराधीकरण , गरीबी , अशिक्षा , बेकारी ( बेरोजगारी ) जैसे ज्वलंत मुद्दो पे बनी फिल्म " देसवा" अपनी माटी , अपनी भाषा , अपने संस्कार , परम्परा के साथ साथ पुरे राष्ट्र को भोजपुरी से जोडने के लिये एक शुरुवात है ।

एगो साधारण भोजपुरिया खातिर एगो आम बिहारी खातिर , एगो उम्मीद , एगो विश्वास आ एगो पहचान ह " देसवा"

निश्चय ही देसवा कई मौजुं मुदद्दों को उठाती है. भोजपुरी सिनेमा में आये विकृति को लेकर इसकी चिंता जायज है. और ये ऐसे मुद्दे है जिसने कई लोगो को इससे भावनात्मक रूप से जोड़ा है. इसे भोजपुरी अस्मिता का चेहरा बना के इसका प्रचार कार्य च्ल रहा है. मेरा जुड़ाव भी इससे कुछ मुद्दो को लेकर था. फ़िल्म देखने के बाद मैंने देखा कि यह कतई विश्वस्तरीय सिनेमा नहीं है. आप देखिये अंग्रेजी परिचय में और हिन्दी परिचय में जो चीज हटा दी गई है वह है वर्ल्ड क्लास. अब देसवा इसलिये आपसे समर्थन चाहती है क्योंकि वह भोजपुरी फ़िल्मों के लिये रास्ता बनाना चाहती है. इस तर्क के आधार पर इस मुहिम को समर्थन दिया जा सकता है, फ़िल्म को नहीं. फ़िल्म की आलोचना के बाद जो प्रतिक्रिया हुइ वह यह कि अगर आप फ़िल्म की आलोचना (निंदा नहीं) करेंगे तो आप को भोजपुरी अस्मिता का विरोधी मान लिया जायेगा. यह ठीक वहीं तर्क है जहां नितिश कुमार की हर आलोचना को बिहारी अस्मिता के विरोध से जोड़ दिया जाता है, या राष्ट्र के आलोचकों को राष्ट्र विरोधी मान कर उनसे राष्ट्रप्रेमी होने का सबूत मांगा जाता है. यह बताने की जरूरत नहीं है कि यह कौन सी विचारधारा है.
इलिय़ट ने कहा था कि अच्छा कवि परंपरा को अपनी हड्डियों में बसाये होता है. कोई भी चीज एक कालक्रमिक प्रक्रिया में होती है. हर कृति अपने समय और काल में होने के साथ अपनी परंपरा से अविच्छिन्न नहीं होती. देसवा इसी प्रक्रिया का अंग है. और उसका दावा है कि भोजपुरी फ़िल्मों की सफ़ाई का वह अगुआ है. खैर इस सफ़ाई कार्यक्रम में भी कई पेंच है. लेकिन देसवा को अगुआ मान लेने से उन प्रयासों का क्या जो बहुत खामोश हैं.  अविजित घोष अपनी किताब सिनेमा भोजपुरी में भोजपुरी सिनेमा के पुनरुत्थान के बारे में बारीकी से लिखते हैं कि कैसे संइया हमार और कन्यादान जैसी फ़िल्मों से बने रूझान को ‘ससुरा बड़ा पईसावाला’ ने गति दे दी. क्या भोजपुरी सिनेमा के इस दौर की कल्पना इस फ़िल्म के बिना की जा सकती है? अनगढ़ और  तकनीकी रूप पिछड़ा होने के बावजुद इस फ़िल्म के महत्त्व को खारिज नहीं किया जा सकता. इसी बुरे दौर में कब होई गवना हमार, कब अईबु अंगनवा हमार, बिदाई, हम बाहुबली जैसी फ़िल्म बनी है . ये सिनेमा भोजपुरी सिनेमा में एक बेहतर प्रयास नहीं है. मैं तो देसवा को इसी परंपरा में देखता हूं जो अगर और बेहतर बने और सफ़ल हो तो कईयों को प्रेरित कर सकता है. जिस अश्लीलता के नाम पे कुछ अच्छे प्रयासों को खारिज़ करने की कोशिश देसवा समुदाय के लोग कर रहें हैं, उस अश्लीलता की अवधारणा पे भी बहस की आवश्यक्ता है.
देसवा एक नये दर्शक वर्ग को भोजपुरी सिनेमा से जोड़ने की बात करती है. भोजपुरी का दर्शक कौन है इसी शीर्षक से मैंने भोजपुरी सिनेमा के दर्शक के बारे में पड़ताल की है. भोजपुरी के जिस एलिट या अभिजात्य या मध्यवर्ग को सिनेमा से जोड़ने की बात कर रहें हैं वह वर्ग कब का सिनेमा से कट चुका है. चुंकि उस लेख में मैंने विस्तार से चर्चा की है अतः यहां नहीं दोहरा रहा हूं.
एक आपत्ति मुझे इस अभिजात्य से भी है, हम अभिजात्य की इतनी चिंता क्यों करें ? क्या भोजपुरी का जो सामान्य दर्शक है उसकी चिंता नहीं करना चाहिये. एक अमूर्त दर्शक के बजाय हम मूर्त दर्शक के लिये कुछ करें तो बात बनें. क्यों उन दर्शकों को उन सस्ते सिनेमाघरों और फ़ूहड़ फ़िल्मों के बीच छोड़ दिया जाये ? क्या ये दर्शक हमारे लिये महत्त्वपूर्ण नहीं है. लोकभाषा या लोकबोली हमेशा अभिजात्य से एक दूरी पे होती है अभिजात्य हमेशा उसे हेय दृष्टि से देखता रहा है ऐसा इतिहास है. फ़िर हम इस अभिजात्य के पीछे क्यों भागे.  बेहतर काम करें और फ़िर उसका परिणाम देखें.  एक समावेशी दर्शक क्यों नहीं बनाना चाहते ? किसी भि भोजपुरी सिनेमा का विश्व स्तरीय होने से पहले यह अपेक्षा रखी जाती है कि वह पहले भोजपुरी का हो.
देसवा अब तीन बार विभिन्न फ़ेस्टिवल में दिखाई जा चुकी है फ़िर भी निर्देशक का कहना है कि यह पब्लिक डोमेन में नहीं आई है. निर्देशक का तर्क यह भी है कि यह व्यावसायिक सफ़लता के लिये नहीं बनी है, फ़िर भी मेरी टिप्पणी इसलिये हटा दी जाती है क्योंकि वह दर्शक को दिग्भर्मित करेगी. एक उम्दा और बेहतरिनी को लेकर आश्वस्त कृति को डर किस बात का है? निर्देशक और देसवा का प्रशंसक समुदाय नहीं चाहता कि फ़िल्म की आफ़िशियल रीलीज से पहले इसकी समीक्षा हो. लेकिन प्रशंसा वह दोनों हाथ से बटोर रहा है. और किसी भी आलोचनात्मक टिप्पणी पे कैसी टिप्पणियां हो रहीं हैं…ये देसवा के फ़ेसबुक पेज पे अनुपम ओझा और अजय ब्रह्मात्मज जी की टिप्पणियों में देखें.  बाजार के विरोध में उतरे सिनेमा का यह तरिका कितना बाजारू है. किसी समाज के बौद्धिक स्तर को मापने का एक तरिका यह भी है कि वह अपने आलोचको के प्रति क्या नज़रिया रखता है. देसवा के लोग जो नज़रिया रखते हैं वह चिंताजनक है इसलिये मुझेइस समूह के साथ खड़े होने में परेशानी हो रही है. जबकि मैं चाहता था कि यह फ़िल्म अच्छी बने और व्यावसायिक तौर पे सफ़ल हो. आज भी मेरी शुभकामना इसके साथ है.  
अंत में, रही मेरे भोजपुरी प्रेम या इसके बलात्कारियों के खिलाफ़ बोलने की बात तो मैंने २००८ से ही भोजपुरी सिनेमा की पड़ताल शुरु की है. एक अग्यात कुल शील गोत्र का लेखक होने के नाते इस कार्य का किसी की नज़र में नहीं आना, कोई बड़ी बात नहीं.  और मैं अपने भोजपुरी प्रेम और इसकी  चिंता ना तो प्रमाण पत्र देना चाहता हूं और ना प्रोपगैंडा करना.

गुरुवार, 5 मई 2011

भोजपुरी सिनेमा का दर्शक कौन है?

ये दर्शक के संबंध में कुछ विचार है खास कर भोजपुरी सिनेमा के संदर्भ में. इस आलेख में सुधार की गुंजाईश है. प्रथम ड्राफ़्ट के रूप में यहा प्रस्तुत है. आपकी टिप्पणि अनिवार्य है.
दर्शकनाट्यशास्त्र में एक अवधारणा की तरह उपस्थित है. काव्यशास्त्र मेंसहृदयपर व्यापक चर्चा हुहै. दर्शक या सहृदय या जिसे सामाजिक भी कहते हैं कला का ग्रहिता होता है. नाट्यशास्त्र में सहृदय कौन है या कितने प्रकार के हैं इस पर गहन विमर्श हुआ है. खैर, मेरा उद्देश्य उन चर्चाओं पर अपन मंतव्य रखने का नहीं है. मेरा बस यहीं कहना है कि कलाओं में दर्शक एक मुख्य घटक है. प्रत्येक कला अंततः ग्रहिता तक संप्रेषित होना चाहती है. भले ही वह स्वांतः सुखाय ही क्यों ना हो. ग्रहिता भी अपनी योगयता के अनुसार कला के मर्म को ग्रहण करता है.
सिनेमा एक आधुनिक कला माध्यम है. एक नज़रिये से देखा जाये तो यह चित्रकला और नाट्यकला की पवर्ती कला है. प्रारंभ में यह चित्र ही था और गतिशील होकर जब कथानकों में ढलने लगा तो इसका आधार नाटक बना. सिनेमा के शुरुआती इतिहास को खंगालिये तो इसके मुख्य अभिनेता कहानी और शिल्प, रंगमंच के ही अनुगामी थे. रंगमंच और सिनेमा अन्य कला माध्यमों से इसलिये थोड़ा भिन्न हो जाते हैं क्योंकि इसमें दर्शक की उपस्थिति अन्य माध्यमों से अधिक अनिवार्य है. इसलिये दर्शकों पे भी इनकी निर्भरता अधिक हैअमुक सिनेमा और अमुक नाटक की सफ़लता को मापने का एक आधार दर्शक भी होता है. कलाकृति के रुप में भी इसको दर्शक(सहृदय) ही से मान्यता लेनी पड़ती है.
सिनेमा और रंगमंच के इतिहास को देखें तो इसने शुरु से दर्शक को ध्यान में रखा है. अलग अलग दर्शक वर्ग के लिये अलग अलग प्रकार के नाटक और फ़िल्में बनती रही है. उदाहरके लिये पारसी थियेटर का पना एक विशाल दर्शक वर्ग था. इस नाटक से असंतुष्ट लोगों ने अपना रंगमंच बनाया तो उसका भी एक अलग दर्शक वर्ग निर्मित हुआ. सिनेमा में साठ के दशक के अंत में मुख्य धारा के सिनेमा से उबे निर्देशकों ने एक अलग रास्ता अपनाया और उनको भी दर्शक वर्ग मिला जो इन फ़िल्मों से अलग कुछ चाहते थे. सिनेमा में दर्शको का अध्ययन करें तो पायेंगे कि हर प्रकार के सिनेमा, अभिनेता, और अभिनेत्री का अलग अलग दर्शक वर्ग है. इसलिये सिनेमा और अभिनेताओं की लग अलग कोटिया भीं हैं. मसलन ए ग्रेड, बी ग्रेड, पापुलर सिनेमा, समांतर सिनेमा आदि.
हिन्दी सिनेमा का एक बड़ा दर्शक वर्ग निम्न मध्य वर्ग से आता है. इसमें मेहनत कश, किसान, छात्र, और ग्रामीण जनता इत्यादि शामिल है. नब्बे के दशक तक हिन्दी सिनेमा ने इनका खूब मनोरंजन किया. उदारीकरके आने के बाद जैसे ही एन. आर. आइ. और मल्टीप्लेक्स सिनेमा का आगमन हुआ. हिन्दी सिनेमा इन दर्शकों से दूर होने लगा. ड़क भक और अंग्रेजी के छौंक वाले संवाद से घबराये ये दर्शक इस सिनेमा से कटने लगे. सिंगल थियेटर के लगातार बंद होने और बढ़ते टिकट मूल्यों ने इनके पलायन को और तीव्र किया. सस्ते सीडी प्लेयर के आगमनों ने सिनेमा देखना आसान बना दिया लेकिन मेरा खुद का अनुभव है कि इस वर्ग ने इस माध्यम पर भी पुराने सिनेमा को देखा. आज भी इनका प्रिय अभिनेता अमिताभ, धर्मेन्द्र, मिथुन, गोविंदा, इत्यादि है. हिंसा और प्रेम प्रधान पलायन वादी फ़िल्में इन्हें भाती रहीं. नब्बे के बाद के दशक में एक साथ पूरे भारत में चलने वली फ़िल्में कम ही रहीं है. बिहार और उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों को उदाहरके तौर पर लें(क्योंकि मैं वहां से हूं) तो पिछले कुछ सालों की दो हिट हिन्दी फ़िल्म दबंग और विवाह है. यहां के सिनेमा घरों में आज भी पुरानी हिन्दी फ़िल्मे, नयी की अपेक्षा अधिक चलती हैं.
इक्कसवीं सदी के शुरुआती दशक में भोजपुरी सिनेमा का पुनरुत्थान होता है. पहली भोजपुरी फ़िल्म १९६२ में ही बन गयी थी. इसके निर्माण के पिछे भोजपुरी अस्मिता की एक मुख्य कारक थी. उसके बाद का भोजपुरी सिनेमा का इतिहास तीन चरणों का है. पहले दो चरणों का दर्शक वर्ग एक व्यापक भोजपुरी समुदाय था. जिसमें लगभग सभी वर्ग के लोग शामिल थे. ‘ससुरा बड़ा पईसावालासे तीसरे चरण की शुरुआत होती है. यह वही समय है जब भोजपुरी क्षेत्र का एक बड़ा दर्शक वर्ग हिन्दी सिनेमा से दूर हो गया है. और यह दर्शक वर्ग फ़ैल भी गया है. अभिजित घोष ने अपनी किताबसिनेमा भोजपुरी’ में इस दर्शक की चर्चा की है. जो पैसा कमाने केलिये अपने क्षेत्र से बाहर निकल के दुसरे शहरों में बस गये हैं. यह पेशागत समुदाय अधिकतर निम्न वर्ग का अंग है. भोजपुरी सिनेमा ने दो काम किया एक तो उसने अपने घर से बाहर निकल के रह रहे लोगो को अपने घर से कृत्रिम रूप से जोड़ा. भोजपुरी फ़िल देख के वे अतीत मोह में ले जाते हैं जो परदेश में उनका मुख्य संबल है. भोजपुरी फ़िल्म ने दूसरा काम किया कि इसने बहुत से सिनेमा घरों को जिंदा कर दिया.
भोजपुरी फ़िल्म का यह जो दर्शक वर्ग है वह हिन्दी का ही दर्शक वर्ग है जो अस्सी के दशक के कथानक को अपनी भाषा में फ़िल्माता हुआ देख रहा है. इन फ़िल्मों के कंटेट का विष्लेषण करें तो पायेंगे कि एक सी ही कहानी प्रत्येक फ़िल्म में रहती हैं जो दो चार हिन्दी और अब कुछ दक्षिण के फ़िल्मों का भी, मिक्सचर होता है. अश्लीलता, हिंसा और संगीत इन फ़िल्मों के चलाने के मुख्य तत्व हैं. मैनें हाल ही में एक फ़िल्म देखीदिलजले’. यकीन मानिये कि कहानी नाम की कोई चीज इसमें नही थी और इस फ़िल्म ने क्रिकेट विश्वकप के दौरान भी खुब कमाई की जबकि हिन्दी की बहुत सी फ़िल्में इस दौरान प्रदर्शित नहीं हुई. मैंने यह फ़िल्म रात के शो में देखी थी उस समय भी काफ़ी लोग थे और बीच बीच में तालियां और सिटी भी बजा रहे थे. लगभग डेढ़ महिने बाद मैं पटना गया तो भी यह फ़िल्म वीणा सिनेमा में लगी थी जो सिंगल थियेटर है.
अगर आप इन दर्शकों का प्रोफ़ाइल चेक करें तो ये दर्शक हैं, छात्र वो भी जो छोटे शहरों में है, मजदुर, यात्री, देहात से शहरों मे काम कर के लौट जाने वाले लोग, बस ड्राइवर, छोटे दुकानदार इत्यादि भोजपुरी सिनेमा के प्रमुख दर्शक वर्ग है. ह मुखयतः निम्नर्गीय तबका ही है. पहले भोजपुरी सिनेमा देखने वालों में परिवार की संख्या भी रहती थी. मैंने ट्रैक्टर से लोगों को भोजपुरी सिनेमा देखने के लिये जाते हुए देखा है. एक ही ट्रैक्टर से कई परिवार शहर में पहूंचा. एक ने खाना बनाया तो दूसरे ने फ़िल्म देखा फ़िर दुसरा बाहर आया तो पहले ने देखा. लेकिन उतरोत्तर बढती अश्लीलता और द्विअर्थी गानों ने फ़िल्मों से परिवार की उपस्थिति को कम कर दिया है. मैंने एक दर्शक से पुछा तो उसने साफ़ मना कर दिया कि इन फ़िल्मों को वह परिवार के साथ नहीं देख सकता है.
ये जो दर्शक है वो फ़िल्म में क्युं देखते हैं. यहां मैं फ़िर एक अवधारणा की चर्चा करुंगा. काव्यशास्त्र का एक सिद्धांत है साधारणीकरण. इसके तहत नाटक देखता हुआ सामाजिक स्वसे दूर हो जाता है. इस समय पर अभिनेता की भावना ही उसकी अपनी भावना में तब्दील हुई जाती है. भोजपुरी फ़िल्मों में अभी का जो नायक है वह अधिकांशतः निम्नवर्ग का प्रतिनिधि चरित्र होता है. वह जब अपने से ऊंचे तबके की लड़की से प्रेम करता है या एक क्तिशाली  सवर्ण विलेन से बदला लेता है या अकेला चार गुंडो को मारता है तब दर्शक वहां खुद को ही देखता है. ये वो दर्शहै जिसने कभी किसी लड़की से प्रेम नहीं किया खास कर अपने से उच्च वर्ग की, कभी किसी से कड़े स्वर में बात नहीं कर पाया. बल्कि अपने अधिकांश जीवन में वह सवारी की, दफ़्तर में बाबु की स्टेशन पे टिकट अधिकारी की, कचहरी में जज की झिडकी सुनने का आदि हो गया है. उसके खुद के जीवन में इतनी परेशानियां है कि पर्दे कि परेशानियों को नहीं देखना चाहता उससे पलायन चाहता है. फ़िल्म के अंत में जब हीरोईन हीरो को मिलती है और विलेन परास्त होता है तब वह स्वंय को ही विजयी पाता है. इसके अतिरिक्त वह अपनी यौन कुंठा को दुर करने के लिये भी हाल में जाता है. आप देखिये कि अधिकांश फ़िल्में दर्शकों की इस भावना का दोहन करती है. मनोविश्लेषक सुधीर कक्कड़ लिखते हैं  मैं सिनेमा दर्शकों को फ़िल्मों के पाठ का उपभोक्ता ही नहीं, बल्कि उसका रचयिता भी मनता हूं…चूंकि फ़िल्मकार को टिकट खिड़की पर नोटों की बरसात का लगातार ध्यान रखना पड़ता है, इसलिये वह सुनिश्चित्करता है कि वह ऐसा दिवास्वप्न चुन कर फ़िल्म के रूप में विकसित करे जो किसी विशिष्ट प्रकृति का प्रतिनिधि न हो. वह दर्शकों के ऐसे सरोकारों को सहज अनुभूति के स्तर पर संबोधित किये बिना नहीं रह सकत अजो साझे किस्म के हों…पोर्नोग्राफ़ी की तरह फ़िल्मकार को ऐसी कृति रचनी पड़ती है जो अपने अनूठेपन के कारण मंत्र-मुग्ध और उत्तेजित करे, और साथ ही जो इतनी सामान्य भी कि सभी की रूचि को आकर्षित कर सके.’ यह बात अपनी किताब ‘अंतरंगता के स्वप्न’ में हिन्दी सिनेमा के बारे में कही है जो भोजपुरी सिनेमा पर भी लागु होती है.
 भोजपुरी क्षेत्र में फ़िल्मों में व्याप्त अश्लीलता पर चर्चा मुखर हो रही है. यहां जो चर्चा करने वाला समुदाय है वह मध्य वर्ग का है. जो ऐसी फ़िल्में चाहता है जो वह देख सके, जो उसके प्रतिमानों पर खरा उतरे. जाहिर है अभी की फ़िल्में उनके स्टेटस सिंबल को नहीं भाती. भोजपुरी क्षेत्र में बहुत से लोगों को आप भोजपुरी फ़िल्म के नाम पर ही मुंह बिचकाते देख सकते हैं. बात यह है कि अगर ऐसी फ़िल्में बनती है जो इस मध्यवर्ग को चाहिये तो क्या वह सिनेमा घर में जा के फ़िल्म देखेगा. भोजपुरी क्षेत्र में या उससे बाहर भी जहां सिनेमा घर हैं और जिस हालत में है उसमें तो यह वर्ग नहीं ही जायेगा. मध्यवर्ग जब अपने लिये घर में इतनी सुविधा जुटा रहा है तो ऐसी असुविधा जनक जगह पे कैसे जायेगा? आप इन क्षेत्रों के सिनेमा घरों का सर्वे कीजिये, अच्छी हिन्दी फ़िल्मों या कुछ ठीक भोजपुरी फ़िल्मों को देखने के लिये यह दर्शक वर्ग सिनेमा घर में कई सालों से नहीं आया. यह बहुत पहले से इनसे दूर हो चुका है. वह अपने होम थियेटर पे, लैपटाप पे अपनी रूचि की फ़िल्म का लुत्फ़ ले रहा है.
तो इस हालत में फ़िल्म जो कि एक मंहंगा व्यवसाय है और जिसमें हर कोई लाभ चाहता है उसमें यह मुश्किल ही है कि निर्माता अनिश्चितता की ओर कोई प्रयोग करें. ऐसी फ़िल्म बना दे लेकिन दर्शक ना देखने आये तो !‘कब अईबु अंगनवा हमारजो ठीक ठाक फ़िल्म थी उसने अच्छा व्यवसाय नहीं किया था. फ़िर निर्माता इस दिशा में प्रयोग के इच्छुक दिख भी हीं रहें हैं.
फ़िर रास्ता क्या है? क्या इन दर्शकों को भी इन फ़िल्मों के लिये छोड़ दिया जाये और विश्वस्तरीय फ़िल्म बने जिसे कुछ लोग समारोह में देख के वाह वाह कर दे ! फ़िल्म कविता की तरह निजी विधा नहीं है यह एक सार्वजनिक कला है जिसका ज्यादा से ज्याद दर्शक तक पहूंचना अपेक्षित है. मेरे हिसाब से कुछ ऐसा रास्ता निकालना चाहिये जो धीरे धीरे इन दर्शकों को प्रशिक्षित भी करें. चर्चित निर्देशक अनिल अजिताभ ने अपनी फ़िल्मों (हम बाहुबली और रणभूमि) में वर्तमान भोजपुरी सिनेमा के फ़ार्म में ही रास्ता तलाशना शुरु किया है. कुछ ऐसे ही निर्देशको और अभिनेताओं को आगे आना होगा जो ऐसे प्रयोग को समर्थन दें. नितिन चन्द्रा के देसवासे भी कुछ उम्मीद जग रही है कि वह कुछ राह निकालेगा. दूसरी जो जरूरत है वह यह कि इन सिनेमाघरों की हालत पर ध्यादिया जाये. सरकार अपने कर संबंधी नियमों में कुछ करे और इन थियेटर के मालिक भी सिनेमाघर के रख-रखाव को बेहतर करें. तभी कुछ रास्ता निकलेगा. भोजपुरी सिनेमा के बढ़ते व्यवसाय को फ़ैलाने और सरंक्षित रखने की दिशा में ऐसे प्रयास अधिक मात्रा में होने चाहिये.