हिन्दी सिनेमा में बतौर गीतकार पचास साल पूरा करने जा रहे हैं गुलज़ार । इन पचास साल मे फ़िल्म लगभग सौ, यानि गुलज़ार ने थोक भाव में गीत नहीं लिखा। संख्या से ज्यादा उन्होंने गुणवत्ता का खयाल रखा। सिनेमा जैसे माध्यम में इसको बचाये रखना निश्चय ही बड़ी उपलब्धी है। इसी कारण से वो लगातार प्रासंगिक बने रहें हैं। उनके कम ही गीत होंगे जो गुमनामी के अंधेरे में खोये होंगे।
गुलज़ार के गीतों में व्यापक विविधता है पर जैसे उनके गीतों में रात, चांद, धूप, प्रेम बार बार आते रहतें हैं। वैसे ही कुछ खास ट्रेंड या प्रवृति को हम पहचान सकते हैं।
गुलज़ार को दार्शनिक गीतों से खासा लगाव है। बोझिल अकेलेपन, उदासी और जिंदगी के फ़लसफ़े को व्यक्त करते ये गीत किसी के तन्हाई को साझा कर सकते हैं। यथा-
वो शाम कुछ अजीब थी
ये शाम कुछ अजीब है
वो कल भी पास पास थी
वो आज भी करीब है (खामोशी)
जब भी ये दिल उदास होता है
जाने कौन आस पास होता है (सीमा)
मुसाफ़िर हूं यारो ना घर है ना ठिकाना
मुझे चलते जाना है (परिचय)
तेरे बिना जिंदगी से कोई शिकवा तो नहीं (आंधी)
क्या करें जिंदगी उसको हम जा मिले
इसकी जां खा गयी रात दिन के गिले
मेरी आरजू कमिने मेरे ख्वाब भी कमीने
इक दिल से दोस्ती थी वो हुजुर भी कमीने (कमीने)
गीतों में व्यक्त जीवन के यथार्थ की अभिव्यक्ति के कारण ये सिनेमा के पर्दे से निकल कर किसी के भी पर्सनल फ़ीलींगस से जुड़ जाते हैं। कभी पूरी तरह सुफ़ियाना होते हुए गुलज़ार इस जिंदगी को ही पुरी तरह मस्ती में डुबो देने के बात करते हैं
तिल तिल ताड़ा मेरा तेली का तेल
कौड़ी कौड़ी पैसा पैसा पैसे का खेल
चल चल सड़को पर होगी धेन धेन
धन ते नान (कमीने )
अब कोई इस मस्ती में क्यों ना सड़कों पर निकल आये और पूरी तरह अपने को तिरोहित कर दे
हवा से फ़ूंक दे, हयात फ़ूंक दे
सांस से सीला हुआ लिबास फूंक दे (नो स्मोकिंग)
प्रेम गुलज़ार की ही नहीं हिन्दी सिनेमा के गीतों की केन्द्रीय प्रवृति है। इसकी अनेक प्रकार से अभिव्यक्तियां बार बार होती रहती हैं। गुलज़ार के प्रेम गीत अपनी तरह के अनोखे गीत हैं। लहजा बिलकुल सहज सरल और बात बड़ी गंभीर। जैसे;
तुम आ गये हो नूर आ गया है
नहीं तो चिरागों से लौ जा रही थी
जीने की तुमसे वजह मिल गयी है
बड़ी जिंदगी बेवजह जा रही थी (आंधी)
या
हमने देखी है इन आंखों से महकती खुशबु
हाथ से छु के इसे रिश्तों का इलज़ाम ना दो
सिर्फ़ एहसास है ये रूह से महसूस करो
प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम दो (खामोशी)
गुलज़ार के यहां इश्क इतना मासुम है कि होने पर पांव जमीन पर नहीं पडते, नीद में चलने लगता है, सर पे आसमां झुकने लगता है, स्व और पर का एहसास गुम हो जाता है पता नहीं चलता कि किसकी धड़कन है और सीली हवा के चलने से ही बदन छील जाता है। इस प्रेम में आमंत्रण भी है
आजा गुफ़ाओ में आ
आज गुनाह कर ले
या
लबों से चूम लो आंखों से थाम लो मुझको
तुम्हीं से जनमु तो शायद मुझे पनाह मिले
हिन्दी सिनेमा में बच्चों के लिये सिनेमा कम ही बनता है। ये समझा जाता है कि बच्चों पर फ़िल्म बनाने से दर्शक वर्ग पहले ही सिकुड जाता है इसलिये व्यावसायिक सफ़लता संदेहास्पद हो जाती है। गुलज़ार ने बच्चों के लिये दो महत्त्वपूर्ण फ़िल्म किताब और परिचय बना कर इस संदेह को निर्मुल किया है। बच्चों की दुनिया को बडों से जोड़ कर उनके संसार में झांकने की कोशिश है ये फ़िल्मे। बाद में बनी मासूम(शेखर कपूर ) और तारे जमीन पर (आमिर खान) को इसी परम्परा में देखा जाना चाहिये। चर्चा तो हम गीत की कर रहें हैं। बच्चों का गीत कहते हीं हमारे जुबान पर जो पहला गीत आता है वो गुलज़ार का ही लिखा हुआ है।
लकड़ी की काठी, काठी का घोड़ा
घोड़े की दुम पर जो मारा हथौड़ा
दौड़ा दौड़ा दौड़ा घोड़ा दुम दबा के दौड़ा
इसके अलावा ‘अ आ इ ई मास्टर जी की हो गयी छुट्टी’ (किताब), ‘चुपड़ी चुपड़ी चाची’ (चाची 420) इत्यादि बच्चों के लिये लिखे गुलज़ार के प्रसिद्ध गीत हैं। गुड्डी का यह पार्थना गीत तो बहुत से विद्यालयों का पार्थना गीत बन गया
हमको मन की शक्ति देना मन विजय करें
दूसरों की जय से पहले खुद की जय करें
फ़िल्मों से हटकर सीरियल के लिये के लिये लिखा यह गीत तो अनोखा ही है
जंगल जंगल बात चली है पता चला है
चड्ढी पहन के फूल खिला है।
गुलज़ार अपने गीतों में शब्द चयन और संयोजन को लेकर विशेष रूप से सचेत रहें हैं। एकदम अप्रचलित और एकदम प्रचलित शब्दों के इस्तेमाल से गीत विशेष बन जाता है। जैसे-प्रचलित शब्द से
छोटे छोटे शहरों से खाली बोर दोपहरों से
हम तो झोला उठा के चले
अप्रचलित शब्द से-
गुलपोश कभी इतराये कहीं
महके तो नजर आ जाये कहीं
ताबिज़ बना के पहनुं उसे
आयत की तरह मिल जाये कहीं
अपने गीतों मे गुलज़ार ने कुछ शब्द भी इजाद कियें हैं। चप्पा-चप्पा, चुपडी चुपडी ,छईयां छईयां, छईं छप्पा छईं, उर्जु उर्जु दुरकट, मय्या मय्या, हुम हुम , धन ते नन इत्यादि शब्दों के प्रयोग से गीत और खास हो जाता है। गीतों में कभी शब्द अपने कार्य से हटकर प्रयुक्त होते हैं
हमने देखी है इन आंखों की महकती खुशबु
हाथ से छु के इसे रिश्तों का इलज़ाम ना दो
अब खुशबु का देखा जाना और हाथ से छुए जाने को भी गुलज़ार अपने गीतों में संभव कर देतें हैं और श्रोता को यह खटकता भी नहीं।
शब्दों मे बसी दृश्यात्मकता से गीत मन के पर्दे पर सजीव हो उठतें हैं। रीडर रीस्पांस थ्योरी यहां साकार होती है क्योंकि हर श्रोता अपना अपना दृश्य निर्मित करता है। उदाहरण के लिये इजाजत के इस गाने को देखा जा सकता है
एक अकेली छतरी में जब आधे आधे भीग रहे थे
आधे सुखे आधे गीले सुखा मैं तो साथ ले आई थी
गीला मन शायद बिस्तर के पास पडा हो
वो भिजवा दो मेरा वो सामान लौटा दो
इस गीत को सुनने के बाद फ़िल्म का दश्य कभी ध्यान में नहीं आता ऐसा मेरा अनुभव है यकीन है कि ऐसा ही दुसरों का भी होगा।
गुलज़ार अपने फ़िल्मों में राजनीतिक हैं और गीतों में भाव प्रणव । ऐसा बहुत से लोग मानते है। लेकिन ऐसा नहीं है गुलज़ार अपने परिवेश के हलचल को अपने गीतों में सीधे सीधे उभारते हैं इन गीतों में वे प्रतीक का सहारा भी नहीं लेते। ‘मेरे अपने’ का यह गाना बेरोजगारों की हकीकत बयानी करता है
हालचाल ठीक ठाक है सबकुछ ठीक ठाक है
बी.ए. किया है एम.ए. किया है
लगता है सब कुछ एं वें किया है
काम नहीं है वरना यहां आपकी दुआ से बाकी ठीक ठाक है
इसके साथ हीं ‘गोलमाल है भई सब गोलमाल है’ (गोलमाल), ‘सलाम कीजिये आली जनाब आयें हैं’ (आंधी), ‘घपला है भई घपला है’ (हु तु तु) ये सब गीत अपने परिवेश को बयान करते हैं। आतंकवाद से क्षत पंजाब का यह काव्यात्मक वर्णन तो मर्मस्पर्शी है
जहां तेरे देहरी से धूप उगा करती थी
सुना है उस चौखट पे अब शाम रहा करती है (माचिस)
ओमकारा में ‘बिल्लो चमन बहार’ के जिस गीत को हम आईटम गीत समझ के झुमते हैं वह दरअसल पेशे की सच्चाइ है। आखिर जिगर की आग ही उससे यह सब करा रही है।
गुलज़ार वैसे सब को भाते हैं पर युवाओं के बीच खासे लोकप्रिय हैं क्योंकि उनके पास युवा मन की सारी अभिव्यक्तियां हैं। जिंदगी को फ़ूंक देने का जोश, दिल निचोडने का जज्बा, किसी को शिद्दत से अपना कह सकने की चाहत, उदास शाम का खालीपन और सबसे खुबसुरत, प्रेम को स्थान देने की सरल और मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति-
ले चलें डोलियों में तुम्हें गर इरादा करो
ऊंगुलियों में पहन लो ये रिश्ता और वादा करो।
किसे को प्रपोज करना हो तो इससे बेहतर लाइने कहां मिलेंगी।
संपुर्ण सिंह गुलज़ार 18 अगस्त 1936 को पाकिस्तान के दीना में जन्मे। विभाजन के बाद उनका परिवार अमृतसर चला गया और वो बंबई। जीवनयापन के लिये गैरेज में काम करना प्रारंभ किया। साहित्य और संगीत से लगाव बचपन से ही था। सिनेमा में विमल राय ,हृषिकेश मुखर्जी, और हेमंत कुमार के सहायक के तौर पर काम किया। एस. डी. बर्मन के संगीत पर ‘बंदिनी’ फ़िल्म के लिये लिखे गीत ‘मोरा गोरा अंग लई ले’ से इनको पहचान मिली। उस समय फ़िल्मों में गीतकार के तौर पर जगह बनाना आसान नहीं रहा होगा। गुलज़ार को उस समय साहिर लुधियानवी, शकील बदायुनी, शैलेन्द्र, हसरत जयपुरी, मजरुह सुल्तानपुरी, आनंद बक्षी जैसे गीतकारों के बीच जगह बनानी पडी। गुलज़ार हिन्दी सिनेमा में शैलेन्द्र के सबसे ज्यादे करीब हैं। शैलेन्द्र को वो सबसे महान गीतकार मानते हैं। उन्ही के शब्दों में
“ मेरी राय में शैलेन्द्र हिन्दी सिनेमा में सबसे महान गीतकार हुए। इससे पहले डी.एन. मधोक थे। शैलेन्द्र कविता और गीत के अंतर को जानते थे। उन्होंने गीतों की साहित्यिकता कायम रखते हुए उसे आम आदमी के छंद में पेश किया। साहिर साहब साहित्यिक कवि थे और रहे उन्होंने माध्यम को उतना स्वीकार नहीं किया जितना माध्यम नें उन्हें।”
गुलज़ार को अपने समय के संगीतकारों का भी अच्छा सहयोग मिला। आर. डी. बर्मन गुलज़ार के दोस्त और सबसे प्रिय सगीतकार थे । पंचम के साथ उन्होंने सबसे अधिक काम किया ईक्कीस फ़िल्मों मे। परिचय, खुशबु, किनारा, गोलमाल. मासुम, इजाजत इत्यादि प्रमुख फ़िल्में थी जिनमे इनका साथ रहा। गुलज़ार ने अपने समकालीन सभी संगीतकारों के साथ काम किया जैसे- सलिल चौधरी (आनंद. मेरे अपने), शंकर जयकिशन (सीमा), एस.डी. बर्मन (बंदिनी), हेमंतकुमार (खामोशी), मदनमोहन (मौसम, कोशीश), लक्ष्मीकांत प्यारेलाल (गुलामी), खययाम (थोडी सी बेवफ़ाई, मुसाफ़िर), भुपेन हजारिका (हु तु तु, रुदाली),हृदयनाथ मंगेशकर (लेकिन), अनु मलिक (फ़िजां अक्स, फ़िलहाल), शंकर एहसान लाय (बंटी और बबली, झुम बराबर झुम), ए. आर. रहमान (दिल से गुरु, स्लमडाग मिलेनर)। नये संगीतकारों में गुलज़ार ने सबसे ज्यादा विशाल भारद्वाज के साथ काम किया है - 12 फ़िल्मों में। सत्या, मकबूल, माचिस, ओमकारा, कमीने इनकी जुगलबंदी का प्रतिफ़ल है।
गुलज़ार पर कुछ लिखने की सोचा तो स्वंय की भी यह जिज्ञासा थी कि क्या कारण है कि ये आदमी इस उम्र में भी टाप टेन की सूची में टाप पर बजता है। जिस उम्र में आकर सभी नये दौर और नयी पीढी को कोसते हैं कि अब वैसी बात कहां?
आचार्य रामचंद्र शुक्ल का कहना है कि साहित्य जनता कि चित्तवृतियों का संचित प्रतिबिंब है और ये चित्तवृतियां निरंतर पर्तिवर्तन की प्रक्रिया में होते हैं। इस कथन के आलोक में जब हम गुलज़ार के गीतों को देखते हैं तो साफ़ समझ में आता है कि इन चितत्वृतियों की पहचान गुलजार को है। तभी तो वो ‘मोरा गोरा अंग लई ले’ से ‘किस आफ़ लव’ की यात्रा तय करते हैं। माध्यम और समय के नब्ज को हाथ में लेकर वे रचनाशील हैं तभी तो खूब सुने जाते हैं। फ़िल्मी गीतों में साहित्यिकता को लेकर अक्सर चर्चा होती है। गुलज़ार उन चन्द गीतकारों में हैं जो अपने गीतों को साहित्य के सबसे समीप रखे हुएं है। इस सम्दर्भ में मेरे पास तीन उदाहरण है उनके तीन दौर के। पाठक गण खुद तय करें
एक लाज रोके पैयां
एक मोह खींचे बैयां
जांउ किधर ना जाउं
हमका कोइ बताइये दे
मोरा गोरा अंग लई ले
मोहे शाम रंग दई दे
छुप जाऊंगी रात ही में
मोहे पी का संग दई दे।(बंदिनी 63)
पतझड में कुछ पत्तों के गिरने की आहट
कानों में पहन के लौट आई थी
पतझड की वो शाख अभी तक कांप रही है
वो शाख गिरा दो मेरा वो सामान लौटा दो (इजाजत 88)
जिसका भी चेहरा छीला अंदर से और निकला
मासुम सा कबुतर नाचा तो मोर निकला
कभी हम कमीने निकले कभी दूसरे कमीने (कमीने 2009)
सोचा था गुलज़ार पर कुछ लिखने के बहाने इनके गीतों की गहराई में उतरूंगा और कुछ निकाल के ले आऊंगा। अनुभव हो रहा है की अभी मैं किनारे से केवल विस्तार में देख पा रहा हुं। गहराई में उतरना कुछ निकाल के लाना दूर की बात है। आज तेज़ शोर वाले संगीत और बेसिर पैर के गीतों के बीच गुलज़ार को सुनना प्रदूषित हवा से निकल कर स्वच्छ हवा मे सांस लेने के जैसा है और इस ‘अठन्नी सी जिंदगी’ को बचाने के लिये स्वचछ हवा में सांस लेना बहुत जरूरी है।