सोमवार, 14 फ़रवरी 2011

प्रेम के नाम


इस साल पूरे दस साल हो जायेंगे मैट्रिक पास किये हुए या युं कहें बगहा छोड़े हुए या दोस्तों से अलग हुए …लेकिन इस वैलेंटाईन डे पर इस बात को याद करने का क्या तुक है.  क्योंकि हम सभी एक दूसरे के पहले वैलेंटाईन थे और बगहा में रहते हुए हमें इसका लुत्फ़ पता नहीं था. इसे हिकारत भरी नज़रों से देखते हुए हम भोलेन्टाईन डेके नाम से बुलाते थे. आज क्या हो रहा होगा ? ये पता लगाना मुश्किल है कि किसे किसे अपना वैलेन्टाईन मिल गया. क्योंकि साले दुनिया भर की बातें करने के बाद यहीं एक बात गोल कर जायेंगे और कहेंगे कि अब इस सब के लिये टाईम कहां है बे ! अबे मिलती नहीं है ! एक आध अपने में से भेजो ! अरे मैंने कोई फ़ैक्ट्री खोल रखी है क्या ? कैम्पस में होने का मतलब क्या है ?
तुम बताओ या ना बताओ दोस्तों मैं जानता हूं. तुम सबने अपने मोबाईल में नाईट पैक क्युं भराया है, क्यों अपनी एस.टी.डी. सस्ती करवाई है ? अगर ऐसा नहीं है तो मेरा ही काल क्यों प्रतिक्षा में जाता है ! क्यों कहते हो कि थोड़ी देर बाद बात करते हैं. जरूर कहो, मैं भी तो ऐसा ही कहता हूं. लेकिन उस मोहतरमा तक हमारा भी सलाम तो पहूंचाओ. अपने ‘लव गुरु’ का जिसके साथ मिलकर तुमने हर लड़के का लड़की के साथ वर्चुअल मेल मिलाया था और कोड फ़िक्स किया था जैसे एस.एस. और डी.एस. . ये अलग बात है कि एस. ने एस. से या डी. ने एस. से कभी बात नहीं की. कैसे करता. लड़की के सामने आवाज जो नहीं निकलती थी. और लड़की क्या सोचती थी इसे पता करने की हिम्मत किसमें थी.
मुझे एक बात का बहुत अफ़सोस होता है शायद हम सब को होगा. हम लड़कियों की मदद क्यों नहीं करते थे या क्युं नहीं लेते थे. मुझे याद है एक बार मैं बड़ी  शान से कहता था मैं अपने नोटस लड़की को नहीं देता…किसी ने मांगा भी तो नहीं था (एक बार बस मांगा था). दोस्त मैंने तुम्हें भी रोका था जब वो लड़की हसरत भरी निगाह से पीछे मुड़कर हमारी ओर लगातार देखती रही कुछ पूछने के लिये लेकिन ना मैंने उसकी ओर देखा ना तुम्हें देखने दिया. जबकि एक बार एसी ही एक घटना में जब हमने (यानी मैंने और एक बालिका ने) परीक्षा में एक दूसरे की मदद की तो मुझे बड़ी गुदगुदी हुई थी. लेकिन हमने अगर लड़कियों की मदद नहीं की तो नुकसान भी नहीं पहूंचाया. हमने ना किसी को छेड़ा और  दूसरों को भी ऐसा करने से रोका भी. ये अलग बात है कि एकांत में हम किसी किसी के बार में बाते कर लेते थे, मसालेदार भी. जैसे ‘तबाही द ड्रिस्ट्रायर के बारे में. एक बार परीक्षा समाप्त होने के बाद लौटते वक्त लड़कियों ने मुझे छेड़ने की कोशिश की थी और तुम सब मुझे छोड़ कर भाग लिये थे एक ‘अभिनव’ बचा था. किसी तरह हमने पीछा छुड़ाया था. और एक बार तुमलोगों ने पीछा भी किया था..लेकिन कुल्फ़ी की दुकान तक आते आते तुम भी थक गये और लड़की छेड़ने का या बात करने का वह साहसिक प्रयास भी अंततः विफ़ल हो गया. उस में वह महान योद्धा भी था जो इस साहस के काल्पनिक किस्से सुनाया करता था और बेचारा शादी के मोर्चे पर  सबसे पहले शहीद हो गया था. हमारा सलमान खान जो उस अभियान का नायक था आज कल अपने प्रेम को विवाह तक पहूंचाने के लिये जोर लगाना शुरु कर दिया है. इसका मतलब प्रेम का शिकार हम सभी लगभग हो ही गये हैं . एकाध तो बेचारे नाकाम हो कर फ़िर खड़े हो गये हैं.
उन लड़कियों का क्या हुआ ? मैं कभी कभी सोचता हूं कि क्या वे हमारे बारे में बात करती होंगी जितना हम करते है ? आज या तब भी जब हम साथ पढते थे . उनमें कुछ तो अपने पति के इंतज़ार में धारावहिक देख कर समय काट रही हैं, कुछ तो बाल बच्चेदार भी हो गयीं हैं और कुछ अपने मां बाप का नाम रौशन कर रही है(लड़कों का भी कान काटते हुए). कुछ से तो मैं जुड़ा हुआ हूं और दुआ सलाम लेता रहता हूं और कभी कभार आहें भरने वाले अन्य बेचारों को राहत भी दिलवा देता हूं उनकी खबर उन तक पहूंचा के.
खैर, आज एक उचित दिन है अपने उन बेवकूफ़ियों को याद करने का. अतः हे मित्रों जाओ और अगर है तो उसकी खुशी के लिये कुछ कर. अगर नहीं है तो जल्दी करो. या काफ़ी दिनों से कुछ और है तो उसे कुछ कुछ में बदलो. आओ हम सब मिल कर प्रेम करें और फ़िर उसके साथ ही खड़े हों. क्योंकि इस दुनिया में इस की  बड़ी कमी हो रही है , दम भी घुटता है कभी कभी और सांस लेने के लिये ये करना जरूरी है. आओ हम बंदिशो को तोड़ दे और कहें कि हां मैंने प्यार किया. जैसा कि मेरे दो अज़ीज़ कर रहें हैं. उनके सुखद और रोमांचक यात्रा को हम अपने शुभकामनाओं से बल दें.

सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

खौफ़


वैसे ऊपर से मृत्यु की यह कविता अंततः जीवन की कविता है.अभिनव इसे नज़्म कहते हैं. किसी सूफ़ी की तरह दिखने वाले  अभिनव पत्रकारिता पढ़ते हैं, अभिनय करते हैं और कविता लिखते हैं.











मौत को कई बार पास से देखा है

पुर-असरार...
कोहरे में ढके चाँद सा

स्याह...
बुझती शाम सा

झूठे वादों सा ज़र्द
ज़िन्दगी से काफी अलग
पर है उसके जैसा ही सर्द

कई बार मिल चूका हूँ मैं मौत से
नाना
दादा-दादी
बड़े चाचा
पुरानी घोबन
दो पालतू कुत्ते
तीन बिल्लियाँ
और अक्वेरियम की कई सारी मछलियों ने
मौत को मेरे लिए कितना सहज बना दिया है
कि अब मैं सोच सकता हूँ किसी के भी मौत के बारे में
खुद के भी
मौत अब अपनी सी लगती है..

मगर इस ज़िन्दगी का क्या ..
इसका डर है कि जाता ही नही

जैसे ज़िन्दगी दंगे की कोई रात हो
या पुलिस पर पत्थर फेंकते लोगों की घुटन
या फिर हो  ग्यारह साल से भूख हड़ताल पर बैठी विवशता
ऐसी ज़िन्दगी का खौफ
बढ़ता ही बढ़ता जाता है..हर पल बढ़ता जाता  है...