रा.ना.वि. रंगमंडल का ग्रीष्मकालीन नाट्य समारोह शुरु हो चुका है। रंजीत कपूर निर्देशित ‘बेगम का तकिया’ के साथ। इससे पहले भी रंजीत कपूर रंगमंडल के साथ ही 1978 में इस नाटक को कर चुके हैं सुरेखा सीकरी, रघुवीर यादव, राजेश विवेक इत्यादि कलाकारों के साथ। उस समय भी यह नाटक अत्यंत लोकप्रिय हुआ था और काफ़ी सराहना भी इसे मिली थी। रंजीत कपूर के रंगकर्म के दिशा निर्धारण में भी इस नाटक की मुख्य भूमिका रही है। समय चक्र घुमा है इसी नाटक से उन्होंने रंगमंच में वापसी की है और इतिहास को दुहराया है[1]। (और यह दुहराव ना त्रासदी है ना व्यंग्य)
‘बेगम का तकिया’ पंडित आनंद कुमार के उपन्यास पर आधारित है, नाट्यालेख स्वंय निर्देशक ने तैयार किया है। कहानी ईमानदारी के भोलेपन और बेईमानी के चालाकीपन की है। पीरा और मीरा दो भाइ मजदूरी करते हैं, फ़कीर दरियाशाह पीरा को उनके लिये तकिया बनाने का काम सौंपते हैं। पीरा स्वंय और अपने तबके के लोगों को आधी मजदूरी पर काम करने के लिये तैयार कर लेता है। फ़ाका करने से बेहतर स्थिति है यह। वहीं काम करते करते
मीरा को एक गडा हुआ खजाना मिलता है और वह उसे चुपचाप लेकर शहर चला जाता है इधर पीरा उसके लिये परेशान है। एक दिन वह सौदागर अमीर शाह बन कर अपनी बेगम उनके चचा और साले के साथ लौटता है। पीरा की शादी होती है वह खर्च करने के लिये अपने भाइ से रुपये उधार लेता है। बीवी के आते ही दोनों औरतों में झगडा होता है। मीरा की बीवी अपने पैसे वापस मागती हैं, पीरा की बीवी पीरा को ताने दे कर उसे परदेश जाने को विवश कर देती है। पीरा तकिया बनाने का जिम्मा सर्फ़ु को सौंप कर चला जाता है। परदेश से वापस लौटने पर वह पाता है कि तकिये की जगह पर सर्फ़ु रहने लगा है और तकिये का काम बंद पडा है, इधर उसकी बीवी को बच्चा भी हुआ है। खुश पीरा दरिया शाह की तकिया बनवाना फ़िर शुरु करता है लेकिन मीरा की बीवी वहीं पर अपना महल बनवाना चाहती है। विवाद में पीरा के बच्चे की जान चली जाती है और वह दरियाशाह को ढूंढने निकल पडता है। उसे पता चलता है कि दरियाशाह उसी के घर में कारीगर का वेश बदल कर रह रहे थे और उन्होंने ही मीरा का महल तैयार किया है। अंत में गांव वाले मीरा की बेगम और उसके रिश्तेदार को भगा देते हैं और दरियाशाह उस महल को ‘बेगम का तकिया’ नाम दे देते हैं और पीरा को उसके सारे दरवाजे तोड डालने के लिये कह देते हैं। ताकि हर कोई उसमें आ सके और हर ओर की हवा ले सके।
मंचन के लिये विद्यालय परिसर में ही मुक्ताकाशी रंगमंच तैयार किया गया है। महल और झोपडी दो कोनों पर स्थित हैं जो मीरा और पीरा के जीवन के वैषम्य को दर्शाते हैं। बीच में पेड के नीचे दरियाशाह का आसन है जहां पर तकिया बनाया जाना है। उसके आगे चौपाल जैसा बनाया गया है जिस पर गांव वालों की पंचायत जमती है और गाना बजाना होता है। मंच सज्जा काफ़ी सुनियोजित है कुछ भी फ़ालतु नहीं है। गीत संगीत प्रस्तुति को और दमदार बनाते हैं। एक तरफ़ वे तनाव के माहौल से राहत देते हैं तो दूसरी तरफ़ नाटक के दर्शन को भी व्यक्त कर देते हैं, “बाहर से सब मीठ्ठे बोले अंदर से बेईमाना देखा”।
प्रस्तुति भावपुर्ण है और दशक को जोड लेता है। कुछ दृश्य बडे ही उम्दा बन पडे हैं जैसे कि पीरा और मीरा की बीवियों के झगडे का और बेटे के लिये विलाप करते पीरा और उसकी पत्नी का। अभिनेताओं का अभिनय भी अच्छा है। मीरा ( पूंज प्रकाश) की चालाकी और भाई के प्रति प्रेम भाव , पीरा की निर्दोष सज्जनता, बुंदु चचा (द्वारका दाहिया) की बुजुर्गीयत, अल्लाबन्दे ( अनुप त्रिवेदी) का काइंयापन, मीरा की बीवी (साज़िदा) की हेठी और पीरा की बीवी( राखी कुमारी) की कर्मठता को अभिनेताओं ने सजीव कर दिया है। मीरा की बीवी रौनक के किरदार में साज़िदा ने अपने तलफ़्फ़ुज़ और देह भाषा से प्राण भर दिया है। नाटक का खल चरित्र होने के बाद भी दर्शक की वह प्रिय हो जाती है।
दरियाशाह (नवीन सिंह ठाकुर) का ही अभिनय प्रशंसनीय है जो कतरा शाह से जीवन के रहस्यों और प्रश्नों पर विचार करते रहते हैं। इन पात्रों के नाम भी गौर करने लायज हैं – दरिया और कतरा। नाटक का दर्शन है कि अगर आदमी स्वंय इमानदार रहे और दूसरे से इमानदारी रखे तो सब कुछ ठीक हो जाये। पर ऐसा होना संभव कहां हैं। उत्तर आधुनिक अवसरवादिता के दौर में पीरा की निर्दोष सज्जनता बेवकुफ़ी का पर्याय है।
प्रस्तुति में रंजीत कपूर के निर्देशन की विशेषतायें मौजूद हैं मनोरंजन भी और दर्शन भी।
सभी प्रमुख काव्य शास्त्रियों ने भी नाटक का उद्देश्य आनंद और शिक्षा माना है। शिक्षा वैसी जो आनंद में लिपटकर आये। कोरा उपदेश कौन सुनना चाहता है।
प्रस्तुति का कमजोर पक्ष उसका अंत है। नाटक का क्लाइमेक्स काफ़ी जल्दीबाजी में हो जाता है। खुले रंगमंच के नीचे ऐसा नाटक देखना जिसकी प्रस्तुति में खुलापन और सरंचना में गहराई हो , काफ़ी आनंददायक है।
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