मंगलवार, 25 मई 2010

बेगम का तकिया

 
रा.ना.वि. रंगमंडल का ग्रीष्मकालीन नाट्य समारोह शुरु हो चुका है। रंजीत कपूर निर्देशित ‘बेगम का तकिया’ के साथ। इससे पहले भी रंजीत कपूर रंगमंडल के साथ ही 1978 में इस नाटक को कर चुके हैं सुरेखा सीकरी, रघुवीर यादव, राजेश विवेक इत्यादि कलाकारों के साथ। उस समय भी यह नाटक अत्यंत लोकप्रिय हुआ था और काफ़ी सराहना भी इसे मिली थी। रंजीत कपूर के रंगकर्म के दिशा निर्धारण में भी इस नाटक की मुख्य भूमिका रही है। समय चक्र घुमा है इसी नाटक से उन्होंने रंगमंच में वापसी की है और इतिहास को दुहराया है[1]। (और यह दुहराव ना त्रासदी है ना व्यंग्य)
‘बेगम का तकिया’ पंडित आनंद कुमार के उपन्यास पर आधारित है, नाट्यालेख स्वंय निर्देशक ने तैयार किया है। कहानी ईमानदारी के भोलेपन और बेईमानी के चालाकीपन की है। पीरा और मीरा दो भाइ मजदूरी करते हैं, फ़कीर दरियाशाह पीरा को उनके लिये तकिया बनाने का काम सौंपते हैं। पीरा स्वंय और अपने तबके के लोगों को आधी मजदूरी पर काम करने के लिये तैयार कर लेता है। फ़ाका करने से बेहतर स्थिति है यह। वहीं काम करते करते
मीरा को एक गडा हुआ खजाना मिलता है  और वह उसे चुपचाप लेकर शहर  चला जाता है इधर पीरा उसके लिये परेशान है। एक दिन वह सौदागर अमीर शाह बन कर  अपनी बेगम उनके चचा और साले के साथ लौटता है। पीरा की शादी होती है वह खर्च करने के लिये अपने भाइ से रुपये उधार लेता है। बीवी के आते ही दोनों औरतों में झगडा होता है। मीरा की बीवी अपने पैसे वापस मागती हैं, पीरा की बीवी पीरा को ताने दे कर उसे परदेश जाने को विवश कर देती है। पीरा तकिया बनाने का जिम्मा सर्फ़ु को सौंप कर चला जाता है। परदेश से वापस लौटने पर वह पाता है कि तकिये की जगह पर सर्फ़ु रहने लगा है और तकिये का काम बंद पडा है, इधर उसकी बीवी को  बच्चा भी हुआ है। खुश पीरा दरिया शाह की तकिया बनवाना फ़िर शुरु करता है लेकिन मीरा की बीवी वहीं पर अपना महल बनवाना चाहती है। विवाद में पीरा के बच्चे की जान चली जाती है और वह दरियाशाह को ढूंढने निकल पडता है। उसे पता चलता है कि दरियाशाह उसी के घर में  कारीगर का वेश बदल कर रह रहे थे और उन्होंने  ही मीरा का महल तैयार किया है। अंत में गांव वाले मीरा की बेगम और उसके रिश्तेदार को भगा देते हैं और दरियाशाह उस महल को ‘बेगम का तकिया’ नाम दे देते हैं और पीरा को उसके सारे दरवाजे तोड डालने के लिये कह देते हैं। ताकि हर कोई उसमें आ सके और हर ओर की हवा ले सके।
मंचन के लिये विद्यालय परिसर में ही मुक्ताकाशी रंगमंच तैयार किया गया है। महल और झोपडी दो कोनों पर स्थित हैं जो मीरा और पीरा के जीवन के वैषम्य को दर्शाते हैं। बीच में पेड के नीचे दरियाशाह का आसन है जहां पर तकिया बनाया जाना है। उसके आगे  चौपाल जैसा बनाया गया है जिस पर गांव वालों की पंचायत जमती है और गाना बजाना होता है। मंच सज्जा काफ़ी सुनियोजित है कुछ भी फ़ालतु नहीं है। गीत संगीत प्रस्तुति को और दमदार बनाते हैं। एक तरफ़ वे तनाव के माहौल से राहत देते हैं तो दूसरी तरफ़ नाटक के दर्शन को भी व्यक्त कर देते हैं, बाहर से सब मीठ्ठे बोले अंदर से बेईमाना देखा
प्रस्तुति भावपुर्ण है और दशक को जोड लेता है। कुछ दृश्य बडे ही उम्दा बन पडे हैं जैसे कि पीरा और मीरा की बीवियों के झगडे का और बेटे के लिये विलाप करते पीरा और उसकी पत्नी का। अभिनेताओं का अभिनय भी अच्छा है। मीरा ( पूंज प्रकाश)  की चालाकी और भाई के प्रति प्रेम भाव , पीरा  की निर्दोष सज्जनता, बुंदु चचा (द्वारका दाहिया) की बुजुर्गीयत, अल्लाबन्दे ( अनुप त्रिवेदी) का काइंयापन, मीरा की बीवी (साज़िदा) की हेठी और पीरा की बीवी( राखी कुमारी) की कर्मठता को अभिनेताओं ने सजीव कर दिया है। मीरा की बीवी रौनक के किरदार में साज़िदा ने अपने तलफ़्फ़ुज़ और देह भाषा से प्राण भर दिया है। नाटक का खल चरित्र होने के बाद भी दर्शक की वह प्रिय हो जाती है।
दरियाशाह (नवीन सिंह ठाकुर) का ही अभिनय प्रशंसनीय है जो कतरा शाह से जीवन के रहस्यों और प्रश्नों पर विचार करते रहते हैं। इन पात्रों के नाम भी गौर करने लायज हैं – दरिया और कतरा। नाटक का दर्शन है कि अगर आदमी स्वंय इमानदार रहे और दूसरे से इमानदारी रखे तो सब कुछ ठीक हो जाये। पर ऐसा होना संभव कहां हैं। उत्तर आधुनिक अवसरवादिता के दौर में पीरा की निर्दोष सज्जनता बेवकुफ़ी का पर्याय है।
प्रस्तुति में रंजीत कपूर के निर्देशन की विशेषतायें मौजूद हैं मनोरंजन भी  और दर्शन भी।
सभी प्रमुख काव्य शास्त्रियों ने भी नाटक का उद्देश्य  आनंद और शिक्षा माना है। शिक्षा वैसी जो आनंद में लिपटकर आये। कोरा उपदेश कौन सुनना चाहता है।
प्रस्तुति का कमजोर पक्ष उसका अंत है। नाटक का  क्लाइमेक्स काफ़ी जल्दीबाजी में हो जाता है। खुले रंगमंच के नीचे ऐसा नाटक देखना जिसकी  प्रस्तुति में खुलापन और सरंचना में गहराई हो , काफ़ी आनंददायक है।


[1] ब्रोश्योर देखें

शुक्रवार, 21 मई 2010

सोहर


मैंने अपने ब्लॉग में बताया था की मै अपनी मम्मी की डायरी ले के आया हूँ उसमे मिथिलांचल में होने वाले हर आयोजन सम्बन्धी गीत है यानी संस्कार गीत .उसी कड़ी में इस बार मै सोहर पोस्ट कर रहा हूँ. सोहर वैसे गीत होते है जो संतान जनम के समय या उसके बाद गाये जाते हैं. तो पेश है श्रीमती रीता मिश्र की डायरी के कुछ भाग. ये कड़ी आगे भी जारी रहेगी.
   1.


प्रथम मास ज बसायल चरण ऋतु आयल रे ललना रे कर्म लीखल यदुराय कि होरीला के लक्षण रे

दोसर जब आयल चरण ऋतु आयल रे ललना रे दाहिन पैर पछुआय कि होरिला के लक्षण रे

तेसर मास जब आयल चरण ऋतु आयल रे ललना रे पान क बीडा नै सोहाय चित्त फ़रियाअल रे

चारीम मास जब आयल चरण ऋतु आयल रे ललना रे आंखी धंसल मूंह पियर चोली बन्द कसमस रे

छठम मास जब आयल चरण ऋतु आयल रे ललना रे छोरु पिय लाली पलंगीया सुतब हम असगर रे

सातम मास जब आयल चरण ऋतु आयल रे ललना रे लिय सास भनसा रसोईया जायब हम नैहर रे

आठम मास जब आयल चित्त फ़रियाअल रे ललना रे सारी सासरी उपाय कौन विधि बाचब रे न

नवम मास जब आयल चरण ऋतु आयल रे रानी दर्द व्याकुल देह सब तलफ़ल रे

दशम मास जब आयल चरण ऋतु अयल रे ललना रे सुन्दर होरीला जनम लेल महल उठे सोहर रे

2.

हंसि हंसि देवकी नहाओल हंसि गृह आवोल रे ललना रे करु वसुदेव स सलाह कि काज सफ़ल हायब रे

पहिल सपन देवकी देखल पहिल पहर राती रे ललना रे छोटी मोटी अमवा के गाछ फ़रे फ़ुल लुबधल रे

दोसर पहर राती बीतल दोसर पहर राती रे ललना रे सुन्दर बांस बीट फ़ुटि क पसरल रे।

चारीम पहर राती बीतल सुन्दर सपना देखु रे सुन्दर बालक अवतार गोदी खेलावन रे

3.

एकहीं रोपल गाछ दोसर जामुन गाछ रे ललना सगर बगिया लाग्य सुन एक चानन बिनु रे

नहिरा में एक लाख भैया आओर लागु रे ललना सगरे नैहरवा लागे सुन एक हीं अम्मा बिनु रे

ससुरा में एक लाख ससुर आओर भैंसुर रे ललना सगर ससुरा लागे सुन एकहीं पिया बिनु रे

घरवा में पलंगा ओछावल तोसक ओछाओल रे ललना पलंगिया लागे सुन एकहीं होरिला बिनु रे।

4.

कौने बन फ़ुलय अहेली कौने बन बेली फ़ूल रे ललना कौने बन कुसुम फ़ुलायत चुनरी रंगाओत रे।

बाबा बन फ़ूलय अएली फ़ूल भईया बन बेली फ़ूल रे ललना पिया बन फ़ूलय कुसुम चुनरी रंगाओत रे ।

पहिरि ओढीय सुन्दरि ठाढ भेली देहरि धेने ठाढ भेली रे ललना घुमईत फ़िरईत आयल पिया पलंग पर लय जायब हे।

सासु हम दुःख दारुण नन्दी झगडाइन हे पिया हम जायब घर मुनहर पलंग नहीं जायब रे।

5.

केकराही अंगना चानन गाछ चानन मंजरी गेल रे ललना रे ककर धनि गर्भ स सुनि मन हर्षित रे।

बाबा केरा अंगना चानन गाछ, चानन मंजरी गेल रे भईया के धनि गर्भ स सुनि मन हर्षित भेल रे।

घर के पछुअरवा में जोलहा कि तोंही मोरा हीत बसु रे ललना रे बिनी दहिन सोना के पलंगवा होरीला सुतायब र।

ओही कात सुत सिर साहब और सिर साहब रे ललना रे अई कात सुतु सुकुमारी बीच में होरिला सुतु र।

हटि हटि सुतु सिर साहब और सिर साहब रे ललना बड रे जतन केरा होरिला घाम से भीजल रे ।

सासु के धर्म स होरिला अपना कर्म स ललना रे आहां के चरण स होरिला घाम से भीजल र।

6.

देवकी चलली नहाय की मन पछताइक रे ललना रे मरब जहर विष खाई घर नहिं घुरब रे।

जनी तोहे देवकी डेराय मन पछ्ताइक रे ललना रे जनम लेत यदुकुल बालक वंशक कुन्दन रे।

पहिल सपन देवकी देखल पहिल पहर राती रे ललना रे छोटे छोटे अमुआ गाछ फ़ल फ़ूल लुबधल रे।

दोसर पहर राती बीतल दोसर सपन देखु रे ललना रे सुन्दर बांस के बीट देहरी बीच रोपल रे ।

तेसर सपन देखल तेसर पहर राती रे ललना रे सुन्दर दहि के छाछ सिरमा बीच राखल रे।

चारीम पहर राती बीतल चारीम सपन देखल रे ललना रे सुन्दर कमलक फ़ुल खोईंछा भर राखल रे।

जे इहो सोहर गावोल गावी सुनावोल रे ललना रे तीनकई वास बैकुण्ठ पूत्र फ़ल पाओल रे।

7.

भऊजी छली गर्भ स नन्दी अरजी करु रे ललना अपना घर होयत बालक कंगन हम इनाम लेब रे।

एक पैर देलनि एहरि पर दोसर देहरि पर रे ललना रे तेसरे में होरीला जनम लेब कंगन हम लेहब रे ।

मचीया बैसल तोहे अम्मा कि तोही मोरा हीत बाजु हे अम्मा भऊजी बोलनि कुबोलिया कंगन हम लेहब रे।

सोइरी बैसल आहां पुतहु बतहु दुलरइतीन हे पुतहु दय दिय हाथ के कंगनमा नन्दी थीक पाहुन रे ।

मचीया बैसल आहां सासु अहुं मोरा हीत थीक हे सासु कहां दिय कंगनमा कंगन नहिं मिलत रे।

पलंगा सुतल आहां भईया कि अहुं सिर साहब हे भऊजी बजलिन कुबोलिन कंगन मिलत हे।

दुधवा पियविते आहां सुहबे अहीं सुहालीन रे ललना दय दिय हाथ के कंगनामा बहिन मोरा पाहुन हे।

पलंगा सुतल आहां पिया अहुं सिर साहब हे पिया कहां स दय दिय कंगनमा कंगन नहिं मिलत रे चुपु रहु बहीन सहोदर बहिन हम करब हम दोसर बियाह, कंगन आहां के देहब रे।

कोंचा स कंगना निकाली भुईंया में फ़ेंकि देली रे नन्दी तुहु नन्दी सात भतरी कंगन जरि लागल हे।

8.

पलंगा सुतल आहां पिया अहीं मोर पिया थीक हे पिया मन होईया चुनरि रंगवितऊ चुनरि पहिरतहु रे।

बाप तोहर सुप बिनथी माय सुप बेचथि हे छनि चार भईया खजुर बझाय तकर बहिन नटिन हे ।

एतवा बयन जब सुनलनि सुनि उठी भागलि रे ललना ढकी लेले वज्र केवार कि मुंह नहिं देखायब रे।

घर पछुअरा में सोनरा कि तोहीं मोरा हित बसु रे ललना गढि दहिन सोना के कंगनमा धनि पर बोछव रे।

कांख दाबि लेलनि कंगनमा पैर में खरमुआ रे ललना चलि भेला सुहबे धनि पर बोछव रे।

खोलु खोलु सुहब सुहागिन अहीं दुलरईतिन हे सुहबे खोलि दिय बज्र केवार कंगन बड सुन्दर रे।

कंगन पहिरथु माय कि आओर बहिन पहिरथ हे ललना हम नहिं पहिरब कंगनमा कंगन नहिं सोहभ रे।

बाप हमर सुप बिनथी माय सुप बेचथि रे ललना भईया मोर खजुर बझाय बहिन थीक नटिन रे।

बाप आहां के राजा दशरथ माय कौशल्या रानी रे ललन चारु भाई पढल पंडित हुनक बहिन थीक हे।

9.

सोना के सिंहासन बैसल राम सीता स बिचार पुछु रे ललना हमरो घर शुभ कल्याण कहां कहां नौतब रे।

पहिने नौतब आनि लोक रे ललना तखनि नौतब सार लोक सार सब रुसब रे।

एतवा वचन जब सुनलि सीता कनबि लगलिन रे ललना भईया मोर नहिं जानथ कोन विधि जियब रे ।

घर पछुआर तोही कयथा कि मोरा हीत बसु रे ललना लिखि द जनकपूर चिठ्ठिया भैया मोर जानथि रे।

घर पछुअरवा में नउआ कि तोहीं मोरा हित बसु रे ललना दय चिठ्ठी पहुंचाय कि भईया मोर आओत रे।

हाथी चढि आवथि भइया बहुत रूप सजल रे ललना आगा पीछा आवय भरिया सीता मन हर्षित रे।

शुक्रवार, 7 मई 2010

कुछ प्रश्न ?


निरुपमा की मृत्यु या उसकी ह्त्या? यह विवाद उतना बड़ा नहीं है जितना की यह सत्य की निरुपमा अब इस दुनिया में नहीं है. प्रश्न कई सारे है जिन्हें वह अपने पीछे छोड़ गयी है.


सबसे अहम् की यह आत्महत्या है या ह्त्या?

मगर उससे भी अहम् प्रश्न यह है की क्या ज्ञान का अर्थ केवल सफलता प्राप्त करना है या फिर उसे आत्मसात करना. अगर सफलता माता पिता को संतुष्ट करती है तो उसी ज्ञान को आत्मसात करके अगर निरुपमा या उसके जैसे छोटे शहरों से आनेवाली कई निरुपमाये अपने निर्णय और सच के साथ अडिग रहने के फैसले से समाज इतना असंतुष्ट क्यों है?

निरुपमा के पिता ने पत्र में यह उल्लेखित किया कि सनातन धर्म संविधान से ज्यादा बड़ा है, मगर सवाल यह है की क्या हिन्दू धर्म किसी भी तरह से विचार की ह्त्या को प्रोत्साहित करता है? यहां तो प्रश्न न केवल विचार की ह्त्या का रहा बल्कि व्यक्ति की ह्त्या पर आकर ख़तम हुआ. और मुझे नहीं लगता की विश्वा का कोई भी धर्म इसे न्यायोचित ठहरा सकता है और सनातन धर्म तो कतई नहीं क्योंकि यहाँ विचार पर खुले अम्वाद की परम्परा रही है.

अत: मेरी अपील छोटे शहरों से आने वाले उन सभी निरुपमाओ से है जो बड़े शहर में आकर अपने विवेक और ज्ञान के बल पर जगह तो बनाती है मगर परिवार के दबाव में आकार अपने जीवन के सबसे बड़े फैसले में अपनी भूमिका को अनुपस्थित पाती है. समाज परिवर्तन के उस संक्रमणकाल में है जहा पर ऐसी सभी लड़कियों को अपने निर्णय के साथ डटकर खडा होना होगा. शर्त केवल इतनी है की निर्णय आवेग में ना लेकर बुद्धि के कसौटी पे कसा गया गया हो. ऐसा होना जरुरी है क्योंकि अब कोई और निरुपमा समाज, जाती और प्रतिष्ठा के कोरे दंभ की बलि ना चढ़े.

एक जरुरी बात कि बcपन से बड़े होने तक अभिभावक, धर्म, शिक्षा इत्यादि हमें प्रेम के लिए प्रेरित किया करते है पर क्या यह प्रेम बंधन में किया जाएगा उनके बताये अनुसार...