सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

खौफ़


वैसे ऊपर से मृत्यु की यह कविता अंततः जीवन की कविता है.अभिनव इसे नज़्म कहते हैं. किसी सूफ़ी की तरह दिखने वाले  अभिनव पत्रकारिता पढ़ते हैं, अभिनय करते हैं और कविता लिखते हैं.











मौत को कई बार पास से देखा है

पुर-असरार...
कोहरे में ढके चाँद सा

स्याह...
बुझती शाम सा

झूठे वादों सा ज़र्द
ज़िन्दगी से काफी अलग
पर है उसके जैसा ही सर्द

कई बार मिल चूका हूँ मैं मौत से
नाना
दादा-दादी
बड़े चाचा
पुरानी घोबन
दो पालतू कुत्ते
तीन बिल्लियाँ
और अक्वेरियम की कई सारी मछलियों ने
मौत को मेरे लिए कितना सहज बना दिया है
कि अब मैं सोच सकता हूँ किसी के भी मौत के बारे में
खुद के भी
मौत अब अपनी सी लगती है..

मगर इस ज़िन्दगी का क्या ..
इसका डर है कि जाता ही नही

जैसे ज़िन्दगी दंगे की कोई रात हो
या पुलिस पर पत्थर फेंकते लोगों की घुटन
या फिर हो  ग्यारह साल से भूख हड़ताल पर बैठी विवशता
ऐसी ज़िन्दगी का खौफ
बढ़ता ही बढ़ता जाता है..हर पल बढ़ता जाता  है...

3 टिप्‍पणियां:

डॉ .अनुराग ने कहा…

kavita ka sabs ebehtreen hissa hai ye....jo ise is subject par likhi hui doosri kavitao se juda karta hai


कई बार मिल चूका हूँ मैं मौत से
नाना
दादा-दादी
बड़े चाचा
पुरानी घोबन
दो पालतू कुत्ते
तीन बिल्लियाँ
और अक्वेरियम की कई सारी मछलियों ने
मौत को मेरे लिए कितना सहज बना दिया है
कि अब मैं सोच सकता हूँ किसी के भी मौत के बारे में
खुद के भी
मौत अब अपनी सी लगती है..

Rahul Singh ने कहा…

मौत के साये में जिंदगी का सच्‍चा रोमांच.

अनूप शुक्ल ने कहा…

बहुत सुन्दर कविता!