बुधवार, 29 सितंबर 2010

शकुंतला

कुटियाट्ट्म देखने की इच्छा कई दिनों से मन में थी, इसे देखने के अवसर हाथ से निकल जाते थे लेकिन इस बार मैं कोई चूक नहीं चाहता था. क्लास बीच में ही छोड कर रा. ना. वि. की ओर भागा. ठीक समय पर अभिमंच में था, सीट खोजी, बैठा. नाटक देखने में मैं अक्सर स्थान का खयाल अवश्य रखता हूं. प्रस्तुति ठीक समय पर शुरु हुई निर्देशक गोपाल वेणु के संक्षिप्त उदबोधन के साथ. अभिमंच पुरा भरा हुआ था, लोग दरवाजें पर खडे थे और नीचे भी बैठे हुए थे. नौ घंटे की लगातार प्रस्तुति वो भी शकुंतला की कुटियाट्ट्म शैली में. ऐसा लग रहा था कि हम ऐतिहासिक प्रक्रिया के अंश हैं.
कुटियाट्ट्म भारत की प्राचीनतम जीवित संस्कृत नाट्य परम्परा है. इसमें संस्कृत नाटकों का अनोखा प्रस्तुतीकरण का तत्व निहित है और साथ ही पारम्परिक हस्तमुद्राओं एवं मुख-भावाभिव्यक्तियों से संवरी एक उच्चकोटि और समग्र शैलीबद्ध रंगभाषा भी. इसका उद्गम केरल के राजा कुलशेखर वर्मन प्रथम के समय में हुआ था. कुटियाट्ट्म का शब्दिक अर्थ है ‘मिला जुला अभिनय’(परम्पराशील नाटक- जगदीशचंद्र माथुर). कुटियाटम के इतिहास पुरुष 'अम्मनुर माधव चाक्क्यार' ने इस नाट्य शैली को जीवित रखाने के लिये अपना अमूल्य योगदान दिया, इसे मंदिर से बाहर निकाल कर इसे विश्व भर के लोगों के लिये सुलभ कर दिया यद्यपि इसके विरोध भी हुए. इस नाट्य प्रस्तुति के निर्देशक 'गोपाल वेणु' 'अम्मनुर माधव चाक्कयार' के ही वरिष्ठ शिष्य हैं. वे पारम्परिक कलाओं के शोध एवं प्रदर्शन केन्द्र नटनाकेराली के संस्थापक और कुटियाट्ट्म के प्रशिक्षण केन्द्र अम्मनुर चाचु चाक्क्यार स्मारक गुरुकुल के सह संस्थापक भी हैं.
'शकुंतला' गोपाल वेणु के लम्बे शोध और अध्ययन का प्रतिफ़ल है. इस प्रक्रिया में उन्हें परम्परा प्रचलित अट्टप्रकारम (अभिनय सिद्धांत) और कर्मदीपिका (प्रस्तुति सिद्धांत) के साथ-साथ नया अभिनय सिद्धांत भी रचना पडा. कुटियाट्ट्म के प्रदर्शनों की दर्शकीय प्रतिक्रिया का भी ध्यान रखा गया. प्रस्तुति की अवधि नौ घंटे की है जिसमें पैंतालीस मिनट के दो अंतराल भी रखे गये हैं. अंतराल का समय भी नियोजित है. यह नाटक को तनाव के एक बिंदु पर ले जाकर छोड देता है. दर्शक इन अन्तरालों में अपने को फ़िर तरोताज़ा कर लेता है क्योंकि यह प्रस्तुति प्रेक्षक से एक विषेश प्रकार की उम्मीद भी रखती है.
'अभिज्ञान शाकुंतलम' कालिदास रचित भारतीय वांगमय का सर्वाधिक प्रतिष्ठित नाटक है. इसकी कथा ज्ञात ही है. प्रस्तुति की भाषा संस्कृत है. दर्शकों के लिये मंच के दोनों ओर उपशीर्षकों के प्रोजेक्सन लगाया गया था, वैसे इनके संयोजन में गडबडी थी. प्रस्तुति में अभिनय के सात्विक और कायिक पक्ष वाचिक और अहार्य के वनिस्पत अधिक मुखर हैं. वाचिक वहीं पर था जहां उसकी जरुरत थी, अधिकांश संवादों के लिये मुद्राओं और भंगिमाओ का सहारा लिया गया जो इन नाट्य शैलियों की विशिष्टता है.
कुटियाट्ट्म की प्रस्तुति दिये की रोशनी में ही होती है पर इस प्रस्तुति में रंग दीपन की आधुनिक तकनीक का कुशलता से प्रयोग किया गया था. प्रस्तुति मिढावु के पारंपरिक वादन और सुत्रधार के से मंगला चरण शुरु हुई. इसमें मंच को शुद्ध भी किया गया. ध्यात्वय हो कि कुटियाट्ट्म की प्रस्तुति की पृष्ठभूमि धार्मिक अनुष्ठान है. संगीत प्रस्तुति का सबसे जानदार पक्ष है. पात्रों के अभिनय के उतार चढ़ाव के साथ संगीत की संगत ने दर्शकों को रस सिक्त कराया . संगीत प्रस्तुति को तोडता भी है और उसमें सूत्र भी कायम रखता है. पात्रों के प्रवेश के चित्रपटी तकनीक का प्रयोग किया गया. पात्र का चित्रपटी के पीछे पहले पैर दिखता फ़िर सिर  का कुछ भाग फ़िर पुरा शरीर. पात्रों के प्रवेश की संस्कृत रंगमंच की यह प्राचीन परम्परा है. दर्शकों के कौतुहल और दृश्य को भव्य बनाने में ये तकनीक काफ़ी कारगर होती है. नाटक में ऐसे ही दुष्यंत की राज सभा का दृश्य भव्य हो गया था. लेकिन चित्र पटी हटाने में थोडा और समय लिया जाता तो बेहतर था. प्रस्तुति का सौंदर्य नाटक में तनाव के तीव्र क्षणों में अभिव्यक्त हुआ. दुष्यंत शकुंतला के प्रेम का आरंभ, शकुंतला की आश्रम से विदाई, दुष्यंत द्वारा अस्वीकार किये जाने पर शकुंतला का धरती में समा जाने का आग्रह इत्यादि दृश्य इस लिहाज़ से दर्शनीय थे. मछुआरे की भूमिका में गोपाल वेणु ने अपने अभिनय से दर्शकों को आनंदित किया. तनाव से भरे नाटक में राहत के ये कुछ पल थे. इस दृश्य में उन्होंने समकालीन देह भाषा को भी सहज रूप से कुटियाट्ट्म का अंग बना दिया गया था.पारम्परिक नाटकों की रूप सज्जा, वेष भूषा, गति अभिनय शैली और आलेख प्राय: निश्चित होते हैं, उनमे शैली के अनुसार बहुत अधिक परिवर्तन की गुंजाईश नहीं होती. कुटियाट्ट्म का प्रशिक्षण बाल्यवस्था से ही दिया जाता है ताकि अभिनेता अपने शरीर पर पूरा नियंत्रण कर लें. यह नियंत्रण प्रदर्शन के दौरान दिखता है जब अभिनेता अपने चेहरे के एक एक मांशपेशियों से मनचाहा काम लेतें हैं. नेत्र का इस्तेमाल तो चमत्कृत कर देना वाला है.
दरअसल, यह प्रदर्शन देखना ऐसा अनुभव है जिसे हम जीवन भर संजो कर रख सकते हैं और गर्व कर सकते हैं. उम्मीद भी कि ऐसी प्रस्तुतियां और भी देखने को मिलेंगी. गति के समय में ये प्रस्तुति हमें गति और ठहराव का अंतर बताती हुइ उसकी महत्ता समझाती है, हमारी धैर्य की परीक्षा लेती है क्योंकि हम तीव्रता के आदि हो गये हैं.


1 टिप्पणी:

Rahul Singh ने कहा…

आपकी रपट में विवरण और तटस्‍थता का अच्‍छा समन्‍वय है. यह पारम्‍परिक कलाओं को मंचीय प्रस्‍तुति के अनुकूल बनाए जाने के प्रयास में उसके स्‍वरूप में हो रहे परिवर्तन पर भी विचार करने को लक्षित जान पड़ती है. ऐसी प्रस्‍तुतियां तैयार करना संस्‍थाओं द्वारा ही संभव है और प्रस्‍तुति होती रहे इसलिए गुटका संस्‍करण जैसी चीज भी आवश्‍यक होने लगी है.