शनिवार, 1 जनवरी 2011

दोस्तों के नाम...

 आ गया नया साल. एक दिन या युं कहें कि एक सेकेंड के फ़र्क से दिन, वर्ष, महीना बदल गया है. लेकिन इस एक सेकेंड का फ़र्क क्या जीवन में भी कुछ तब्दिली लाता है? मुझे तो लगता है कि साल का बदलना सिर्फ़ कैलेंडर और आंकड़ों का बदलना है. जीवन में बदलाव का अपना ही रफ़्तार होता है उसकी अवधि एक सेकेंड भी हो सकती है या उससे ज्यादा भी.
बहरहाल इस दार्शनिक बहस में ना उलझते हुए वो बात करते हैं जो मैं इस मौके पर करना चाहता हूं. मैं जिनके लिये खास तौर पर ये लिख रहा हूं उनकी दिलचस्पी कभी ऐसी बहसों में नहीं रही. वैसे ऐसी क्या, उनकी दिलचस्पी, यहां मैं बार-बार उनकी क्यों कह रहा हूं,(वैसे दो बार ही कहा है) हां तो हमारी दिलचस्पी किसी भी प्रकार की बहस में नहीं थी. हम बहस एक ही जगह करते थे क्रिकेट के खेल में, ज्यादातर रन आउट के फ़ैसले के समय, उसे भी बहस नहीं झगड़ा कहना चाहिये. इस झगड़े का अन्त विकेट उखाड़ कर खेल समाप्ति की घोषणा तक होता था, जो दूसरे दिन फ़िर खेल शुरु होने तक कायम रहता.  अब तक ये समझा जा सकता है कि हम अपनी मंडली की बात कर रहें हैं. हमें से कोई भी लिखने जैसा बकवास काम नहीं करता है, इसलिये ये कार्य मुझे ही अंजाम देना है. वैसे जब मैं याद कर रहा हूं तो स्मृतियां धक्का मुक्की मचा रही हैं और एक दूसरे को ठेल कर आगे आने के लिये बेताब हो रही हैं.
हमें से बहुत एक दूसरे को तब से जानते थे जब से हम पैंट की बटन ठीक से बन्द  नहीं कर पाते थे. हां हम क्रिकेट खेल लेते थे कामिक्स पढ़ लेते थे…धीरे धीरे हमारा सर्किल बढा…और इसके तीन आधार थे..क्रिकेट, कामिक्स और कोचिंग. ये कहने में मुझे कोई ऐतराज़ नहीं कि हम सभी एक दूसरे से एक साथ खुले और एक साथ बन्द थे. जो चीज बांटनी चाहिये उसे छुपा के रखते थे जैसे शिक्षा और जो चीज छुपानी चाहिये उसे बांटते थे. जैसे किसी बालिका के साथ किसी बालक का व्यक्तिगत अनुभव. वैसे हमारे उस संसार में बालिकाओं की आवश्यक्ता नहीं थी. फ़िर भी अधिकांश जोड़ियों की कल्पना कर ली गयी थी, बिना द्वितीय पक्ष की इजाजत के. वैसे सबके दिल में एक खास कोना सुरक्षित था जो लाज़िम था क्योंकि आज कसकने के लिये भी तो कुछ चाहिये. हम आमतौर पर हिम्मती थे, पर इतने हिम्मती भी नहीं थे कि किसी लड़्की से बात कर सकते थे. इस भीरूपन को हमने खास तौर से ढक रखा था यह कह कर कि हम लड़कियों से बात नहीं करते.
कोचिंग जहां हम सम्मिलित रूप से मट्रिकुलेशन के ‘आयरन गेट’ को तोड़ने के लिये प्रशिक्षित होते थे, हमारे मनोरंजन के लिये बेहतरिन जगह थी. जहां हम पढाई के साथ मास्टरों पर भी नज़र रखते थे.  हमारे मास्टर सामूहिक शिक्षा और सामूहिक पिटाई दोनों में विश्वास रखते थे. पीटने का एक भी बहाना वो चुकते नहीं थे..वैसे उस मार में एक मज़ा भी था. कोचिंग में दो लड़कों का झगड़ा कराना फ़िर थोड़े से मारपीट के बाद सुलझाना कुछ ऐसे ही था कि बहुत दिन हो गये किसी ने झगड़ा नहीं किया. कुछ कराओ यार. फ़िर दो विशेषज्ञ इस काम को सम्पन्न कराते. इस विशेष मुकाबले के लिये विशेष जगह थी जिसे ‘झगड़ौआ चौक’ का नाम दिया गया था जहां ‘महाभारत’ का अयोजन होता, जिसे किसी वरिष्ठ नागरिक को आता देख कर तुरन्त खतम करा दिया जाता.
हमें मैट्रिक में अधिक से अधिक नंबर लाना था, ऐसी प्रतिद्वंद्विता हमारे मास्टर जी ने हमारे लिये विकसित की थी. वे सबकी रिपोर्ट सबको एकांत में बताते जैसे-मास्टर जी उवाच-“ हो गये, गये तुम राकेसवा एतना पढ़ रहा है कि हद से ज्यादा देखना तुम से अधिक नम्बर लायेगा”. हम उनकी बात को सुनते और जोर लगा के पढते और एक दुसरे को पछाड़ेना का यह कम्पीटीशन परीक्षा हाल में जाते जाते सहयोगी उद्यम बन जाता…किसी का कोई प्रश्न छुटने ना पाता. हरेक का विषय फ़िक्स था. ऐसी प्रतिस्पर्धा मैट्रिक परिक्षा तक कायम रही. वैसे कुछ गद्दार भी थे जो ये समझते थे कि वो अपना विशेष ग्यान नहीं बांटेंगे. खैर..यहां एक बात कहना जरुरी है कि हम सब का लक्ष्य एक खास बालिका को पछाड़ना था जो मास्टर जी की चहेती थी हम उसे ‘ब्रिलियेंट’ कहते थे और उसने हमें अंततः पराजित किया.
मैट्रिक परिक्षा के बाद हमने उस दुनिया में प्रवेश किया जहां कैरियर अहम था. सबका अपना अपना रास्ता था. हम सब इस पर आज तक चलते जा रहें हैं. अब हम छुट्टियों में मिलते…कामिक्स,क्रिकेट और कोचिंग पीछे छूट गया था. अब हमारे पास था दोपहर में ताश का खेल और शाम में रास्ता और मैदान. इन स्थलों पर हमें से कॊइ अपनी परेशानी नहीं शेयर करता जबकि सबके पास थी, कोई अपनी गर्लफ़्रेंड के किस्से नहीं सुनाता क्योंकि किसी के पास नहीं थी. यहां चुटकुला था, उस शहर का अनुभव और किस्से जो समाज की अन्दरुनी गतिविधियों के थे. आज भी हम एक दूसरे से उतना नहीं बात करते , संचार क्रांति ने भी हमें प्रभावित नहीं किया ऐसी बात नहीं, सबके पास बात करने के लिये बहुत से शिकायती लोग हैं. हमें से किसी को याद नहीं कि किसका जन्मदिन कब है. कोइ किसी के कुछ भी बड़ा करने से अप्रभावित है. कोइ किसी को इस बात के लिये नहीं कोसता कि तुमने अपनी जिंदगी में कुछ नहीं किया. किसी को उपदेश देने पे आप पीट सकते हैं और डींग हांकने पे आपकी खिल्ली ततक्ष्ण उड़ायी जा सकती है. बगहा में होने पर स्थायी तौर पर वहीं रह रहे दोस्तों से मिलना आपकी अनिवार्य ड्युटी है. साथ में एक भोजपुरी सिनेमा देखना अनिवार्य है क्योंकि हंसने का पुरा मसाला एक साथ मौजुद है. अब हम चाय  पीते हैं, मोटर साईकिल पर घुमत हैं और उन लड़्कियों को याद  करते हैं जो हमारे साथ पढा करती थीं.
आज बगहा से दूर  दिल्ली में बैठा ये सब इसलिये याद कर रहा हूं क्योंकि बहुत अकेला लग रहा है. चाहता था कि इस वर्ष हम सब मिले और हर साल की तरह नये कपड़े पहन के घर से निकल कए सिनेमा हाल में मिलते और कचहरी के मैदान पर लम्बी गोष्ठी चलती. पर ये हो ना सका….ये सब पढ़ के अवश्य ही मेरा मज़ाक उड़ेगा जिसमें मैं भी शामिल रहूंगा. हम दोस्त हैं इसलिये हैं कि हम अपने आप पर हंसना जानते हैं और बेहद अनौपचारिक है. वैसे लिख रहा हूं तो मेरे भीतर का कोई कह रहा है कि क्या बकवास कर रहा है बे ?

बुधवार, 29 दिसंबर 2010

दो कविता

एक
सत्य और असत्य
के बीच का
...फ़र्क...
हमेशा एक
...मनुष्य...(किसी भी लिंग का हो)
...का है.
दो 
मरीचिका ही है 
ये जानता हूँ 
'अंत में हाथ आएगी रेत
फिसलती हुई 
चिपकी रहेंगी कुछ जरुर 
पर वे काफी नहीं होंगी '
फिर भी बढ़ रहा हूँ ...
निरंतर 
उसकी ओर
जो दूर होती जा रही है लगातार...

मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

रचनाकार का दायित्व...

उदय प्रकाश का ये साक्षात्कार एक मित्र के शोध के सिलसिले में लिया गया था.  कहानी, जीवन, कविता और मोहनदास को लेकर लगभग एक घंटे की बातचीत हुई. ‘मौका है और दस्तुर भी’ के पुराने कहावत को दोहराते हुए ये साक्षात्कार अंश;

मैं बार बार कहता हूं कि भारत में जो जाति व्यवस्था है उसके कन्फ़्लिक्ट कई मायने में नस्लीय कन्फ़्लिक्ट से कम घातक नहीं है आज आदिवासियों के साथ जिस तरह से आप ट्रीट कर रहें हैं इसको आप किस कटेगरी में रखते हैं मुसलमान और हिन्दु में जब कन्फ़्लिक्ट होता है उसको आप कम्युनलिज्म और सेकुलरिज्म के दो पालिटिकल कैटगरी बना लेते हैंआप आज आदिवासियों के साथ जो कर रहें है उसे आप किस कैटेगरी में रखेंगे या दलितों के साथ जो कर रहें हैं, उसे आप किस कैटेगरी में रखेंगे या मेरे जैसे लेखक के साथ जो आप कर रहें हैं उसे आप किस कैटेगरी में रखेंगेये कम्युनल है कि रेसियल है है न.. इसके पीछे जो संदेह और घृणा है वो किस कैटेगरी में जाता है। इस रूप में मोहनदासलिखी ही गयी थी औरि उसमें जो लिखते हुए मुझे ऐसा लगा मैं अपनी ही नहीं सारे  जो वंचित लोग हैं मैं उनकी कहानी कह रहा हूं। और शायद जो डेमोक्रेसी फ़ैल कर गयी है क्योंकि ज्यादा जो इम्फ़ैसिस था इस पर था कि 1989 में समाजवाद फ़ेल कर गया और ये मान लिया गया कि इसका कोई फ़्युचर नहीं हैमेरा कहना ये है कि समाजवाद ही नहीं फ़ेल कर गया है डेमोक्रेसी फ़ेल कर गयी है। लोकतंत्र कहां है ?  आप पढिये फ़ुकुयामा की नयी किताब पोस्ट हुमन फ़्युचर उसमें कहता है कि एंड आफ़ हिस्ट्री हैएंड आफ़ हिस्ट्री उसने इसलिये कहा कि दो ब्लाक्स थे सोशलिस्ट ब्लाक और कैपटलिस्ट ब्लाक  लोकतंत्र और समाजवाददोनों के टकराहट में इतिहास निर्मित हो रहा था और वो जो राजनीति थी ड्राईविंग सीट पर बैठी हुई थी जो आगे ले जा रही थी इतिहास बन रहा था उसने कहा अब ये खतम हो गया युनीपोलर दुनिया हो गयी एकध्रुवीय हो गयी वो कंट्राडिक्शन तो गया, वो द्वंद्व तो गया तो अब इतिहास कैसे बनेगा ?  उसने कहा अब इतिहास का अंत हो गया कोई शीतयुद्ध नहीं है ध्रुवीय व्यवस्थाओं में उस तरह के टकराहट नही है समाज व्यवस्थाओं में उस तरह के रोल माडल नहीं है तो अब इतिहास का अंत हो गया लेकिन अब उसकी जो नयी किताब है उसमें वो चेंज कर रहा है कहता है कि नहीं आप ये सोचिये कि 1789 में जो फ़्रेंच रिवोल्युशन हुआ था उसमें रुसो ने तीन नारे दिये थे स्वतंत्रता, समानता और विश्वबंधुत्व अब ये तीनों कहां है किस देश में है आप अपने सबकान्ट्नेन्ट में देखिये फ़िर तीसरी दुनिया में देखिये... बर्मा में मिलट्री जुंगटा है, श्रीलंका में आपने अभी देखा तीसहजार लोगो का मैसेकर जेनोसाईड आप बांग्लादेश में देखिये, पाकिस्तान में देखिये, हिन्दुस्तानी में देखिये  इतना ज्याद आदमी का, फ़ौज का, पुलिस का इस्तेमाल अपनी जनता के खिलाफ़ हेलिकाप्टर से बम तक गिराने का कोलोकतंत्र क्या कर सकता है ?  अंग्रेजो ने भी नहीं किया ऐसा आप यकीन मानिये जिसको हम कोलोनोइयल पावर कहते है जो बाहर से आये थे उनके अंदर भी थोडी मानवीय चेतना थीतो मुझको कई बार ये संदेह होने लगता है मैं कहता हूं कि ऐसा तो नहीं है कि जोज्योतिबा  फ़ुलेकहते थे वो सही कहते थे कि ये तो अच्छा हुआ कि 1857 की क्रांति सफ़ल नहीं हुई हो जाती तो हम दस हजार साल तक और गुलाम रह जाते। अचानक क्या होता है कि आपको आपके समय को देखने के एक नये दृष्टि मिलती है और आप पाते है कि ये आजादी, ये स्वतंत्रता, ये लोकतंत्र इसकी जो व्याख्या होनी चाहये इसका जो विश्लेषण होना चाहिये यहां कि जो पुरी डेमोग्रफ़ी है जनसांखिय्की है या जो रहने वाले लोग है मनुष्य है उनके संदर्भ में होनी चाहिये ऐसा नहीं है कि आपने एक कांस्ट्रक्ट बाना दिया है कि देखिये हम ये योजना बना रहें हैं, हम इतना इंफ़्रास्ट्रक्चर तैयार कर रहें है,  इतने कारखाने लगा रहें हैं, पावर प्रोजेक्टस लगा रहें हैं, इतने माईन्स लगा रहें हैं, हम डेवलप कर रहें हैं और हम लोकतंत्र है दुनिया की बिगेस्ट लोकतंत्र हैमैं कह रहा हूं कि आप लोकतंत्र हैं  के नहीं ? बिगेस्ट तो बाद की बात है। पहला प्रश्न तो ये पैदा होता है कि क्या आप लोकतंत्र बने हुए हैं,  अगर हैं तो उसका संविधान तो कुछ कहता होगा, उस संविधान के अनुरुप चल रहें हैं, उसका पहला प्रिएंबल क्या है?  संविधान का पहला प्रीएम्बल क्या है आप उस पर भी स्टिक कर रहें हैं कि नहीं?   मेरा यकीन मानिये कहीं नहींउसको आपने उठा कर के रख दिया है अब लेखक बचता है। लेखक जो है सचमुच इमानदार है तो उसके सामने बडी एकाउंटिबलिटी होती है बडी जिम्मेदारी होती है उत्तरदायित्व होता है क्योंकि वो इतिहास नहीं लिख रहा है। वो जानता है कि मैं इतिहास के बाहर की  एक चीज और लिख रहा हूं, हो सकता है कि वो मेरी निजी डायरी हो या मेरा अपना देखा गया सच हो तो फ़िर वो काम भी करता है रचनाकार करता है लेखक करता है दुनिया भर के लेखक ये करते हैं जो सच्चे हैं।