आज
बारह तारीख को लोकसभा चुनाव में चंपारण के मतदाताओं में से कोई अपनी पार्टी के लिये वोट दे रहा होगा, कोई अपनी जाति के लिये, कोई अपनी बिरादरी तो कोई किसी के दबाव में, कुछ वोट देने ही नहीं जायेंगे. हर मतदाता के पास वोट देने के लिये अलग अलग कारण होंगे लेकिन कोई भी चंपारण की वास्तविक चिंताओं के लिये वोट नहीं देगा. क्योंकि ये चिंताएं ना यहां के प्रशासन में है, ना निर्वाचित जन प्रतिनिधियों में और ना ही यहां की जनता में. ये कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिनकी मौजूदगी यहां के मतदाताओं के जेहन में ही नहीं है. गौरतलब है कि चंपारण में लोकसभा की तीन सीट हैं और इन तीनों सीटों पर विगत पच्चीस
वर्षों में कांग्रेस, राजद, भाजपा, और जद यु यानी राज्य की सभी मुख्य पार्टियों के सांसद रहे हैं. ऐसा भी हुआ है कि केंद्र और राज्य में सत्ताधारी दल के सांसद भी यहां थे, लेकिन इन वर्षों में भी यहां कुछ खास नहीं हुआ जबकि यह ऐतिहासिक, भौगोलिक, पर्यावरवण और सामरिक दृष्टि से एक महत्त्वपूर्ण इलाका है लेकिन
आज भी इसे भारत के बेहद पिछड़े इलाकों में शामिल किया जा सकता है.
उत्तर
प्रदेश से सड़क मार्ग के जरिये जैसे
चंपारण में प्रवेश करेंगे तो सड़कें आपको चुनौती देते हुए मिलेंगी, कर लो यात्रा आगे! इस वर्ष तक रतवल पूल बनने से पहले धनहा-ठकराहां जाने
के लिये संपर्क रास्ता ही नहीं था, उत्तर प्रदेश हो कर जाना पड़ता
था.
बाढ़ और नारायणी नदी की मार झेलते इस इस इलाके की ही नहीं पूरे चंप्राण के सड़कों की हालत बेहद खराब है. कुछ सड़कों को राष्ट्रीय मार्ग घोषित किये जाने के बावजूद निर्माण कार्य बेहद धीमी गति से चल रहा है. राष्ट्रीय मार्ग को दुरस्थ इलाके से जोड़ने वाले सड़क या तो है नहीं है जो हैं उनकी
हालत बेहद खस्ता है. इस
क्षेत्र में अभी भी ऐसे गावं मौजूद है जो सड़क से जुड़े हुए ही नहीं है. ऐसा तब है कि सड़क मार्ग पड़ोसी राज्य नेपाल से जुड़ा है और आयात
निर्यात के लिये एक जरूरी माध्यम है. लेकिन इस महत्त्व को समझने
की भी कोशिश नदारद है.
मुझे याद नहीं है कि पिछले पच्चीस सालों में चंपारण के चुनाव में सड़क कभी मुद्दा रहा हो.
सड़क
नहीं है तो लोग चलते कैसे हैं? रेल से. लेकिन आज भी चंपारण का रेलवे नेट्वर्क समस्तीपूर रेल मंडल से संचालित होता है, जो अभी भी पुरानी तकनिक और अव्यवस्था से संचालित होता है. चंपारण में नरकटियागंज और रक्सौल जैसे महत्त्वपूर्ण जंक्शन हैं और इस क्षेत्र के सभी मुख्य स्टेशन से रेलवे को जबरदस्त आय होती है. जबकि इस इलाक एमें नरकटिया गंग और रक्सौल जैसे सीमावर्ती स्टेश न्हैं और लगभ्ग सभी स्टेशनों से रेलवे को राजस्स्व की आमदनी होती है. सुगौली, मझौलिया, रामनगर, बगहा, नरकटियागंज, चकिया चिनी मिल इन्हीं रेलवे स्टेशनों के किनारे हैं. लेकिन यहां के प्रतिनिधियों और जनता को कभी सुधि नहीं आई कि
इस क्षेत्र में एक रेल मंडल क्यों नहीं होना चाहिये? बदहाली और उपेक्षा का आलम यह है कि
अभी भी रक्सौल और नरकटियागंज के बीच रेलवे का आमान परिवर्तन नहीं हुआ है . लाइनों के दोहरीकरण के अभाव में पैसेंजर ट्रेन में चलने वाले यात्रियों की दुर्गति होती है. बाहर रहने वाले लोगों जिनका
एकमात्र सहारा ट्रेन हैं लेकिन एक्सप्रेस ट्रेनों की संख्या कम है. महत्त्वपूर्ण ट्रेने इस इलाके से नहीं गुजरती, इस इलाके को ध्यान में रखकर ट्रेन नहीं ही चलाये जाते हैं. आलम यह है कि बगहा से लेकर मोतिहारी तक इन रेल लाईनों पर ओवरब्रिज नहीं है जिससे आये दिन इन शहरों मेम जाम लगता है.
चंपारण का मुख्य उद्योग है
चीनी जिसके मिलों की बहुतायत हैं लेकिन अभी भी चनपटिया, मोतिहारी चीनी मिल बंद है. इस क्षेत्र में पर्यटन उद्योग
की बहुत संभावना हैं. नेपाल से सटे हुए इलाकों बगहा से लेकर नरकटियागंज तक नयनाभिराम पहाड़ी इलाका है जो वनों और सदानीरा नदियों से भरी हुई हैं और
अच्छे पर्यटक स्थल के रूप में विकसित हो सकता है. वाल्मीकिनगर रायल बंगाल टाइगर
का आश्रय और अभ्यारण्य भी है लेकिन ये अभ्यारण्य भी बदहाली का शिकाल है और वनों में
प्रशासनिक सहयोग से जबरदस्त कटाई हो रही है. अरेराज, वैराटी, मदनपुर, बनसप्ती स्थान जैसे हिंदू धार्मिक स्थल हैं तो मेहसी में एक सूफ़ी मजार भी है. इस क्षेत्र को बौद्ध तीर्थयात्रियों के लिये यह एक महत्त्वपूर्ण दर्शनीय स्थल के रूप में विकसित किया जा सकता
है..
बुद्ध की जन्मस्थली लुम्बिनी(नेपाल) और पतिनिर्वाण स्थल कुशीनगर(उत्तरनगर) के साथ वैशाली, गया आदि को
जोड़ते हुए एक गलियारा विकसित किया जा सकता है जिसके बीच में केसरिया और लौरिया भी आ जायेंगे जहां बौद्ध स्तूप हैं. लेकिन बिहार सरकार का इस संभावना की तरफ़ ध्यान ही नहीं है और ना ही यहां के प्रतिनिधियों
ने इसे मुद्दा बनाया है. बिहार सरकार के लिये पर्यटन
उद्योग का मतलब गया , राजगीर इत्यादि ही हैं.
चंपारण की यह बदहाली तब है
जब इससे गांधी जी का नाम जुड़ा हुआ है. उनके बनाये आश्रम तो बदहाली
में हैं ही उनके सिद्धांतों सत्याग्रह और अहिंसा को भी यहां की
जनता भूल ही चुकी है. वाल्मीकिनगर संसदीय क्षेत्र हाल तक मिनी चंबल के नाम से कुख्यात था ही. चंपारण के धरती से बेरोजगारी की चपेट में कई बाहुबली निकले जिनमें से अधिकांश को
वर्तमान सरकार ने ठेकेदारी के रोजगार में लगा दिया, जो नहीं लग पाये जेल में हैं. गांधी का एक बड़ा प्रयोग जो इस क्षेत्र में हुआ था वह था कुमारबाग
का बुनियादी विद्यालय की अवधारणा आज विपन्न
स्थिति में पड़ा हुआ है. विद्यालयों की बदहाली का आलम तो अत्यंत चिंताजनक है. सरकार ने विद्यालयों के भवन बनवाने और साइकिल बंटवाने में जो उर्जा खर्च की उसका
एक सौवां अंश भी शिक्षकों की बहाली में नहीं किया. रही सही कसर स्थानीय नेताओं ने पूरी कर दी. ऐरे गैरे शिक्षक हो गये हैं. यहां कुछ प्रतिष्ठित सरकारी
उच्च विद्यालय थे जिनमें शिक्षा के स्तर को कायम रख अगया था लेकिन शिक्षकोम की कमी
ने इन विद्यालों कॊ भी धूमिल कर दिया. इस क्षेत्र में बरसों से कोई नया शैक्षिक संस्थान नहीं खुला. एम.एस.कालेज. और एम.जे.के.कालेज जैसे प्रतिष्ठित कालेजों की भी हालत खस्ता है. कालेज परीक्षा संचालक केंद्र बन गये हैं जिसमें पठन पाठन होता ही नहीं है, विद्यार्थी फार्म भरते हैं परिक्षा देते हैं, इन महावियालयों में ना शिक्षक हैं न कर्मचारी. विडंबना यह है कि यहां विश्वविद्यालय नहीं है . विश्वविद्यालय संबंधित हर काम के लिये मुजफ्फरपूर जाना पड़ता है. एक केंद्रिय विश्वविद्यालय खुलने की संभावना पर भी प्रश्नचिह्न लग गया है.
चंपारण के जनप्रतिनिधियों को ये मुद्दे नहीं लगते वो तो अपने समीकरण बनाने, अपने नेताओं को अपना मुखौटा बनाने और पैसा बनाने में लिप्त हैं. चंपारण के ये मुद्दे जनता के सामने नहीं आते मीडिया के जरिये भी नहीं जबकि चंपारण से कुछ राष्ट्रीय स्तर के पत्रकार निकले हैं जो अभी सक्रिय हैं. दर असल अपने को कायम रखने के लिये सत्ता जनता को विभाजित
और पिछड़ा बनाये रखना चाहती है. जागरूक लोग तो यहां से निकल
जाते हैं.
इसलिये जरूरत है कि चंपारण अपने इन समस्याओं के लिये लड़े और एक आंदोलन इस बात के लिये हो कि चंपारण की गरिमा पाठ्य पुस्तकों के बाहर भी जमीन पर बहाल हो. क्या इस चुनाव में वोट देते समय आप सब यह सोचेंगे?