मंगलवार, 12 जुलाई 2011

कविता

१.

चादर जो सर पे होती थी खीच ली किसी ने,
धुप आज कल उस रोशनदान से सीधे चेहरे पे आती है
कुछ तो नहीं है नया अब सुबह के होने में
फिर क्यों ये कुछ नए की आस जगाती है
फिर सुबह का आना,
नाउम्मीदी का आँखों के रास्ते मन में उतर आना,
जैसे शून्य का शून्य को गले लगाना (स्मृति)

२.
 नज़र चुराने लगे हैं अंधेरे भी
उजालों की क्या कहें
दोस्त कुछ थे, अब…
और दुश्मन ?
बनाये नहीं कभी
नींद भी कम्बख्त आती नहीं
आंख बंद करते ही दिख जाती है
तस्वीर…(अभिषेक)

4 टिप्‍पणियां:

Smriti ने कहा…

cute poem.youthful and sadistically romantic.good

मनोज कुमार ने कहा…

भाई अमितेश,
आपके प्रोफ़ाइल में आपका मेल आई डी नहीं मिला, और राजभाषा हिन्दी पर आपने लिख दिया वहां वह आपकी अंतिम टिप्पणी थी, इसलिए लगा कि अब शायद आप वहां न जाएं तो आप तक बात पहुंचाने का, अपना निवेदन पहुंचाने का और कोई ज़रिया न देख मुझे यहां लिखना पड़ रहा है। क्षमा करेंगे।

आपके प्रोफ़ाइल में लिखा है
“सलाह अच्छी देता हुं,”
तो ज़रा मुझे भी दीजिए ना कि क्या ग़लत है और बचकाना है, ठीक कर लूं, कुछ सुधार कर इस आलेख में, अपने आप में भी।

एक सलाह मेरी भी है, इस ‘हुं’ को ‘हूं’ कर लें।

सादर,
मनोज

amitesh ने कहा…

आपकी सलाह का आभाए...ये ना समझे कि मैं उस ब्लाग पर नहीं जाऊंगा...मुझे लगता है कि आप लिखने की जल्दीबाजी में हैं. कुछ पारसी लेखकों की आत्मकथायें, रंग दस्तावेज, नागरी प्रचारिणी सभा का वृहत इतिहास का नाटक खंड, एवं रंगमंच के इतिहास पे अंग्रेजी की कुछ पुस्तकें आप पढें. आप जो भी लिख रहें हैं वो बचकाना है., और कही सुनाई बात है. नया जोड़िये.

अनूप शुक्ल ने कहा…

अच्छा है!
’धुप’ को ’धूप’ करने के लिये नहीं कहा अभी तक किसी ने! :)